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तुलसीदास - राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद
प्रसंग- प्रस्तुत पद तुलसीदास जी के द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरित मानस’ के बाल कांड से लिया गया है। सीता स्वयंवर के समय श्री राम ने शिवजी के धनुष को तोड़ दिया था जिस कारण परशुराम ने बहुत गुस्सा किया था। लक्ष्मण ने उन पर व्यंग्य किया था जिससे परशुराम का गुस्सा भड़क उठा था।
व्याख्या- लक्ष्मण ने हँस कर कोमल वाणी में कहा- अहो, मुनीश्वर तो अपने आप को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। ये मुझे देख कर बार-बार अपनी कुल्हाड़ी दिखाते हैं। ये तो फूंक से पहाड़ उड़ा देना चाहते हैं। यहाँ कोई काशीफल या कुम्हड़े का बहुत छोटा-सा फल नहीं है जो आप की अँगूठे के साथ वाली उंगली को देखते ही मर जाती है। मैंने तो जो कुछ कहा है वह आप के कुल्हाड़े और धनुष-बाण को देखकर ही अभिमान सहित कहा है। भृगु वंशी समझकर और आप का यज्ञोपवीत देख कर आप जो कुछ कहते हैं, उसे मैं अपना गुस्सा रोक कर सह लेता हूँ। देवता, ब्राहमण, भगवान् के भक्त और गौ-इन पर हमारे कुल में अपनी वीरता का प्रदर्शन नहीं किया जाता है क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और इन से हार जाने पर अपकीर्ति होती है। इसलिए यदि आप मारें तो भी आप के पैर ही पड़ना चाहिए। आप का एक-एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है। धनुष-बाण और कुल्हाड़ा तो आप व्यर्थ ही धारण करते हैं। आप के इस धनुष-बाण और कुल्हाड़े को देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो तो हे धीर महामुनि! आप क्षमा कीजिए। यह सुन कर भृगु वंशमणि परशुराम क्रोध के साथ गंभीर वाणी में बोले।
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लक्ष्मण ने वीर योद्धा की क्या-क्या विशेषताएँ बताई?
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