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टोपी
गवरइया और गवरे की बहस तीन तर्कों पर हुई-
1. आदमी के कपड़े पहनने पर।
2. गवरइया द्वारा टोपी पहनने की इच्छा व्यक्त करने पर।
3. गवरइया को रुई का फाहा मिलने पर।
इन विचारों को संवादों में निम्न रूप से लिखा जा सकता है-
गवरइया - आदमी रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर कितना जंचता है।
गवरा - बेवकूफ है आदमी, कपड़े पहनकर अपनी सुंदरता को ढक लेता है।
गवरइया - कपड़े मौसम से बचने हेतु भी पहने जाते हैं।
गवरा - कपड़े पहन लेने से तो उनकी मौसम को सहने की शक्ति समाप्त हो जाती है। साथ ही कपड़ों से उनकी हैसियत भी झलकती है।
गवरइया - आदमी की टोपी तो सबसे अच्छी होती है।
गवरा - टोपी। टोपी की तो बहुत मुसीबतें हैं। कितने ही राजपाट टोपी के दम पर बदल जाते हैं। टोपी इज़्ज़त का प्रतीक है। साथ ही जीवन की जरूरतें पूरी करने हेतु न जाने कितनी टोपियाँ घुमानी पड़ती हैं अर्थात् न जाने कितनों को मूर्ख बनाना पड़ता है।(गवरइया का कोई प्रतिक्रिया किए बिना अपनी पुन पर अड़े रहना)
गवरइया – गवरा! देखो मुझे रुई का फाह। मिल गया। अब मेरी टोपी बन जाएगी।
गवरा - तू तो बावरी हो गई है। रुई से टोपी तक का सफर तो बहुत लंबा है।
गवरइया - बस तुम तो देखते जाओ कैसे में टोपी बनवा कर ही दम लूँगी।
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