हमारे अतीत भाग 2 Chapter 7 बुनकर, लोहा बनाने वाले और फैक्ट्री मालिक
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    NCERT Solution For Class 8 सामाजिक विज्ञान हमारे अतीत भाग 2

    बुनकर, लोहा बनाने वाले और फैक्ट्री मालिक Here is the CBSE सामाजिक विज्ञान Chapter 7 for Class 8 students. Summary and detailed explanation of the lesson, including the definitions of difficult words. All of the exercises and questions and answers from the lesson's back end have been completed. NCERT Solutions for Class 8 सामाजिक विज्ञान बुनकर, लोहा बनाने वाले और फैक्ट्री मालिक Chapter 7 NCERT Solutions for Class 8 सामाजिक विज्ञान बुनकर, लोहा बनाने वाले और फैक्ट्री मालिक Chapter 7 The following is a summary in Hindi and English for the academic year 2021-2022. You can save these solutions to your computer or use the Class 8 सामाजिक विज्ञान.

    Question 1
    CBSEHHISSH8008188

    यूरोप में किस तरह के कपड़ों की भारी माँग थी ? 

    Solution

    छापेदार सूती कपड़े जिसे शिंट्ज़, कोसा (या खस्सा) और बंडाना कहते थे। इस तरह के कपड़ों की  यूरोप में  भारी माँग थी। 

    Question 2
    CBSEHHISSH8008189

    जामदानी क्या है? 

    Solution

    जामदानी एक तरह का बारीक मलमल होता है। जिस पर करघे में सजावटी चिह्न बने जाते हैं। इसका रंग प्राय: सलेटी और सफ़ेद होता हैं।  

    Question 3
    CBSEHHISSH8008190

    बंडाना क्या है?

    Solution

    बंडाना शब्द का प्रयोग गले या सिर पर पहनने वाले चटक रंग के छापेदार गुलूबंद के लिए किया जाता है। यह शब्द हिंदी के 'बाँधना' शब्द से निकला है। 

    Question 4
    CBSEHHISSH8008191

    अगरिया कौन होते हैं?

    Solution

    अगरिया लोहा बनाने वाले लोगों का एक समुदाय था। ये लोग लोहा गलने की कला में निपुण थे।

    Question 8
    CBSEHHISSH8008195

    विभिन्न कपड़ों के नामों से उनके इतिहासों के बारे में क्या पता चलता है? 

    Solution

    (1) यूरोप के व्यापारियों ने भारत से आया बारीक सूती कपड़ा सबसे पहले मौजूदा इराक के मोसूल शहर में अरब के व्यापारियों के पास देखा था। इसी आधार पर वे बारीक बुनाई वाले सभी कपड़ों को 'मुस्लिन' (मलमल) कहने लगे।
    (2) मसालों की तालाश में जब पहली बार पुर्तगाली भारत आए तो उन्होंने दक्षिण-पश्चिमी भारत में केरल के तट पर कालीकट में डेरा डाला।
    (3) छापेदार सूती कपड़े जिसे शिंट्ज़, कोसा (या खस्सा) और बंडाना कहते थे। इस तरह के कपड़ों की यूरोप में भारी माँग थी। शिंट्ज़ शब्द हिंदी के शब्द 'छींट' शब्द से निकला है। बंडाना शब्द का इस्तेमाल गले या सिर पर पहनने वाले चटक रंग के छापेदार गुलूबंद के लिए किया जाता है। यह शब्द हिंदी के 'बाँधना' शब्द से निकला है। इस श्रेणी में चटक रंगों वाले ऐसी बहुत सारी किस्म के कपड़े आते थे जिन्हें बाँधने और रंगसाज़ी की विधियों से ही बनाया जाता था।

    Question 9
    CBSEHHISSH8008196

    इंग्लैंड के ऊन और रेशम उत्पादकों ने अठारहवीं सदी की शुरुआत में भारत से आयत होने वाले कपड़े का विरोध क्यों किया था?      

    Solution

    इस समय इंग्लैंड में कपड़ा उद्योग के विकास की शुरुआत ही हुई थी। भारतीय वस्त्रों से प्रतियोगिता में असक्षम होने के कारण ब्रिटिश उत्पादक अपने देश में भारतीय वस्त्रों पर प्रतिबंध लगाकर अपने लिए बाजार सुनिश्चित करना चाहते थे।
    अत: आरंभिक अठारहवीं सदी के आते-आते भारतीय वस्त्रों की लोकप्रियता से चिंतित ब्रिटिश ऊन तथा रेशम उत्पादकों ने भारतीय वस्त्रों के आयात का विरोध करना शुरू कर दिया। 1720 में ब्रिटिश सरकार ने एक कानून लाकर छपाई वाले सूती वस्त्रों अर्थात् 'शिंट्ज़' के उपयोग पर रोक लगा दी। इस अधिनियम को 'कैलिको अधिनियम' के नाम से जाना गया।

    Question 10
    CBSEHHISSH8008197

    ब्रिटेन में कपास उद्योग के विकास से भारत के कपड़ा उत्पादकों पर किस तरह के प्रभाव पड़े?  

    Solution

    ब्रिटेन में सूती कपड़ा उद्योग के विकास से भारतीय कपड़ा उत्पादकों पर कई तरह के असर पड़े:
    (1) भारतीय कपड़े को यूरोप और अमेरिका के बाज़ारों में ब्रिटिश उद्योगों में बने कपड़ों से मुकाबला करना पड़ता था।

    (2) भारत से इंग्लैंड को कपड़े का निर्यात मुश्किल होता जा रहा था क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने भारत से आने वाले कपड़े पर भारी सीमा शुल्क थोप दिए थे।
    (3) इंग्लैंड में बने सूती कपड़े ने उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक भारतीय कपड़े को अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप के परंपरागत बाज़ारों से बाहर कर दिया था। इसकी वजह से हमारे यहाँ के हज़ारों बुनकर बेरोज़गार हो गए। सबसे बुरी मार बंगाल के बुनकरों पर पड़ी।
    (4) 1830 के दशक तक भारतीय बाज़ार ब्रिटेन में बनी सूती कपड़ें से पट गए। इससे ने केवल बुनकरों बल्कि सूत काटने वालों की भी हालत ख़राब होती गई।

    Question 11
    CBSEHHISSH8008198

    उन्नीसवीं सदी में भारतीय लौह प्रगलन उद्योग का पतन क्यों हुआ?

    Solution

    उन्नीसवीं सदी में भारतीय लौह प्रगलन उद्योग का पतन निम्नलिखित कारणों से हुआ:

    (i) औपनिवेशिक सरकार ने आरक्षित वनों में लोगों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी परिणामस्वरूप लोहा बनाने वालों को कोयले के लिए लकड़ी मिलना मुश्किल हो गया था तथा लौह अयस्क प्राप्त करना भी कठिन था। लिहाज़ा, बहुत सारे कारीगरों से यह पेशा छोड़ दिया और वे आजीविका के दूसरे साधन ढूँढ़ने लगे। 

    (ii) कुछ क्षेत्रों में सरकार ने जंगलों में आवाजाही की अनुमति दे दी थी। लेकिन प्रगालकों को अपनी प्रत्येक भट्ठी के लिए वन विभाग को बहुत भारी कर चुकाने पड़ते थे जिससे उनकी आय गिर जाती थी।

    (iii) उन्नीसवीं सदी के आखिर तक ब्रिटेन से लोहे और इस्पात का आयत भी होने लगा था। भारतीय लुहार भी घरेलु बर्तन व औज़ार आदि बनाने के लिए आयातित लोहे का इस्तेमाल करने लगे थे। इसकी वजह से स्थानीय प्रगालकों द्वारा बनाए जा रहे लोहे की माँग कम होने लगी।

    Question 12
    CBSEHHISSH8008199

    भारतीय वस्त्रोद्योग को अपने शुरुआती सालों में किन समस्याओं से जूझना पड़ा?

    Solution

    भारतीय वस्त्रोद्योग को अपने शुरुआती सालों में अनेकों समस्याओं का सामना करना पड़ा:

    (i) सबसे पहेली समस्या तो यही थी कि इस उद्योग को ब्रिटेन से आए सस्ते कपड़ों का मुकाबला करना पड़ता था।

    (ii) ज़्यादातर देशों में सरकारें आयातित वस्तुओं पर सीमा शुल्क लगा कर अपने देश में औद्योगीकरण को बढ़ावा देती थीं। इससे प्रतिस्पर्द्धा खत्म हो जाती थी और संबंधित देश के नवजात उद्योगों को सरंक्षण मिलता था।

    Question 13
    CBSEHHISSH8008200

    पहले महायुद्ध के दौरान अपना स्टील उत्पादन बढ़ाने में टिस्को को किस बात से मदद मिली?

    Solution

    जब तक टिस्को की स्थापना हुई, हालात बदलने लगे थे। 1914 में पहला विश्व युद्ध शुरू हुआ। ब्रिटेन में बनने वाले इस्पात को यूरोप में युद्ध संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए झोंक दिया गया। इस तरह भारत आने वाले ब्रिटिश स्टील की मात्रा में भारी गिरावट आई और रेल की पटरियों के लिए भारतीय रेलवे टिस्को पर आश्रित हो गया। जब युद्ध लम्बा खिंच गया तो टिस्को को युद्ध के लिए गोलों के खोल और रेलगाड़ियों के पहिये बनाने का काम भी सौंप दिया गया। 1919 तक स्थिति यह हो गयी थी की टिस्को में बनने वाले 90 प्रतिशत इस्पात को औपनिवेशिक सरकार की खरीद लेती थी। जैसे-जैसे समय बीता टिस्को समूचे ब्रिटिश साम्राज्य में इस्पात का सबसे बड़ा कारख़ाना बन चूका था।         

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