बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर
श्रम विभाजन की दृष्टि भी जाति-प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। तर्क सहित स्पष्ट कीजिए।
श्रम-विभाजन की दृष्टि से भी जाति-प्रथा गंभीर दोषो से युक्त है। इस विषय में निम्नलिखित तर्क दृष्टव्य हैं-
1. जाति-प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता।
2. इसमें मनुष्य की व्यक्तिगत भावना और रुचि का कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं होता।
3. जाति-प्रथा द्वारा श्रम विभाजन मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त कर चालू काम करने व कम काम करने के लिए प्रेरित करती है।
4. जाति-प्रथा के कारण श्रम-विभाजन होने पर निम्न कार्य समझे जाने वाले कार्य को करने वाले श्रमिक को भी हिंदू समाज घृणित एवं त्याज्य समझता है।
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जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती रही है? क्या यह स्थिति आज भी है?
लेखक के मत से ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है?
शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक परंपरा की दृष्टि में असमानता संभावित रहने के बावजूद डॉ. अंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?
सही में डॉ. आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व और मान्यता के लिए जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों व जीवन सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इससे आप सहमत हैं?
आदर्श समाज के तीन तत्त्वों में से एक ‘भ्रातृता’ को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस ‘भ्रातृता’ शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे?
डॉ. आंबेडकर ने जाति प्रथा के भीतर पेशे के मामले में लचीलापन न होने की जो बात की है-उस संदर्भ में ‘गलता लोहा’ पर पुनर्विचार कीजिए।
आंबेडकर की पुस्तक ‘जाति-भेद का उच्छेद’ की तरह राजकिशोर की पुस्तक भी है ‘जाति कौन तोड़ेगा?’ शिक्षक की सहायता से दोनों उपलब्ध कर पढ़िए।
जाति प्रथा क्यों स्वीकार्य नहीं है?
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