सूरदास - पद
सूरदास के भ्रमरगीतों में आरंभ से अंत तक वियोग शृंगार का साम्राज्य रहा है। संयोग शृंगार का कोई भी उपयुक्त प्रसंग इनमें उपलब्ध नहीं होता। वे श्रीकृष्ण को याद करती थीं; आँसू बहाती थीं और वियोग की पीड़ा में जलती रहती थीं। उद्धव के योग-साधना के संदेशों ने उसके वियोग के कष्टों को और अधिक बढ़ा दिया है-
अब इन जोग सँदेसनी सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।।
गोपियों को वियोग की पीड़ा से उतना अधिक कष्ट नहीं था जितना उद्धव के द्वारा दिए जाने वाले योग के संदेश से था क्योंकि इससे उनका विरह-भाव और अधिक बढ़ गया था।
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