तुम कब आओगे अतिथि - शरद जोशी
अतिथि यदि बिना तिथि के घर आते हैं तो अपना देवत्व खो बैठते हैं। ‘अतिथि देवा भव’ का मूल्य नगण्य हो जाता है। उन्हें देवता नहीं माना जा सकता। वह मानव जबरदस्ती दूसरों के घर में ठहरकर राक्षसत्व का स्वरूप पा लेता है। यदि अतिथि लम्बे समय तक ठहर जाता है तो वह अपना महत्व खो बैठता है। अधिक दिनों तक अतिथि का ठहरना व्याकुलता उत्पन्न कर देता है। उसकी विदाई की प्रतीक्षा में मन डूबने लगता है। अतिथि के मुख पर सुलभ व सहज मुस्कान होती है और वह मुस्कान लेखक की सहनशीलता को ठेस पहुंचाती है।
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