तुम कब आओगे अतिथि - शरद जोशी
लेखक अतिथि को भावपूर्ण विदाई देना चाहता था। वह अतिथि का भरपूर स्वागत कर चुका था। उसके सत्कार का आखिरी छोर आ चुका था। प्राचीनकाल में कहा जाता था। ‘अतिथि देवो भव’। अतिथि जब विवशता का पर्याय बन जाए तो उसे भाव विभोर होकर विदा नहीं किया जा सकता। अब लेखक चाहता था कि जब अतिथि विदा हो तब वह और उसकी पत्नी उसे स्टेशन तक छोड़ने जाएँ। वह उसे सम्मानजनक विदाई देना चाहता था। परन्तु उनकी यह मनोकामना पूर्ण नहीं हो पाई।
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