गोल मेज़ सम्मेलन में हुई वार्ता से कोई नतीजा क्यों नहीं निकल पाया?
1930 से 1932 की अवधि में ब्रिटिश सरकार ने भारत की समस्या पर बातचीत करने तथा नया एक्ट पास करने के लिए तीन गोलमेज़ सम्मेलनों का आयोजन किया, परंतु इन सम्मेलनों में किसी मुद्दे पर आम सहमति नहीं बन पाई। परिणामस्वरूप, इन सम्मेलनों में कोई महत्वपूर्ण निर्णय निकल कर सामने नहीं आया। तीनों सम्मेलनों में की गई कार्रवाई का वर्णन कुछ इस प्रकार है:
- प्रथम गोलमेज़ सम्मेलन: पहला गोलमेज़ सम्मेलन नवम्बर, 1930 में आयोजित किया गया जिसमें देश के प्रमुख नेता शामिल नहीं हुए। इसी कारण अंतत: यह बैठक निरर्थक साबित हुई। जनवरी 1931 में गाँधी जी को जेल से रिहा किया गया। अगले ही महीने वायसराय के साथ उनकी कई लंबी बैठकें हुई। इन्हीं बैठकों के बाद ''गाँधी-इर्विन समझौते'' पर सहमति बनी जिसकी शर्तो में सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेना, सारे कैदियों की रिहाई और तटीय इलाकों में नमक उत्पादन की अनुमति देना शामिल था।
- दूसरा गोलमेज़ सम्मेलन: दूसरा गोलमेज़ सम्मेलन 1931 के आखिर में लंदन में आयोजित हुआ। इसमें गाँधी जी कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे। उनका कहना था कि उनकी पार्टी पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती है। परन्तु उनके इस दावे को तीन पार्टियों ने चुनौती दी। मुस्लिम लीग का कहना था कि वह मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हित में काम
करती है। राजे-रजवाड़ों का दावा था कि कांग्रेस का उनके नियंत्रण वाले भूभाग पर कोई अधिकार नहीं है। तीसरी चुनौती तेज़-तर्रार वकील और विचारक बी. आर. अंबेडकर की ओर से थी जिनका कहना था कि गाँधी जी और कांग्रेस पार्टी निचली जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। परिणामस्वरूप लंदन में हुए इस सम्मेलन में कोई भी परिणाम नहीं निकला। इसलिए गाँधीजी को खाली हाथ ही लौटना पड़ा। - तीसरा गोलमेज़ सम्मेलन: 17 नवंबर, 1932 को तीसरा सम्मेलन आयोजित किया गया। इसका इंग्लैंड के ही मजदूर दल ने बहिष्कार किया। भारत में कांग्रेस ने पुनः आंदोलन कि शुरुवात कर दी थी। अतः कांग्रेस ने भी इसका बहिष्कार किया। इसमें केवल 46 प्रतिनिधि ने भाग लिया। इनमें से अधिकतर ब्रिटिश सरकार की हाँ में हाँ मिलाने वाले थे।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इन सम्मेलनों की वार्ताओं में कोई महत्वपूर्ण परिणाम नहीं सामने आया।



