जाति व्यवस्था के संबंध में अल-बिरूनी की व्याख्या पर चर्चा कीजिए।
अल-बिरूनी ने अन्य समुदायों में प्रतिरूपों की खोज के माध्यम से जाति व्यवस्था को समझने और व्याख्या करने का प्रयास किया। उसने लिखा कि प्राचीन फारस में चार सामाजिक वर्गों को मान्यता थी:
- घुड़सवार और शासक वर्ग,
- भिक्षु एवं आनुष्ठानिक पुरोहित
- चिकित्सक, खगोल शास्त्री तथा अन्य वैज्ञानिक
- कृषक तथा शिल्पकार।
वास्तव में वह यह दिखाना चाहता था कि ये सामाजिक वर्ग केवल भारत तक ही सीमित नहीं थे। इसके साथ ही, उसने यह दर्शाया कि इस्लाम में सभी लोगों को समान माना जाता था और उनमें भिन्नताएँ केवल धार्मिकता के पालन में थीं।
जाति व्यवस्था के संबंध में ब्राह्मणवादी व्याख्या को मानने के बावजूद, अल-बिरूनी ने अपवित्रता की मान्यता को अस्वीकार किया। उसने लिखा कि हर वह वस्तु जो अपवित्र हो जाती है, अपनी पवित्रता की मूल स्थिति को पुन: प्राप्त करने का प्रयास करती है और सफल होती है। सूर्य हवा को स्वच्छ करता है और समुद्र में नमक पानी को गंदा होने से बचाता है। अल-बिरूनी जोर देकर कहता है कि यदि ऐसा नहीं होता तो पृथ्वी पर जीवन असंभव होता। उसके अनुसार जाति व्यवस्था में सन्निहित अपवित्रता की अवधारणा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध थी।
अल-बिरूनी की भारतीय समाज के बारे में समझ भारत की वर्ण-व्यवस्था पर आधारित थीं जिसका उल्लेख इस प्रकार हैं:
- ब्राह्मण: सबसे ऊँची जाति ब्राह्मणों की है जिनके विषय में हिंदुओं के ग्रंथ हमें बताते हैं कि वे ब्रह्मा के सिर से उत्पन्न हुए थे और क्योंकि ब्रह्म, प्रकृति नामक शक्ति का ही दूसरा नाम है और सिर शरीर का सबसे ऊपरी भाग है। इसलिए हिंदू उन्हें मानव जाति में सबसे उत्तम मानते हैं।
- क्षत्रीय: क्षत्रियों का सृजन ब्रह्मा के कन्धों और हाथों से हुआ था। उनका दर्जा ब्राह्मणों से अधिक नीचे नहीं है।
- वैश्य: वैश्य जाती व्यवस्था में तीसरे स्थान पर आते हैं। वे ब्रह्मा की जंघाओं से जन्मे थे।
- शूद्र: शूद्रों का स्थान सबसे नीचा माना जाता हैं क्योंकि इनका जनम ब्रह्मा के चरणों से हुआ था।