प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
हार कर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोंक दिया
ऊपर से ठीकठाक
पर अंदर से
न तो उसमें कसाव था
न ताकत!
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी
मुझे पसीना पोंछते देख कर पूछा-
“क्या तुमने भाषा को
सहूलितय से बरतना कभी नहीं सीखा?”
प्रसगं: प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि कुँवर नारायण द्वारा कविता कत सी ‘बात थी पर’ से अवतरित हैं। कवि बताता है कि जब हम सीधी-सादी बात को व्यर्थ के शब्द-जाल मई में उलझा देते हैं तब तथ्य और भाषा का सही सामजंस्य नहीं बैठ पाता और बात स्पष्ट नहीं हो पाती।
व्याख्या: कवि जब अपनी बात को समझाने में असमर्थ रहा तब उसने बात को प्रभावहीन बना दिया। जिस प्रकार जब पेंच की चुडियाँ काम नहीं करतीं तब उसे कील की तरह ठोंक दिया जाता है, वैसे ही कुछ स्थिति उसके कथ्य के साथ हुई। कील की तरह ठोंक देने में ऊपर से तो चीज ठीक-ठाक प्रतीत होती है, पर अंदर से वह ढीली रह जाती है। उसमें चूड़ी जैसा कसाव नहीं आ पाता और न ताकत ही आ पाती है। ऐसी ही स्थिति बलात् लादी हुई बात की होती है, उसमें अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न नहीं हो पाता।
कवि बात की तुलना एक शरारती बच्चे से देता है। एक शरारती बच्चा कवि से पूछ बैठता है कि क्या उसने (कवि ने) भाषा का मही प्रयोग नहीं सीख। है। माथे से पसीना पोंछना उसकी द्विविधा को झलका देता है। भाषा को सहूलियत के साथ बरतना सीखना होगा, तभी हमारी बात का अपेक्षित प्रभाव पड़ सकेगा।
अच्छी बात या अच्छी कविता का बनना सही बात का सही शब्द से जुड़ना होता है। जब ऐसा होता है तब किसी अतिरिक्त दबाव या अतिरिक्त मेहनत की आवश्यकता नहीं होती। वह सहूलियत के साथ हो जाता है।
1. प्रतीकात्मकता का समावेश है। 2. प्रश्न अलंकार का प्रयोग हुआ है3. मुहावरों का सटीक प्रयोग है। 4. लाक्षणिकता का समावेश है।