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निम्नलिखित में से किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में लिखिए [2 × 4 = 8]
(क) लक्ष्मण ने धनुष टूटने के किन कारणों की संभावना व्यक्त करते हुए राम को निर्दोष बताया?
(ख) फागुन में ऐसी क्या बात थी कि कवि की आँख हट नहीं रही है?
(ग) फसल क्या है? इसको लेकर फसल के बारे में कवि ने क्या-क्या संभावनाएँ व्यक्त की हैं?
(घ) ‘कन्यादान’ कविता में वस्त्र और आभूषणों को स्त्री जीवन के बंधन’ क्यों कहा गया है?
(ङ) संगतकार किसे कहा जाता है? उसकी भूमिका क्या होती
(क) लक्ष्मण ने धनुष टूटने के कई कारण बताते हुए राम को निर्दोष बताया।
(ख) फागुन के महीने में प्राकृतिक सौंदर्य अपनी चरम सीमा पर व्याप्त होता है। फागुन में बसंत का यौवन और सुंदरता कवि की आँखों में समा नहीं पा रहा है। उसका हृदय प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत है। इस कारण कवि की आँख प्रकृति के सौंदर्य से हट नहीं पा रही है।
(ग) फसले नदियों के पानी का जादू, मिट्टियों का गुण धर्म, मानव श्रम धूप और हवी का मिला-जुला रूप है। सभी प्राकृतिक उपादानों और मानव श्रम का परिणाम है। फसल को लेकर कवि ने संभावनाएँ व्यक्त करते हुए कहा है कि मनुष्य यदि परिश्रम करे और प्राकृतिक उपादनों को सही उपयोग करे तो देश की आर्थिक स्थिति मजबूत होगी। किसानों की स्थिति में सुधार आएगा और कृषि व्यवस्था सदृढ़ होगी।
(घ) कन्यादान कविता में वस्त्र और आभूषणों को स्त्री जीवन के बंधन इसलिए कहा गया है क्योंकि स्त्रियाँ सुंदर वस्त्र व सुंदर आभूषणों के चमक वे लालच में भ्रमित होकर आसानी से अपनी आजादी खो देती हैं। और मानसिक रूप से हर बंधन स्वीकारते हुए जुल्मों का शिकार होती हैं।
(ङ) किसी भी क्षेत्र या कार्य में मुख्य कलाकार का सहयोग करने वाले सहायकों को संगतकार कहा जाता है। संगताकर की भूमिका यह होती है कि वह अपने मुख्य कलाकार को पूर्ण सहयोग प्रदान करता ह और उन्हें आगे बढ़ने में योगदान देता है। जैसे संगीत के क्षेत्र में संगतकार मुख्य गायक की आवाज को बिखरने नहीं देता है साथ ही अपनी आवाज को प्रभावी नहीं बनने देता है।
लक्ष्मण (मुस्कराते हुए)-अरे वाह! मुनियों में श्रेष्ठ, आप परशुराम जी, क्या अपने आप को बहुत बड़ा योद्धा समझते हैं? आप हैं क्या? बार-बार अपनी कुल्हाड़ी क्यों दिखाते हैं, मुझे? आप अपनी फूँक से पहाड़ उड़ाने की कोशिश करना चाहते हैं क्या?
परशुराम (गुस्से में भरकर) -तुम्हें तो..........।
लक्ष्मण (व्यंग्य भाव से)-बोलो, बोलो (कौन परवाह करता है, आपकी। मैं कुम्हड़े का फूल नहीं हूँ जो आपकी तर्जनी देख सूख जाऊँगा। मैंने तो आपके फरसे और धनुष-बाण को देखा था। समझा था, आप कोई क्षत्रिय है। इसीलिए अभिमानपूर्वक मैंने कुछ कह दिया था आपसे।
परशुराम (गुस्से से लाल होते हुए)-अरे, तुम…………।
लक्ष्मण (डरने का अभिनय करते हुए)-अरे, अरे! आप तो ब्राहमण हैं। आपके गले में तो यज्ञोपवीत भी है। गलती हो गई मुझ से। क्षमा’ करें मुझे आप। हमारे वंश में देवता, ब्राह्मण, भक्त और गौ के प्रति कभी वीरता नहीं दिखाई जाती।
परशुराम (गुस्से से पूछते हुए) -तुम तो...........।
लक्ष्मण-इन्हें मारने से पाप लगता है...और यदि इनसे लड़कर हार जाएं तो अपयश मिलता है। ब्राहमण देवता.....यदि आप मुझे मारेंगे, तो भी मैं आप के पैरों में ही पडूँगा। अरे मुनिवर, आपकी तो बात ही अनूठी है, आप का एक-एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है...तो फिर बताइए कि आपने व्यर्थ ही ये धनुष-बाण और पारसा क्यों धारण कर रखा है? क्या जरूरत है आपको इन सब की? मैंने आपके इन अस्त्र-शस्त्रों को देखकर आपसे जो उल्टा-सीधा कह दिया है कृपया उसके लिए मुझे माफ कर दीजिए। हे महामुनि मुझे क्षमा कर दीजिए।
परशुराम ने अपने विषय में सभा में क्या-क्या कहा, निम्न पद्यांश के आधार पर लिखिए-
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।
सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।
लक्ष्मण ने वीर योद्धा की क्या-क्या विशेषताएँ बताई?
विनम्रता सदा साहसियों और शक्तिशालियों को ही शोभा देती है। कमजोर और कायर व्यक्ति का विनम्र होना उस का गुण नहीं होता बल्कि उसकी मजबूरी होती है। वह किसी का क्या बिगाड़ सकता है लेकिन कोई शक्तिशाली व्यक्ति अपनी शक्ति का दुरुपयोग न करके जब दीन-दुःखियों के प्रति विनम्रता का भाव प्रकट करता है तो सारे समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। तुलसीदास जी ने कहा भी है- ‘परम धर्म श्रुति विदित अहिंसा’ तथा ‘पर पीड़ा सम नहि अधमाई।’ साहस और धैर्य मन में उत्पन्न होने वाले वे भाव हैं जो शक्ति को पाकर विपरीत स्थितियों में मानव को विचलित होने से रोक लेते हैं। साहस और धैर्य तो ‘असमय के सखा’ हैं जिन्हें शक्ति की सहायता से बनाकर रखा ही जाना चाहिए पर उसके साथ विनम्रता का बना रहना आवश्यक है। विनम्र व्यक्ति ही किसी के साथ होने वाले अन्याय के विरोध में खड़ा हो सकने का साहस करता है। भगवान् विष्णु को जब भृगु ने ठोकर मारी थी और उन्होंने साहस और शक्ति रखने के बावजूद विनम्रता का प्रदर्शन किया था तभी उन्हें देवों में से सबसे बड़ा मान लिया गया था। समाल में सदा से ही माना गया है कि अशक्त और असहाय की याचनापूर्ण करुण दृष्टि से जिसका हृदय नहीं पसीजा, भूखे व्यक्ति को अपने खाली पेट पर हाथ फिराते देखकर जिसने अपने सामने रखा भोजन उसे नहीं दे दिया, अपने पड़ोसी के घर में लगी आग को देखकर उसे बुझाने के लिए वह उसमें कूद नहीं पड़ा-वह मनुष्य न होकर पशु है क्योंकि साहस और शक्ति होते हुए अन्याय का प्रतिकार न करना कायरता है। साहस और शक्ति के साथ विनम्रता मानव का सदा हित करती है। गुरु नानक देव जी ने कहा भी है-
जो प्राणी ममता तजे, लोभ, मोह, अहंकार
कह नानक आपन तरे, औरन लेत उबार।
साहस और शक्ति तो अनेक प्राणियों में होती है पर विनम्रता के अभाव में वे कभी भी समाज में प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर पाते। जब हमारे हृदय में विनम्रता का भाव हो तभी हम स्वयं को भुलाकर दूसरों के कष्टों को कम करने की बात सोचते हैं।
मनुष्य के जीवन में सुख-दुःख तो बार-बार आते-जाते रहते हैं। सुख तो जल्दी से बीत जाते हैं पर दुःख की घड़ियां सुरक्षा के मुख की तरह लगातार बढ़ती जाती ही प्रतीत होती हैं। उस समय दूसरों के साथ किया गया विनम्रता का व्यवहार और महानुभूति तपती रेत पर ठंडे पानी की बूंदों के समान प्रतीत होती है। जो अपने सुखों को त्याग कर दूसरों के दुःखों में सहभागी बन जाते हैं वही अपने साहस और शक्ति का अच्छा परिचय देते हैं। वाल हिटमैन ने इसीलिए कहा है-
पीड़ित से मैं यह नहीं पूछता:
“तुम्हारा दर्द कैसा है?”
मैं स्वयं पीड़ित बन जाता हूं
और दर्द महसूस करने लगता हूं।
सच्ची मनुष्यता इसी बात में छिपी हुई है कि मनुष्य साहस और शक्ति होने के साथ विनम्रता को हमेशा महत्त्व दें। भगवान् शिव इसलिए पूजनीय हैं कि उन्होंने साहस और शक्ति से संपन्न होते हुए विनम्रता का परिचय दिया था। विषपान कर देवताओं और दानवों की उन्होंने रक्षा की थी। भर्तृहरि ने राक्षस और मनुष्य का अंतर विनम्रता के आधार पर ही किया है। जो विनम्र है वही महापुरुष है और जो अपने साहस और शक्ति को स्वार्थ के लिए प्रयोग करता है वही राक्षस है। तभी तो मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप ही आप चरे।
मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए मरे।।
वास्तव में ही साहस और शक्ति के साथ विनम्रता ही मानव को मानव बनाती है।
तुलसीदास ने अवधी भाषा के लोकप्रिय और परिनिष्ठित रूप को साहित्यिक रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने व्याकरण के नियमों का पूर्ण रूप से निर्वाह किया है। उनकी भाषा में कहीं भी शिथिलता दिखाई नहीं देती। उनकी वाक्य-रचना पूर्ण रूप से निर्दोष है। उन्होंने शब्द प्रयोग में उदार नीति का परिचय दिया है जिसमें तत्सम- तद्भव शब्दावली के साथ देशी शब्दों का प्रयोग दिखाई देता है। लोक प्रचलित मुहावरों और लोकोक्तियों के कारण उनकी भाषा सजीव, प्रवाहपूर्ण और प्रभावशाली बन गई है-
(i) गाधिसू नु कह ह्रदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।
(ii) मिले न कबहुँ सुभर रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाड़े।।
गोस्वामी जी ने प्रसंगानुकूल भाषा का प्रयोग किया है। रसकी अनुकूलता के अतिरिक्त उन्होंने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि किस स्थान पर किस शब्द का प्रयोग किया जाए। उनकी भाषा सर्वत्र भावों और विचारों की सफल अभिव्यक्ति मे समय दिखाई देती है। गुण के सहारे रस की अभिव्यक्ति करने में उन्होंने सफलता पाई है। उनकी भाषा की वर्ण मैत्री दर्शनीय है। इन्होने नाद सौंदर्य का पूरा ध्यान रखा है। वास्तव में भाषा पर जैसा अधिकार तुलसीदास जी का है वैसा किसी भी और हिंदी कवि का नहीं है।
तुलसी दास हिंदी के श्रेष्ठतम भक्त कवियों में से एक है जिन्होंने गंभीरतम दार्शनिक काव्य लिखने के साथ-साथ व्यंग्य का अनूठा सौंदर्य भी प्रस्तुत किया है। इस प्रसंग में लक्ष्मण ने मुनि परशुराम की करनी और कथनी पर कटाक्ष करते हुए व्यंग्य की सहज-सुंदर अभिव्यक्ति की है। लक्ष्मण ने शिवजी के धनुष को धनुही कह कर परशुराम के अहं को चुनौती दी थी। उन्होंने व्यंग्य भरी वाणी में कहा था-
(i) बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।
(ii) इहां कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मारि जाहीं।।
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।
लक्ष्मण ने व्यंग्य करते हुए परशुराम से कहा था कि उन्हें जो चाहे कह देना चाहिए। क्रोध रोक कर असहय दुःख नहीं सहना चाहिए। परशुराम तो मानो काल को हाँक लगा कर बार-बार बुलाते थे। भला इस संसार में कौन ऐसा था जा उनके शील को नहीं जानता था। वे तो संसार में प्रसिद थे। वे अपने माता-पिता के ऋण से मुक्ता हो चुके थे तो उन्हें अपने गुरु के ऋण से भी मुक्त हो जाना चाहिए था।
सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा।
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।
वास्तव मे लक्ष्मण ने परशुराम के स्वभाव और उनके कथन के ढंग पर व्यंग्य कर अनूठे सौंदर्य की प्रस्तुति की ।
“सामाजिक जीवन में क्रोध की ज़रूरत बराबर पड़ती है। यदि क्रोध न हो तो मनुष्य दूसरे के द्वारा पहुँचाए जाने बाले बहुत से कष्टों की चिर-निवृत्ति का उपाय ही न कर सके।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का यह कथन इस बात की पुष्टि करता है कि क्रोध हमेशा नकारात्मक भाव लिए नहीं होता बल्कि कभी-कभी सकारात्मक भी होता है। इसके पक्ष या विपक्ष में अपना मत प्रकट कीजिए।
पक्ष में-
वास्तव में ही क्रोध की हमारे सामाजिक जीवन में अत्यधिक जरूरत पड़ती है। यदि मनुष्य क्रोध को पूरी तरह से त्याग दे तो दूसरों के द्वारा दिए जाने वाले कष्टों को वह अपने मन से कभी दूर ही न कर पाए और सदा के लिए घुट- घुट कर कष्ट उठाता रहे। सामाजिक जीवन सुखों-दुःखों से मिल कर बनता है। हमें प्राय: दुःख अपनों से ही नहीं बल्कि बाहर वालों से मिलते हैं। उस पीड़ा को तभी दूर किया जा सकता है जब हम अपने मन में छिपे भावों को क्रोध प्रकट कर के निकाल पाते हैं। जो व्यक्ति कभी क्रोध नहीं करता और जीवन में सदा सकारात्मकता हटना चाहता है लोग उसे कमजोर और कायर मानने लगते हैं। छोटे कच्चे भी क्रोध को रोकर या दुःख प्रकट कर व्यक्त करते हैं। बिना दुःख के क्रोध उत्पन्न ही नहीं होता। क्रोध में सदा बदले की भावना छिपी हुई नहीं होती बल्कि इसमें स्वरक्षा की भावना भी मिली होती है। यदि हमारा पड़ोसी रोज हमें दो-चार टेढ़ी बातें कह जाए तो उस दुःख से बचने के लिए आवश्यक है कि क्रोध करके उसे बतला दिया जाए कि उसका स्थान कौन-सा है और कहाँ है। क्रोध दूसरों में भय को उत्पन्न करता है। जिस पर क्रोध प्रकट किया जाता है यदि वह डर जाता है तो नम्र हो कर पश्चात्ताप करने लगता है तभी क्षमा का अवसर सामने आता है। क्रोध शांति भंग करता है और तत्काल दूसरे में भी क्रोध को उत्पन्न करता है।
विपक्ष में-
क्रोध एक मनोविकार है जो प्राय: दुःख के कारण उत्पनने होता है। प्राय: लोग अपनों पर अधिक क्रोध करते हैं। एक शिशु अपनी माता की आकृति से परिचित हो जाने के बाद जान जाता है कि उसे दूध उसी से प्राप्त होता है तो भूखा होने पर वह उसे देखते ही रोने लगता है और अपने कुछ क्रोध का आभास दे देता है। क्रोध चिड़चिड़ाहट को उत्पन्न करता है। प्राय: क्रोध करने वाला उस तरफ देखता है जिधर वह क्रोध करता है। क्रोध तो क्रोध को उत्पन्न करता है। यदि वह अपनी ओर देखे तो उसे क्रोध शायद आए ही नहीं। क्रोध न करने वाला व्यक्ति अपनी बुद्धि या विवेक पर नियंत्रण रखता है जिस कारण वह अनेक अनर्थों से बच जाता है। महात्मा बुद्ध, गुरु नानक देव, महात्मा गांधी आदि जैसे महापुरुषों ने अपने क्रोध पर विजय पा कर संसार भर में अपना नाम बना लिया था। क्रोध से बच कर हम अपना आत्मिक बल बढ़ा सकते हैं और आंतरिक शक्तियों को अनुकूल कार्यो की ओर लगा सकते हैं। बाल्मीकि ने क्रोध पर विजय प्राप्त कर आदि कवि होने का यश प्राप्त कर लिया था। क्रोध पर नियंत्रण पाकर वैर से बचा जा सकता है। अत: जहाँ तक संभव हो सके मनुष्य को क्रोध से बच कर जीवन-चलाने का व्यवहार करना चाहिए।
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घने जंगल में एक खरगोश उछलता-कूदता तेज चाल से भागा जा रहा था। वह बड़ा प्रसन्न था और मन ही मन सोच रहा था कि उस से तेज तो कोई भी नहीं भाग सकता था। सोचते-सोचते और भागते-भागते उसका ध्यान अपने आस-पास नहीं था। बिना ध्यान भागते हुए वह धीरे-धीरे चलते एक कछुए से टकरा गया। उस के पाँव पर हल्की-सी चोट लगी और वह रुक गया। वह कछुए से बोला-अरे, तुझे चलना तो आता नहीं पर फिर भी मेरे रास्ते में रुकावट बनता है।
कछुआ बोला- भगवान् ने चलने की जितनी क्षमता मुझे दी है, मेरे लिए वही काफी है। मेरा इतनी गति से ही काम चल जाता है।
खरगोश ने व्यंग्य से कहा-नहीं, नहीं। तू तो बहुत तेज भागता है। तू तो मुझे भी दौड़ में हरा सकता है-दौड़ लगाएगा मेरे साथ? कछुए ने कहा-नहीं भाई। मैं तुम्हारे सामने क्या हूँ? तुमसे दौड़ कैसे लगा सकता हूँ?
खरगोश ने उसे उकसाते हुए कहा-अरे, हिम्मत तो कर। एक ही रास्ते पर हम दोनों जा रहे हैं। चल देखते हैं कि बड़े पीपल के पास तालाब तक पहले कौन पहुँचता है। यदि तू जीत गया तो मैं तुम्हें ‘सुस्त’ कभी नहीं कहूँगा। कछुए ने धीमे स्वर में कहा-अच्छा, चल तू। मैं कोशिश करता हूँ। यह सुनते ही खरगोश तेजी से तालाब की दिशा में भागा। बिना पीछे देखे वह लगातार भागता ही गया फिर उसने पीछे मुड़ कर देखा। कछुए का कोई अता-पता नहीं था। खरगोश एक छायादार पेड़ के नीचे बैठ गया। उसने सोचा कि कछुआ तो शाम होने तक उस तक नहीं पहुँच पाएगा। यदि वह इस छाया में कुछ देर सुस्ता ले तो फिर और तेज भाग सकेगा। बैठे-बैठे उसे नींद आ गई। जब उसकी आँख खुली तो हल्का-हल्का अँधेरा होने वाला था। वह तेज गीत से तालाब की ओर भागा। पर जब तालाब के किनारे पहुँचा तो कछुआ वहाँ पहले से ही पहुँच कर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। उसे देख कछुआ धीरे से मुस्कराया।
खरगोश खिसिया कर बोला- अरे, तू पहुँच गया। मेरी जरा आँख लग गई थी।
कछुआ बोला-कोई बात नहीं। ऐसा हो जाता है पर याद रखना कि तुम्हें दूसरों की क्षमताओं को कम नहीं समझना चाहिए। ईश्वर ने सबको अलग-अलग गुण दिए हैं।
पहली घटना- मैं पिछले वर्ष से अपने स्कूल की हॉकी टीम में खेल रहा था। परसों जब शाम को मैं अभ्यास के लिए खेल के मैदान में पहुँचा तो खेल-कूद के इंचार्ज श्री गुप्ता के निकट एक अनजान लड़का हाँकी लिए हुए खड़ा था। मुझे देखते ही श्री गुप्ता ने कहा कि तुम्हारी जगह टीम में आज से यह लड़का खेलेगा। यह मेरा भतीजा है और इस स्कूल में इसने आज ही दाखिला लिया है। मैंने उनसे कहा कि पिछले वर्ष से मैं इस टीम का नियमित सदस्य हूँ और मेरा खेल भी अच्छा था। उन्होंने मुझे गुस्से से देखा और फिर कह दिया कि निर्णय का अधिकार उनका था कि कौन खेलेगा और कौन जाएगा। मैं चुपके से वहाँ से चला आया। मैं स्कूल के प्राचार्य के घर गया और उनसे बात की। उन्होंने मुझे समझाया और कहा कि वे स्कूल में श्री गुप्ता से बात कर मुझे बताएंगे। मैं नहीं जानता कि प्राचार्य महोदय की गुप्ता सर से क्या बात हुई पर सातवें पीरियड में स्कूल का चपड़ासी एक नोटिस लाया कि शाम को मुझे खेलने के लिए पहले की तरह ही पहुँचना था।
दूसरी घटना- मेरे घर के बाहर कुछ कच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। मैं उन्हें खेलता हुआ देख रहा था। जैसे ही एक लड़के ने बॉल को हिट किया वह उछल कर खिड़की के शीशे से टकराई और शीशा टूट गया। बच्चों ने शीशा टूटता देखा और वहाँ से भागे। एक छोटा लड़का वहाँ खड़ा था। वह खेल नहीं रहा था, बस खेल देख रहा था। मेरा बड़ा भाई साइकिल पर कहीं बाहर से आ रहा था। उसने लड़कों को भागते और खिड़की के टूटे शीशे को देखा। उसने झपट कर उस छोटे लड़के को पकड़ लिया। इससे पहले कि वह उस पर हाथ उठा पाता, मैंने उसे ऐसा करने से रोका क्योंकि शीशा तोड़ने में लड़के का कोई हाथ नहीं था।
प्रसंग- प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-दो) में संकलित ‘राम-परशुराम-लक्ष्मण संवाद’ से लिया गया है जिसे मूल रूप से गोस्वामी तुलसीदास के द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के बालकांड से ग्रहण किया गया है। गुरु विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण राजा जनक की सभा में सीता स्वयंवर के अवसर पर गए थे। राम ने वहां शिवजी के धनुष को तोड़ दिया था। परशुराम ने क्रोध में भर कर इसका विरोध किया था। तब राम ने उन्हें शांत करने का प्रयत्न किया था।
व्याख्या- श्री राम ने परशुराम को संबोधित करते हुए कहा कि ‘हे नाथ! भगवान् शिव के धनुष को तोड़ने वाला आप का कोई एक दास ही होगा? क्या आज्ञा है, आप मुझ से क्यों नहीं कहते?’ यह सुनकर क्रोधी मुनि गुस्से में भर कर बोले-सेवक वह होता है जो सेवा का काम करे। शत्रु का काम कर के तो लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम! सुनो, जिस ने भगवान् शिव के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है। वह इस समाज को छोड़ कर अलग हो जाए, नहीं तो इस सभा में उपस्थित राजा मारे जाएंगे। मुनि के वचन सुन कर लक्ष्मण जी मुस्कराए और परशुराम का अपमान करते हुए बोले-हे स्वामी! अपने बचपन में हम ने बहुत-सी धनुहियां तोड़ डाली थीं। किंतु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। आपको इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुन कर भृगु वंश की ध्वजा के रूप में परशुराम जी गुस्से में भरकर कहने लगे कि- अरे राजपुत्र! यमराज के वश में होने से तुझे बोलने में भी कुछ होश नहीं है। सारे संसार में प्रसिद्ध भगवान् शिव का धनुष क्या धनुही के समान है? अर्थात् तुम्हारे द्वारा शिव जी के धनुष को धनुही कहना तुम्हारा दुस्साहस है।
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अनुप्रास-
• संभूधनु भंजनिहारा
• आयेसु काह कहिअ किन
• अरिकरनी कीर करिअ
• सहसबाहु सम सो, सकल संसार
• बिलगाउ बिहाइ
प्रसंग- प्रस्तुत पद गोस्वामी तुलसीदास के द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामर्चारेतमानस’ के बाल कांड से लिया गया हैं। ‘सीता स्वयंवर’ के समय श्री राम ने शिव का धनुष तोड़ दिया था जिस कारण परशुराम क्रोध में भर गए थे। लक्ष्मण के द्वारा व्यंग्य करने पर परशुराम का गुस्सा भड़क गया था पर उनके गुस्से का लक्ष्मण पर कोई प्रभाव पड़ता दिखाई नहीं दे रहा था।
व्याख्या- लक्ष्मण ने हँस कर कहा कि हे देव! सुनिए। हमारे लिए तो सभी धनुष एक-से ही हैं। पुराने धनुष को तोड़ने में क्या लाभ और क्या हानि! श्री रामचंद्र जी ने तो इसे नया समझ कर धोखे से ही देखा था। फिर यह तो छूते ही टूट गया। इस में रघुकुल के स्वामी श्री राम का कोई दोष नहीं है। हे मुनि! आप बिना किसी कारण के ही क्रोध क्यों करते हैं? परशुराम ने अपने फरसे की ओर देखकर कहा-अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना? मैं तुम्हें बालक समझ कर नहीं मार रहा हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही समझता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यंत क्रोधी हूँ। मैं क्षत्रिय कुल का शत्रु तो विश्व भर में प्रसिद्ध हूँ। अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और कई बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काट देने वाले मेरे इस फरसे को देख! अरे राजा के बालक, तू अपने माता-पिता को चिंता के वश में न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है। यह गर्भ के बच्चों का भी नाश करने वाला है। अर्थात् यह छोटे-बड़े किसी की भी परवाह नहीं करता।
लक्ष्मण सभी धनुषों को एक-सा ही मानते थे। उनकी दृष्टि में उन में कोई अंतर नहीं था।
अनुप्रास-
• हसि, हमरे, नहि तोही, जानहि मोही . जून धनु, मुनि बिनु
• काज करिअ कत
• सठ सुनेहि सुभाउ
• बालकु बोलि बधौं, बाल ब्रह्मचारी, बिस्वबिदित, बिपुल बार।
• जड़ जानहि
• भुजबल भूमि भूप
अतिशयोक्ति-
• छुअत टूट।
प्रसंग- प्रस्तुत पद तुलसीदास जी के द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरित मानस’ के बाल कांड से लिया गया है। सीता स्वयंवर के समय श्री राम ने शिवजी के धनुष को तोड़ दिया था जिस कारण परशुराम ने बहुत गुस्सा किया था। लक्ष्मण ने उन पर व्यंग्य किया था जिससे परशुराम का गुस्सा भड़क उठा था।
व्याख्या- लक्ष्मण ने हँस कर कोमल वाणी में कहा- अहो, मुनीश्वर तो अपने आप को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। ये मुझे देख कर बार-बार अपनी कुल्हाड़ी दिखाते हैं। ये तो फूंक से पहाड़ उड़ा देना चाहते हैं। यहाँ कोई काशीफल या कुम्हड़े का बहुत छोटा-सा फल नहीं है जो आप की अँगूठे के साथ वाली उंगली को देखते ही मर जाती है। मैंने तो जो कुछ कहा है वह आप के कुल्हाड़े और धनुष-बाण को देखकर ही अभिमान सहित कहा है। भृगु वंशी समझकर और आप का यज्ञोपवीत देख कर आप जो कुछ कहते हैं, उसे मैं अपना गुस्सा रोक कर सह लेता हूँ। देवता, ब्राहमण, भगवान् के भक्त और गौ-इन पर हमारे कुल में अपनी वीरता का प्रदर्शन नहीं किया जाता है क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और इन से हार जाने पर अपकीर्ति होती है। इसलिए यदि आप मारें तो भी आप के पैर ही पड़ना चाहिए। आप का एक-एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है। धनुष-बाण और कुल्हाड़ा तो आप व्यर्थ ही धारण करते हैं। आप के इस धनुष-बाण और कुल्हाड़े को देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो तो हे धीर महामुनि! आप क्षमा कीजिए। यह सुन कर भृगु वंशमणि परशुराम क्रोध के साथ गंभीर वाणी में बोले।
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अनुप्रास-
• मुनीसु महाभट मानी।
• कछु कहा; कछु कहहु, कोटि कुलिस।
• सुर, महिसुर; सुनि सरोष।
• धरहु धनु।
• गिरा गंभीर।
पुनरुक्ति प्रकाश-
• ‘पुनि-पुनि’।
उपमा-
• कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा।
प्रसंग- प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित पद्य खंड से लिया गया है जिसे मूल रूप से तुलसीदास जी द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के बालकांड से लिया गया है। सीता स्वयंवर के समय राम ने शिवजी के धनुष को तोड़ दिया था जिस कारण परशुराम क्रोध से भर गए थे। लक्ष्मण ने उन पर व्यंग्य किया था जिस कारण उन का क्रोध और अधिक बढ़ गया था।
व्याख्या- परशुराम ने राम और लक्ष्मण के गुरु विश्वामित्र को संबोधित करते हुए कहा हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुद्धि पूर्ण और कुटिल है। काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंश रूपी-चंद्रमा का कलंक है। यह तो बिल्कुल उद्दंड, मूर्ख और निडर है। यह तो अभी क्षण भर बाद मौत के देवता काल का ग्रास बन जाएगा। मैं पुकार कर कहे देता हूँ कि इस के मर जाने के बाद फिर मुझे दोष नहीं देना। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो तो इसे हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतला कर ऐसा करने से रोक दो। लक्ष्मण ने तब कहा-हे मुनि! आप का सुयश आपके रहते और कौन वर्णन कर सकता है? आप ने पहले ही अनेक बार अपने मुँह से अपनी करनी-का कई तरह से वर्णन किया है। यदि इतने पर भी आप को संतोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए। क्रोध रोक कर असहय दुःख मत सहो। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यवान् और क्षोभ रहित हैं। गाली देते हुए आप शोभा नहीं देते। शूरवीर तो युद्ध मै अपनी शूरवीरता का कार्य करते हैं। वे बातें कह के अपनी वीरता को नहीं प्रकट करते। शत्रु को युद्ध में पा कर कायर ही अपने प्रताप की डींगें हांका करते हैं।
अनुप्रास:
• पुकारि खोरि, बहु करनी,
दुसह दु:ख, कुटिल, कालबस, कछु कहहू।
करनी करहि कहि, कायर कथहिं, कालकवल,
मानवीकरण-काल कवल होइहि छन माहीं
रूपक- भानु बस राकेस कलंकू।
प्रसंग- प्रस्तुत पद गोस्वामी तुलसीदास के द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरित मानस’ के बालकांड से लिया गया है। सीता स्वयंवर के अवसर पर परशुराम और लक्ष्मण के बीच शिव धनुष के भंग होने के कारण कुछ विवाद हुआ था।
व्याख्या- लक्ष्मण कहते हैं कि हे परशुराम जी! आप तो मानो काल को हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिए बुलाते हैं। लक्ष्मण के कठोर वचन सुनते ही परशुराम ने अपने फरसे को सुधार कर हाथ में ले लिया और फिर बोला- अब लोग मुझे दोष न दें। यह कडुवा बोलने वाला बालक मारे जाने के ही योग्य है। इसे बालक समझकर मैंने बहुत देर तक बचाया लेकिन अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है। तब गुरु विश्वामित्र ने कहा-अपराध क्षमा कीजिए। बालकों के दोष और गुण को साधु लोग नहीं गिनते। परशुराम बोले-मेरा तीखी धार का फरसा, मैं दयारहित और क्रोधी हूँ। मेरे सामने यह गुरु द्रोही और अपराधी उत्तर दे रहा है। इतने पर ही मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ। है विश्वामित्र जी! मैं इसे केवल आप के शील और प्रेम के कारण मारे बिना छोड़ रहा हूँ। नहीं तो इसे इस कठोर फरसे से काटकर थोड़े से परिश्रम से गुरु से ऋण मुक्त हो जाता। विश्वामित्र जी ने मन ही मन हँसकर कहा-मुनि को हरा-ही-हरा सूझ रहा है अर्थात् अन्य सभी जगह पर विजयी होने के कारण ये राम और लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं। पर यह तो लोहे से बनी हुई खाँड (खाँडा-खड्ग) है; गन्ने की खाँड नहीं है, जो मुँह में डालते ही गल जाती है। मुनि अब भी बेसमझ बने हुए हैं और इनके प्रभाव को समझ नहीं पा रहे हैं।
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उत्प्रेक्षा- तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा।
पुनरुक्तिप्रकाश- बार-बार।
रूपकातिशयोक्ति- अयमय खाँड़ न ऊखमय।
अनुप्रास- • ‘कौसिक कहा’, ‘अकरुन कोही’, ‘केवल कौसिक’, ‘काटि कुठार कठोरे’
• ‘गुन गनाहिं
• ‘हृदय हसि मुनिहि हरियरे’
• ‘परसु सुधारि धरेउ कर घोरा’
• ‘देइ दोसू’
• ‘कटुबादी बालकु बधजोगू, ‘बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा’
प्रसंग- प्रस्तुत पद गोस्वामी तुलसीदास के द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के ‘बाल कांड’ से लिया गया है। लक्ष्मण और परशुराम में सीता स्वयंवर के समय शिवजी के धनुष टूट जाने पर विवाद हुआ था जिसे राम ने अधिक बढ़ने से पहले ही रोक दिया था।
व्याख्या- लक्ष्मण ने कहा-हे मुनि! आपके शील को कौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता- पिता से तो भली-भांति ऋणमुक्त हो ही चुके हैं। अब गुरु का ऋण आप पर रह गया है जिसका आपके मन पर बड़ा बोझ है; आपको उसकी चिंता सता रही है। वह ऋण मानो हमारे ही माथे निकाला था। बहुत दिन बीत गए। इसमें ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब-किताब करने वाले को बुला लाइए, तो मैं तुरंत थैली खोलकर उधार चुका दूँ। लक्ष्मण के कड़वे वचन सुनकर परशुराम ने अपना फरसा संभाला। सारी सभा हाय! हाय! करके पुकार उठी। लक्ष्मण ने कहा-हे भृगु श्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शत्रु! मैं आपको ब्राहमण समझकर अब तक बचा रहा हूँ। लगता है कि आपको कभी रणधीर बलवान् वीर नहीं मिले। हे ब्राह्मण, देवता आप घर ही में बड़े हैं। यह सुनते ही सभी लोग पुकार उठे कि ‘यह अनुचित है, अनुचित है, तब रघुकुल पति श्री राम ने संकेत से लक्ष्मण को रोक दिया। लक्ष्मण के उत्तर जो आहुति के समान थे, परशुराम के क्रोध रूपी आग को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य श्री राम ने जल के समान शीतल वचन कहे।
प्रसंग- प्रस्तुत पद गोस्वामी तुलसीदास के द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के ‘बाल कांड’ से लिया गया है। लक्ष्मण और परशुराम में सीता स्वयंवर के समय शिवजी के धनुष टूट जाने पर विवाद हुआ था जिसे राम ने अधिक बढ़ने से पहले ही रोक दिया था।
व्याख्या- लक्ष्मण ने कहा-हे मुनि! आपके शील को कौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता से तो भली-भांति ऋणमुक्त हो ही चुके हैं। अब गुरु का ऋण आप पर रह गया है जिसका आपके मन पर बड़ा बोझ है; आपको उसकी चिंता सता रही है। वह ऋण मानो हमारे ही माथे निकाला था। बहुत दिन बीत गए। इसमें ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब-किताब करने वाले को बुला लाइए, तो मैं तुरंत थैली खोलकर उधार चुका दूँ। लक्ष्मण के कड़वे वचन सुनकर परशुराम ने अपना फरसा संभाला। सारी सभा हाय! हाय! करके पुकार उठी। लक्ष्मण ने कहा-हे भृगु श्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शत्रु! मैं आपको ब्राहमण समझकर अब तक बचा रहा हूँ। लगता है कि आपको कभी रणधीर बलवान वीर नहीं मिले। हे ब्राह्मण, देवता आप घर ही में बड़े हैं। यह सुनते ही सभी लोग पुकार उठे कि ‘यह अनुचित है, अनुचित है, तब रघुकुल पति श्री राम ने संकेत से लक्ष्मण को रोक दिया। लक्ष्मण के उत्तर जो आहुति के समान थे, परशुराम के क्रोध रूपी आग को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य श्री राम ने जल के समान शीतल वचन कहे।
वीप्सा-
• हाय-हाय।
वक्रोक्ति-
• कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा।।
• माता पितहि उरिन भये नीकें.............. थैली खोली।
उपमा-
• लखन उतर आहुति सरिस
• जल-सम बचन।
• भृगुबरकोपु कृसानु।
अनुप्रास-
• ‘ब्याज बड़ बाड़ा’, ‘बिप्र बिचारि बची’
• ‘सब सभा’
• ‘थैली खोली’
• ‘कुठार सुधारा’
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