Sponsor Area
(i) भारत में 'सामाजिक बल' के रूप में उपभोक्ता आंदोलन का जन्म, अनैतिक और अनुचित व्यवसाय कार्यों से उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता के साथ हुआ।
(ii) अत्यधिक खाद्य कमी, जमाखोरी, कालाबाजारी, खाद्य पदार्थों एवं खाद्य तेल में मिलावट की वजह से 1960 के दशक में व्यवस्थित रूप में उपभोक्ता आंदोलन का उदय हुआ।
(iii) 1970 के दशक तक उपभोक्ता संस्थाएँ वृहत् स्तर पर उपभोक्ता अधिकार से सम्बंधित आलेखों के लेखन और प्रदर्शनी का आयोजन का कार्य करने लगीं थीं। उन्होंने सड़क यात्री परिवहन में अत्यधिक भीड़-भाड़ और राशन दुकानों में होने वाले अनुचित कार्यों पर नज़र रखने के लिए उपभोक्ता दाल बनाया। हाल में, भारत में उपभोक्ता दलों की संख्या में भारी वृद्धि हुई हैं।
(iv) इन सभी प्रयासों के परिणामस्वरूप, यह आंदोलन वृहत् स्तर पर उपभोक्ताओं के हितों के खिलाफ और अनुचित व्यवसाय शैली को सुधारने के लिए व्यावसायिक कंपनियों और सरकार दोनों पर दवाब डालने में सफल हुआ।
(v) 1986 में भारत सरकार द्वारा एक बड़ा कदम उठाया गया। यह उपभोक्ता सुरक्षा अधिनियम, 1986 कानून का बनना था, जो कोपरा ने नाम से प्रसिद्ध है।
उपभोक्ता जागरूकता की आवश्यकता इसलिए महसूस की गई क्योंकि अपने स्वार्थ के चलते निर्माता और व्यापारी किसी भी हद तक जा सकते थे। वस्तुओं की कृत्रिम मांग बनाने के लिए वे आवश्यक वस्तुओं को अपने पास भण्डारित करके रख सकते थे।
(i) एक कंपनी ने यह दावा करते हुए कि माता के दूध से हमारा उत्पाद बेहतर है, सर्वाधिक वैज्ञानिक उत्पाद के रूप में शिशुओं के लिए दूध का पाउडर पुरे विश्व में कोई वर्षों तक बेचा। कई वर्षों के लगातार संघर्ष के बाद कंपनी को यह स्वीकार करना पड़ा कि वह झूठे दावे करती आ रही थी।
(ii) इसी तरह, सिगरेट उत्पादक कंपनियों से यह बात मनवाने के लिए कि उनका उत्पाद कैंसर का कारण हो सकता है, न्यायालय में लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी।
उपभोक्ताओं के शोषण का कारण बनने वाले कारकों का उल्लेख नीचे दिया गया है:
(i) कुटिलता और भ्रष्टाचार: शुल्क, जमाखोरी, मिलावट, काला बाज़ारी , कम वजन आदि।
(ii) लापरवाही और झूठी सूचना: अस्पतालों में चिकित्सकों / सर्जनों और अन्य स्टाफ सदस्यों की लापरवाही, स्कूल में प्रिंसिपल / शिक्षकों की लापरवाही और सभी सरकारी कार्यालयों में सरकारी अधिकारी की लापरवाही से उपभोक्ताओं का शोषण होता है।
(iii) उपभोक्ताओं को माल या उत्पादों के बारे में सीमित और गलत जानकारी दी जाती है। जिससे उपभोक्ता गलत विकल्प का चुनाव करते हैं परिणामस्वरूप उनका शोषण होता है।
(iv) कम साक्षरता: उपभोक्ता शोषण की ओर जाता है क्योंकि उन्हें उत्पादों के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती है।
(v) यदि उत्पाद के एक या कुछ उत्पादक हैं, तो कीमतों में आपूर्ति और आपूर्ति में हेरफेर की संभावना है।
(i) बाज़ार में उपभोक्ता को शौषण से बचाने के लिए कोई कानूनी व्यवस्था उपलब्ध नहीं थी। लम्बे समय तक, जब एक उपभोक्ता एक विशेष ब्रांड उत्पाद या दुकान से संतुष्ट नहीं होता था तो सामान्यतः वह उस ब्रांड उत्पाद को खरीदना बंद कर देता था या उस दुकान से खरीददारी करना बंद कर देता था ।
(ii) यह मान लिया जाता था कि यह उपभोक्ता की जिम्मेदारी है कि एक वस्तु या सेवा को खरीदते वक्त वह सावधानी बरते। भारत में 'सामाजिक बल' के रूप में उपभोक्ता आंदोलन का जन्म, अनैतिक और अनुचित व्यवसाय कार्यों से उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता के साथ हुआ।
(iii) अत्यधिक खाद्य कमी, जमाखोरी, कालाबाजारी, खाद्य पदार्थों एवं खाद्य तेल में मिलावट की वजह से 1960 के दशक में व्यवस्थित रूप में उपभोक्ता आंदोलन का उदय हुआ।
(iv) 1970 के दशक तक उपभोक्ता संस्थाएँ वृहत् स्तर पर उपभोक्ता अधिकार से सम्बंधित आलेखों के लेखन और प्रदर्शनी का आयोजन का कार्य करने लगीं थीं। उन्होंने सड़क यात्री परिवहन में अत्यधिक भीड़-भाड़ और राशन दुकानों में होने वाले अनुचित कार्यों पर नज़र रखने के लिए उपभोक्ता दाल बनाया। हाल में, भारत में उपभोक्ता दलों की संख्या में भारी वृद्धि हुई हैं।
(v) इन सभी प्रयासों के परिणामस्वरूप, यह आंदोलन वृहत् स्तर पर उपभोक्ताओं के हितों के खिलाफ और अनुचित व्यवसाय शैली को सुधारने के लिए व्यावसायिक कंपनियों और सरकार दोनों पर दवाब डालने में सफल हुआ। 1986 में भारत सरकार द्वारा एक बड़ा कदम उठाया गया। यह उपभोक्ता सुरक्षा अधिनियम, 1986 कानून का बनना था, जो कोपरा ने नाम से प्रसिद्ध है।
अपने अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए उपभोक्ता को निम्नलिखित कर्तव्यों का पालन कारण चाहिए।(i) खरीदी जाने वाली वस्तुओं की गुणवत्ता देखनी चाहिए।
(ii) गारंटी और खरीददारी के बाद सेवा संबंधी रसीद और नकद भुगतान रसीद अवश्य लेनी चाहिए।(iii) वस्तुओं पर गुणवत्ता के प्रतीक निशानों जैसे आई. एस. आई. एग्मार्क, हॉलमार्क आदि देखने चाहिए।
(iv) बेईमान, धोकेबाज़, उत्पादकों, व्यापारियों, दुकानदारों तस्करों, जमाखोरों, अधिक कीमत लेने वालों की शिकयात पुलिस और उपभोक्ता न्यायालय में अवश्य करनी चाहिए।
(v) उपभोक्ता संगठन का सदस्य बनना चाहिए। सरकार द्वारा गठित कमेटियों में अपने प्रतिनिधि भेजने की कोशिश करनी चाहिए।
यदि मैं शहद की बोतल और बिस्कुट का पैकेट खरीदूँगा तो खरीदते समय निम्न बातों और शब्द चिह्रों को अवश्य देखूँगा-
(i) पैकेट पर और बोतल पर आई. एस. आई या एगमार्क को देखकर पूरी तरह पहचानूँगा।
(ii) शहद को बोतल और बिस्कुट की पैकिंग और बोतल की सील अवश्य देखूँगा।
क्योंकि जब उपभोक्ता कोई वस्तु या सेवाएँ खरीदता है, तो ये शब्दचिह्र (लोगो) और प्रमाणक चिह्र उन्हें अच्छी गुणवत्ता सुनिश्चित कराने में मदद करते हैं। ऐसे संगठन जो की अनुवीक्षण तथा प्रमाणपत्रों को जारी करते हैं, उत्पादकों को उनके द्वारा श्रेष्ठ गुणवत्ता पालन करने की स्थिति में शब्दचिह्र (लोगो को) प्रयोग करने की अनुमति देते हैं।
भारत में उपभोक्ताओं को सशक्त बनाने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कानूनी उपाय नीचे दिए गए हैं:
(i) 1986 में भारत सरकार द्वारा एक बड़ा कदम उठाया गया। यह उपभोक्ता सुरक्षा अधिनियम, 1986 कानून का बनना था, जो कोपरा के नाम से प्रसिद्ध है।
(ii) कोपरा के अंतर्गत उपभोक्ता विवादों के निपटारे के लिए जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तरों पर एक त्रिस्तरीय न्यायिक तंत्र स्थापित किया गया है।
(iii) जिला स्तर का न्यायालय 20 लाख तक के दावों से सम्बंधित मुकदमों पर विचार करता है, राज्य स्तरीय अदालतें 20 लाख से एक करोड़ तक और राष्ट्रीय स्तर की अदालतें 1 करोड़ से ऊपर की दावेदारी से सम्बंधित मुकदमों को देखती हैं।
(iv) यदि कोई मुकदमा जिला स्तर के न्यायालय में खारिज कर दिया जाता है, तो उपभोक्ता राज्य स्तर के न्यायालय में और उसके बाद राष्ट्रीय स्तर के न्यायालय में भी अपील कर सकता है। इस प्रकार, अधिनियम ने उपभोक्ता के रूप में उपभोक्ता न्यायालय में प्रतिनिधित्व का अधिकार देकर हमें समर्थ बनाया है।
(v) कोपरा अधिनियम ने केंद्र और राज्य सरकारों में उपभोक्ता मामले के अलग विभागों को स्थापित करने में मुख्य भूमिका अदा की है।
(i) सुरक्षा का अधिकार: उपभोक्ताओं को अधिकार हैं कि वे उन वस्तुओं की बिक्री से अपना बचाव कर सकें जो उनके जीवन और संपत्ति के लिए खतरनाक हैं ।
(ii) सूचना का अधिकार: इसके अंतर्गत गुणवत्ता, मात्रा शुद्धता, स्तर और मूल्य आते हैं।
(iii) सुनवाई का अधिकार: उपभोक्ता के हितों से जुड़ी उपयुक्त संस्थाएँ/संगठन उपभोक्ताओं की समस्याओं पर पूरा ध्यान दें।
(iv) चुनने का अधिकार: विभिन्न वस्तुओं को देख-परख के चुनाव करने का आश्वासन। यदि माल की श्रतिपूर्ति करने वाले एक ही हों तो? इसका अर्थ हैं संतोषजनक गुणवत्ता व सही मूल्य का आश्वासन ।
(v) शिकातयें निपटाने का अधिकार: उपभोक्ताओं के शोषण व अनुचित व्यापारिक क्रियाओं के विरुद्ध निदान और शिकायतों का सही प्रकार से निपटाना ।
उपभोक्ता अपनी एकजुटता का प्रदर्शन इस प्रकार कर सकते हैं:
(i) वे सरकार द्वारा उपभोक्ता सरंक्षण एवं हिस्सेदारी सम्बन्धी कमेटियों के साथ सलंग्न हो सकते हैं तथा RTI का प्रयोग कर सकते हैं तथा सरकार/विभाग से पूरी जानकारी पा सकते हैं।
(ii) विभिन्न विभागों तथा सेवकों द्वारा गठित श्रम संघो (ट्रेड यूनियनों) तथा यूनियनों की सदस्यता ग्रहण कर सकते हैं।
(iii) उपभोक्ता संघ एवं फोरम बना सकते हैं। वे इनका उपयोग अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए कर सकते हैं।
(iv) वे कानून विशेषज्ञों, वकीलों तथा पुलिस एवं उपभोक्ता न्यायालयों का सहारा भी ले सकते हैं।
(v) वे बेईमान उत्पादकों, वितरकों, दुकानदारों, व्यापारियों, अस्पतालों, शिक्षा संस्थाओं के गलत कार्यों के विरुद्ध प्रदर्शन प्रचार, घेराव कर सकते हैं।
भारत में उपभोक्ता आंदोलन की प्रगति की समीक्षा:
(i) भारत में 'सामाजिक बल' के रूप में उपभोक्ता आंदोलन का जन्म, अनैतिक और अनुचित व्यवसाय कार्यों से उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता के साथ हुआ।
(ii) अत्यधिक खाद्य कमी, जमाखोरी, कालाबाजारी, खाद्य पदार्थों एवं खाद्य तेल में मिलावट की वजह से 1960 के दशक में व्यवस्थित रूप में उपभोक्ता आंदोलन का उदय हुआ।
(iii) 1970 के दशक तक उपभोक्ता संस्थाएँ वृहत् स्तर पर उपभोक्ता अधिकार से सम्बंधित आलेखों के लेखन और प्रदर्शनी का आयोजन का कार्य करने लगीं थीं। उन्होंने सड़क यात्री परिवहन में अत्यधिक भीड़-भाड़ और राशन दुकानों में होने वाले अनुचित कार्यों पर नज़र रखने के लिए उपभोक्ता दाल बनाया। हाल में, भारत में उपभोक्ता दलों की संख्या में भारी वृद्धि हुई हैं।
(iv) इन सभी प्रयासों के परिणामस्वरूप, यह आंदोलन वृहत् स्तर पर उपभोक्ताओं के हितों के खिलाफ और अनुचित व्यवसाय शैली को सुधारने के लिए व्यावसायिक कंपनियों और सरकार दोनों पर दवाब डालने में सफल हुआ।
(v) 1986 में भारत सरकार द्वारा एक बड़ा कदम उठाया गया। यह उपभोक्ता सुरक्षा अधिनियम, 1986 कानून का बनना था, जो कोपरा ने नाम से प्रसिद्ध है।
निम्नलिखित को सुमेलित करें
A. एक उत्पाद के घटकों का विवरण | (i) सुरक्षा का अधिकार |
B. एगमार्क | (ii) उपभोक्ता मामलों में संबंध |
C. स्कूटर में खराब इंजन के कारण हुई दुर्घटना | (iii) अनाजों और खाद्य तेल का प्रमाण |
D. जिला उपभोक्ता अदालत विकसित करने वाली एजेंसी | (iv) उपभोक्ता कल्याण संगठनों की अंतर्राष्ट्रीय संस्था |
E. उपभोक्ता इंटरनेशनल | (v) सूचना का अधिकार |
F. भारतीय मानक ब्यूरो | (vi) वस्तुओं और सेवाओं के लिये मानक |
A. एक उत्पाद के घटकों का विवरण | (i) सूचना का अधिकार |
B. एगमार्क | (ii) अनाजों और खाद्य तेल का प्रमाण |
C. स्कूटर में खराब इंजन के कारण हुई दुर्घटना | (iii) सुरक्षा का अधिकार |
D. जिला उपभोक्ता अदालत विकसित करने वाली एजेंसी | (iv) उपभोक्ता मामलों में संबंध |
E. उपभोक्ता इंटरनेशनल | (v) उपभोक्ता कल्याण संगठनों की अंतर्राष्ट्रीय संस्था |
F. भारतीय मानक ब्यूरो | (vi) वस्तुओं और सेवाओं के लिये मानक |
बाज़ार में उपभोक्ताओं की सुरक्षा के लिए नियम एवं विनियमों की आवश्यकता होती है, क्योंकि अकेला उपभोक्ता प्राय: स्वयं को कमजोर स्थिति में पाता है। खरीदी गयी वस्तु या सेवा के बारे में जब भी कोई शिकायत होती है, तो विक्रेता सारा उत्तरदायित्व क्रेता पर डालने का प्रयास करता है।
बाज़ार में शोषण कई रूपों में होता है।
उधारणार्थ:
(i) कभी-कभी व्यापारी अनुचित व्यापार करने लग जाते हैं, जैसे दुकानदार उचित वजन से काम वजन तौलते हैं या व्यापारी उन शुल्कों को जोड़ देते हैं, जिनका वर्णन पहले न किया गया हो या मिलावटी/दोषपूर्ण वस्तुएँ बेची जाती हैं।
(ii) उदाहरण के लिए, एक कंपनी ने यह दावा करते हुए की माता के दूध से हमारा उत्पाद बेहतर है, सर्वाधिक वैज्ञानिक उत्पाद के रूप में शिशुओं के लिए दूध का पाउडर पूरे विश्व में कई वर्षों तक बेचा। कई वर्षों के लगातार संघर्ष के बाद कंपनी को यह स्वीकार करना पड़ा की वह झूठे दावे करती आ रही थी।
भारत में उपभोक्ता आंदोलन के प्रारंभ होने के किन्हीं तीन कारणों का विश्लेषण कीजिए।
उपभोक्ता आंदोलन के प्रारम्भ होने के कारण -
(i) उपभोक्ताओं का असंतोष।
(ii) बाजार में उपभोक्ताओं की सुरक्षा के लिए नियम विनियम का न होना।
(iii) व्यापारियों द्वारा अनुचित व्यापार करने में लगे होना।
महात्मा गाँधी के विचारों और 'स्वराज' की अवधारणा के बारे में बागान मजदूरों की अपनी समझ थी।' कथन की पुष्टि कीजिए।
गाँधी जी के विचारों और 'स्वराज' की अवधारणा के बारे में मजदूरों की समझ -
i. बागानी मजदूरों के लिए आजादी का महत्त्व था कि वे उन चारदीवारियों से जब चाहे आ जा सकते हैं जिनमें उनको बंद करके रखा गया था।
ii. वे अपने गावों से संपर्क रख पाएंगे।
iii. बागानों में काम करने वाले मजदूरों को बिना इजाजत के बागान से बाहर जाने की छोट नहीं थी। उन्हें इजाजत कभी कभी मिलती थी।
iv. जब उन्होंने असहयोग आंदोलन के विषय में सुना तो हजारों मजदूर अपने अधिकारियों की अवहेलना करने लगे। उन्होंने बागान छोड़ दिए और अपने घरों को चल दिए।
v. उन्हें लगता था कि गाँधी राज आ रहा है। इसलिए अब तो हरेक को अपने गांव में जमीन मिल जाएगी।
Sponsor Area
Sponsor Area