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राजस्थान में कुंई किसे कहते हैं? इसकी गहराई और व्यास तथा सामान्य कुओं की गहराई और व्यास में क्या अंतर होता है?
राजस्थान में कुंई छोटे कुएँ को कहते हैं। यह कुएँ? स्त्रीलिंग रूप है। यह छोटी केवल व्यास में होती है, गहराई में यह कुएँ से कम नहीं होती। राजस्थान में अलग-अलग स्थानों में एक विशेष कारण से कुंइयों की गहराई कुछ कम-ज्यादा होती है। कुंई का मुँह छोटा रखा जाता है। यदि कुंई का व्यास बड़ा होगा तो उसमें कम मात्रा का पानी ज्यादा फैल जाता है और तब उसे ऊपर निकालना कठिन होता है।
दिनों-दिन बढ़ती पानी की समस्या से निपटने में यह पाठ आपकी कैसे मदद कर सकता है तथा देश के अन्य राज्यों में इसके लिए क्या उपाय हो रहे हैं? जानें और लिखें।
आजकल. दिनों-दिन पानी की कमी की समस्या निरंतर बढ़ती जा रही है। नदियों का जल-स्तर घटता जा रहा है। पूरे पेयजल की आपूर्ति नहीं हो पाती। इस पाठ से हमें यह मदद मिलती है कि हम जल प्राप्ति के अन्य उपायों पर विचार करें। कुओं और कुंइयों से पानी प्राप्त करना भी एक सरल उपाय है। ट्यूबवैल लगाकर भी पानी पाया जा सकता है। विभिन्न राज्यों में वर्षा के जल का संचयन किया जा रहा है। इसके लिए तालाब बनाए जा रहे हैं। घरों की छतों पर भी पानी का संग्रह किया जा रहा है। वर्षा के जल के संचयन को अभी और बढ़ावा मिलना चाहिए तभी हम जल-संकट से निपट सकेंगे।
चेजारों के साथ गाँव-समाज के व्यवहार में पहले की तुलना में आज क्या फर्क आया है? पाठ के आधार पर बताइए।
कुंई खोदने का काम करने वाले चेजारे कहलाते हैं। कुंई बन जाने पर चेजारों का भरपूर सम्मान किया जाता था। इस अवसर पर उत्सव मनाने की परंपरा गाँव-समाज में रही है। तब एक विशेष उत्सव का आयोजन होता था। चेजारों को विदाई के समय तरह-तरह की भेंटें दी जाती थीं। उनका संबंध उसी दिन समाप्त न होकर वर्ष भर चलता रहता था। उन्हें तीज-त्योहारों तथा विवाह जैसे मांगलिक अवसरों पर भी भेंट दी जाती थी। फसल आने पर खलिहान में उनके नाम से अनाज का एक अलग ढेर लगता था। अब उस स्थिति में फर्क आ गया है। अब तो सिर्फ मजदूरी देकर काम करवाने का रिवाज आ गया है। अब उन्हें काम की समाप्ति पर मजदूरी देकर विदा कर दिया जाता है।
लेखक ने ऐसा इसलिए कहा होगा कि जब कुंई गाँव-समाज की सार्वजनिक जमीन पर बनती है तब उस जगह बरसने वाला पानी ही बाद में वर्ष भर की नमी की तरह सुरक्षित रहता है और इसी नमी से साल भर कुंइयों में पानी भरता है। नमी की मात्रा तो वहाँ हो चुकी वर्षा से तय हो जाती है। अब उस क्षेत्र में बनने वाली हर कुंई का अर्थ होता है-पहले से तय नमी का बँटवारा। इसीलिए निजी होते हुए भी सार्वजनिक क्षेत्र में बनी कुंइयों पर समाज का अंकुश लगा रहता है। बहुत जरूरत पड़ने पर ही समाज नई कुंई के लिए अपनी स्वीकृति देता है।
कुंई निर्माण से संबंधित निम्न शब्दों के बारे में जानकारी प्राप्त करें-
पालरपानी, पातालपानी, रेजाणीपानी।
पालरपानी- यह पानी का एक रूप है। यह पानी सीधे बरसात से मिलता है। यह धरातल पर बहता है और इसे नदी, तालाब आदि में रोका जाता है।
पातालपानी-यह पानी का दूसरा रूप है। यह वही भूजल होता है जिसे कुओं में से निकाला जाता है।
रेजाणीपानी- धरातल से नीचे उतरा, लेकिन पाताल में न मिलने वाला पानी रेजाणीपानी कहलाता है। वर्षा-जल को मापने के लिए ‘रेजा’ शब्द का उपयोग होता है और रेजा का माप धरातल पर हुई वर्षा को नहीं, धरातल में समाई वर्षा को मापता है।
कुंई की गहराई में चल रहे काम के कारण उत्पन्न गरमी को कम करने के लिए क्या उपाय किया जाता है?
कुंई की गहराई में चल रहे मेहनती काम पर वहाँ की गरमी का असर पड़ता है। गरमी कम करने के लिए ऊपर जमीन पर खड़े लोग बीच-बीच में खी भर रेत बहुत जोर के साथ नीचे फेंकते हैं। इससे ऊपर की ताजी हवा नीचे जाती है और गहराई में जमा दमघोंटू गरम हवा ऊपर लौटती है। इतने ऊपर से फेंकी जा रही रेत के कण नीचे काम कर रहे चेलवांजी के सिर पर लग सकते हैं इसलिए वे अपने सिर पर कांसे, पीतल या अन्य किसी धातु का एक बर्तन टोप की तरह पहने रहते हैं। नीचे थोड़ी खुदाई हो जाने के बाद चेलवांजी के पंजों के आसपास मलबा जमा हो जाता है। ऊपर रस्सी से एक छोटा-सा डोल या बाल्टी उतारी जाती है। मिट्टी उसमें भर दी जाती है। पूरी सावधानी के साथ ऊपर खींचते समय भी बाल्टी में से कुछ रेत, कंकड़-पत्थर नीचे गिर सकते हैं। टोप इनसे भी चेलवांजी का सिर बचाता है।
इस पाठ में रेत के कणों के बारे में क्या बताया गया है? विस्तारपूर्वक लिखिए।
पाठ में बताया गया है कि रेत के कण बहुत ही बारीक होते हैं। वे अन्यत्र मिलने वाली मिट्टी के कणों की तरह एक दूसरे से चिपकते नहीं। जहाँ लगाव है, वहाँ अलगाव भी होता है। जिस मिट्टी के कण परस्पर चिपकते हैं, वे अपनी जगह भी छोड़ते हैं और इसलिए वहाँ कुछ स्थान खाली छूट जाता है। जैसे दोमट या काली मिट्टी के क्षेत्र में गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार आदि में वर्षा बंद होने के बाद धूप निकलने पर मिट्टी के कण चिपकने लगते हैं और धरती में, खेत और आँगन में दरारें पड़ जाती हैं। धरती की संचित नमी इन दरारों से गरमी पड़ते ही वाष्प बनकर वापस वातावरण में लौटने लगती है। पर यहाँ बिखरे रहने में ही संगठन है। मरुभूमि में रेत के कण समान रूप से बिखरे रहते हैं। यहाँ परस्पर लगाव नहीं, इसलिए अलगाव भी नहीं होता। पानी गिरने पर कण थोड़े भारी हो जाते हैं पर अपनी जगह नहीं छोड़ते। इसलिए मरुभूमि में धरती पर दरारें नहीं पड़ती। भीतर समाया वर्षा का जल भीतर ही बना रहता है। एक तरफ थोड़े नीचे चल रही पट्टी इसकी रखवाली करती है तो दूसरी तरफ ऊपर रेत के असंख्य कणों का कड़ा पहरा बैठा रहता है।
कई का मुँह छोटा रखने के कौन-कौन से कारण हैं?
कुंई का मुँह छोटा रखने के तीन बड़े कारण है।
(1) रेत में जमा नमी से पानी की बूँदें बहुत धीरे- धीरे रिसती हैं। दिन भर में एक कुंई मुश्किल से इतना ही पानी जमा कर पाती है कि उससे दो-तीन घड़े भर सकें। कुंई के तल पर पानी की मात्रा इतनी कम होती है कि यदि कुंई का व्यास बड़ा हो तो कम मात्रा का पानी ज्यादा फैल जाएगा और तब उसे ऊपर निकालना संभव नहीं होगा। छोटे व्यास की कुंई में धीरे- धीरे रिस कर आ रहा पानी दो-चार हाथ की ऊंचाई ले लेता है। कई जगहों पर कुंई से पानी निकालते समय छोटी बाल्टी के बदले छोटी चड़स का उपयोग भी इसी कारण से किया जाता है। धातु की बाल्टी पानी में आसानी से डूबती नहीं। पर मोटे कपड़े या चमड़े की चड़स के मुँह पर लोहे का वजनी कड़ा बंधा होता है। चड़स पानी से टकराता है, ऊपर का वजनी भाग नीचे के भाग पर गिरता है और इस तरह कम मात्रा के पानी में भी ठीक से डूब जाता है। भर जाने के बाद ऊपर उठते ही चड़स अपना पूरा आकार ले लेता है।
(2) कुंई के व्यास का संबंध इन क्षेत्रों में पड़ने वाली तेज गरमी से भी है। व्यास बड़ा हो तो कुंई के भीतर पानी ज्यादा फैल जाएगा। बड़ा व्यास पानी को भाप बनकर उड़ने से रोक नहीं पाएगा।
(3) कुंई को, उसके पानी को साफ रखने के लिए उसे ढँककर रखना जरूरी है। छोटे मुँह को ढँकना सरल होता है। हरेक कुंई पर लकड़ी के बने ढक्कन ढँके मिलेंगे। कहीं-कहीं खस की की की तरह घास-फूस या छोटी-छोटी टहनियों से बने ढक्कनों का भी उपयोग किया जाता है।कुंआँ कुंई से किस अर्थ में भिन्न होता है?
ई एक कुएँ से बिल्कुल अलग है। कुआँ भूजल को पाने के लिए बनता है पर कुंई भूजल से ठीक वैसे नहीं जुड़ती जैसे कुआँ जुड़ता है। कुंई वर्षा के जल को बड़े विचित्र ढंग से समेटती है-तब भी जब वर्षा ही नहीं होती! यानी कुंई में न तो सतह पर बहने वाला पानी है, न भूजल है। यह तो ‘नेति-नेति’ जैसा कुछ पेचीदा मामला है।
खड़िया पत्थर की पट्टी कहाँ चलती है?
मरुभूमि में रेत का विस्तार और गहराई अथाह है। यहाँ वर्षा अधिक मात्रा में भी हो तो उसे भूमि में समा जाने में देर नहीं लगती। पर कहीं-कहीं मरुभूमि में रेत की सतह के नीचे प्राय: दस-पंद्रह हाथ से पचास-साठ हाथ नीचे खड़िया पत्थर की एक पट्टी चलती है। यह पट्टी जहाँ भी है, काफी लंबी-चौड़ी है पर रेत के नीचे दबी रहने के कारण ऊपर से दिखती नहीं है।
खड़िया पत्थर की पट्टी क्या काम करती है?
खड़िया मिट्टी की पट्टी वर्षा के जल को गहरे खारे भूजल तक जाकर मिलने से रोकती है। ऐसी स्थिति में उस बड़े क्षेत्र में बरसा पानी भूमि की रेतीली सतह और नीचे चल रही पथरीली पट्टी के बीच अटक कर नमी की तरह फैल जाता है। तेज पड़ने वाली गरमी में इस नमी की भाप बनकर उड़ जाने की आशंका उठ सकती है। पर ऐसे क्षेत्रों में प्रकृति की एक और अनोखी उदारता काम करती है।
वर्षा की बूँदें अमृत जैसे मीठे पानी में कैसे बदल जाती हैं?
वर्षा में बरसी बूँद-बूँद रेत में समा कर नमी में बदल जाती है। अब यहाँ कुंई बन जाए तो उसका पेट, उसकी खाली जगह चारों तरफ रेत में समाई नमी को फिर से बूँदों में बदलती है। बूँद-बूँद रिसती है और कुंई में पानी जमा होने लगता है-खारे पानी के सागर में अमृत जैसा मीठा पानी हो जाता है।
रेजाणीपानी कौन सा पानी होता है? रेजा किसे मापता है?
पालरपानी और पातालपानी के बीच पानी का अन्य रूप है, रेजाणीपानी। धरातल से नीचे उतरा लेकिन पाताल में न मिल पाया पानी रेजाणी है। वर्षा की मात्रा नापने में भी इंच या सेंटीमीटर नही बल्कि ‘रेजा’ शब्द का उपयोग होता है। यह रेजा का माप धरातल पर हुई वर्षा को नहीं, धरातल में समाई वर्षा को नापता है। मरुभूमि में पानी इतना गिरे कि पाँच अंगुल भीतर समा जाए तो उस दिन की वर्षा को पाँच अंगुल रेजा कहते हैं।
पहले दिन कुंई खोदने के साथ-साथ क्या काम कर लिया जाता है?
पहले दिन कुंई खोदने के साथ-साथ खींप नाम की घास का ढेर जमा कर लिया जाता है। चेजारो खुदाई शुरू करते हैं और बाकी लोग खींप की घास से कोई तीन अंगुल मोटा रस्सा बंटने लगते हैं। पहले दिन का काम पूरा होते-होते कुंई कोई दस हाथ गहरी हो जाती है। इसके तल पर दीवार के साथ सटा कर रस्से का पहला गोला बिछाया जाता है और फिर उसके ऊपर दूसरा, तीसरा, चौथा- इस तरह ऊपर आते जाते हैं, खींप घास से बना खुरदरा मोटा रस्सा हर घेरे पर अपना वजन डालता है और बटी हुई लड़ियां एक दूसरे में फंसकर मजबूती से एक के ऊपर एक बैठती जाती हैं। रस्से का आखिरी छोर ऊपर रहता है।
कुंई बनने की सफलता पर किस प्रकार प्रसन्नता प्रकट की जाती है?
कुंई की सफलता उत्सव का अवसर बन जाती है। यों तो पहले दिन से काम करने वालों का विशेष ध्यान रखना यहाँ की परंपरा रही है, पर काम पूरा होने पर तो विशेष भोज का आयोजन होता था। चेलवांजी को विदाई के समय तरह-तरह की भेंट दी जाती थी। चेजारो के साथ गाँव का यह संबंध उसी दिन नहीं टूट जाता था। आच प्रथा से उन्हें वर्ष- भर के तीज-त्योहारों में, विवाह जैसे मंगल अवसरों पर गो, भेंट दी जाती और फसल आने पर खलियान में उनके नाम से अनाज का एक अलग ढेर भी लगता था। अब सिर्फ मजदूरी देकर भी काम करवाने का रिवाज आ गया है।
कुंई के गहरी बन जाने पर ऊपर पानी खींचने के लिए क्या उपाय किया जांता है?
कुंई गहरी बने तो पानी खींचने की सुविधा के लिए उसके ऊपर घिरनी या चकरी भी लगाई जाती है। यह गरेड़ी,चरखी या फरेड़ी भी कहलाती है। फरेड़ी लोहे की दो भुजाओं पर भी लगती है। लेकिन प्राय: यह गुलेल के आकार के एक मजबूत तने को काट कर, उसमें आर-पार छेद बनाकर लगाई जाती है। इसे ओड़ाक कहते हैं। ओड़ाक और चरखी के बिना इतनी गहरी और संकरी कुंई से पानी निकालना बहुत कठिन काम बन सकता है। ओड़ाक और चरखी चड़सी को यहाँ-वहाँ बिना टकराए सीधे ऊपर तक लाती है, पानी बीच में छलक कर गिरता नहीं। वजन खींचने में तो इससे सुविधा रहती ही है।
कुंई के लिए कितने रस्से की आवश्यकता होती है?
लगभग पाँच हाथ के व्यास की कुंई में रस्से की एक ही कुंडली का सिर्फ एक घेरा बनाने के लिए लगभग पंद्रह हाथ लंबा रस्सा चाहिए। एक हाथ की गहराई में रस्से के आठ-दस लपेटे खप जाते हैं और इतने में ही रस्से की कुल लंबाई डेढ़ सौ हाथ हो जाती है। अब यदि तीस हाथ गहरी कुंई की को थामने के लिए रस्सा बांधना पड़े तो रस्से की लंबाई चार हजार हाथ के आसपास बैठती है। नए लोगों को तो समझ में भी नहीं आता कि यहाँ कुंई खुद रही है कि रस्सा बन रहा है।
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निजी और सार्वजनिक संपत्ति का विभाजन करने वाली मोटी रेखा राजस्थान में कैसे मिट जाती है?
निजी और सार्वजनिक संपत्ति का विभाजन करने वाली मोटी रेखा कुंई के मामले में बड़े विचित्र ढंग से मिट जाती है। हरेक की अपनी-अपनी कुंई है। उसे बनाने और उससे पानी लेने का हक उसका अपना हक है। लेकिन कुई जिस क्षेत्र में बनती है, वह गाँव-समाज की सार्वजनिक जमीन है। उस जगह बरसने वाला पानी ही बाद में वर्ष-भर नमी की तरह सुरक्षित रहेगा और इसी नमी से साल- भर कुंइयों में पानी भरेगा। नमी की मात्रा तो वहाँ हो चुकी वर्षा से तय हो गई है। अब उस क्षेत्र में बनने वाली हर नई कुंई का अर्थ है, पहले से तय नमी का बंटवारा। इसलिए निजी होते हुए भी सार्वजनिक क्षेत्र में बनी कुंइयों पर ग्राम समाज का अंकुश लगा रहता है। बहुत जरूरत पड़ने पर ही समाज नई कुंई के लिए अपनी स्वीकृति देता है।
खड़िया पट्टी के अलग-अलग क्या नाम हैं?
अलग- अलग जगहों पर खड़िया पट्टी के भी अलग-अलग नाम हैं। कहीं यह चारोली है तो कहीं धाधड़ो, धड़धड़ो, कहीं पर बिट्टू रो बल्लियो के नाम से भी जानी जाती है तो कहीं इस पट्टी का नाम केवल ‘खड़ी’ भी है।
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