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कबीर के जीवन और साहित्य के विषय में आप क्या जानते हैं?
जीवन-परिचय-हिन्दी साहित्य के स्वर्णयुग भक्तिकाल में निर्गुण भक्ति की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीरदास का जन्म काशी में सन् 1398 ई में हुआ था। इनका जन्म विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ। लोक-लाज के भय से उसने इनको काशी के लहरतारा तलाब पर छोड़ दिया। नि -सन्तान जुलाहा-दम्पती नीरू और नीमा ने इनका पालन-पोषण किया। इनकी पड़ाई-लिख, में रुचि न देखकर इनके माता-पिता ने इन्हें व्यवसाय में लगा दिया। बचपन से ही कबीर जी को प्रभु- भजन, साधु-सेवा व सत्संगति से लगाव था। इन्होंने रामानन्द जी को अपना गुरु बनाया। इनके माता-पिता ने इनका विवाह ‘लोई’ नाम की एक कन्या से कर दिया। कमाल और कमाली नामक इनकी दो सन्तानें हुईं। इनके जीवन का अधिकांश समय समाज-सुधार, धर्म-सुधार, प्रभु- भक्ति और साध -सेवा में बीता। इन्होंने सन् 1518 ई. में मगहर (बिहार) में अपना नश्वर शरीर त्यागा।
रचनाएँ-कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ है। उसके तीन भाग हैं-रमैनी, सबद और साखी। कबीर विद्वान् सन्तों की संगीत में बैठकर श्रेष्ठ ज्ञानी बन गए थे। उनकी वाणी को उनके शिष्यों ने लिपिबद्ध किया।
काव्यगत विशेषताएँ-कबीर के साहित्य का विषय समाज-सुधार, धर्म-सुधार, निर्गुण- भक्ति का प्रचार और गुरु-महिमा का वर्णन
समाज सुधार-कबीर हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रवर्तक थे। उन्होंने समाज में व्याप्त जात-पति, ऊँच-नीच के भेदभाव और छुआछूत की बुराइयों का खुलकर विरोध किया। उनके भक्ति मार्ग में जात-पाँत का कोई स्थान न था। उन्होंने कहा है-
‘जात-पाँत पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि को होई।’
धर्म सुधार-कबीर किसी धर्म के विरोधी नहीं थे; परन्तु किसी भी धर्म के आडम्बरों को सहन करने को तैयार न थे। उन्होंने हिन्दू धर्म की मूर्ति पूजा, व्रत, उपवास, छापा तिलक, माला जाप व सिर मुँडवाने के आडम्बरों का कड़ा विरोध किया-
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डारि कै, मन का मनका फेर।।
मुसलमानों के रोजा, नमाज, हज-यात्रा तथा मांस भक्षण का कबीर जी ने कड़ा विरोध किया-
दिन भर रोजा रहत है, रात हनत है गाय।
यह खून वह बन्दगी, कैसे खुशी खुदाय।।
भक्ति- भावना-कबीर मूलत: निर्गुण भक्त थे। उनका ईश्वर निराकार एवं सर्वव्यापी है। उनका मत है कि जीव ब्रह्म का आ है। जीव और ब्रह्म के मिलन में माया बाधक है। गुरु का ज्ञान जीव और ब्रह्म के मिलन में सहायक है।
भाषा-शैली-निरक्षर और घुमक्कड़ प्रवृत्ति होने के कारण कबीर की भाषा यद्यपि विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं के मेल से बनी ‘खिचड़ी’ अथवा ‘सधुक्कड़ी’ भाषा कहलाई, तथापि उनकी भाषा मर्म को छूने वाली है। इसमें पूर्वी हिन्दी, पश्चिमी हिंदी, पंजाबी राजस्थानी एवं उर्दू के शब्दों का मिश्रण है।
हम तौ एक एक करि जाना।
दोइ कहै तिनहीं कीं दोजग जिन नाहिंन पहिचाना।।
एकै पवन एक ही पानीं एकै जोति समांना।
एकै खाक गढ़े सब भाई एकै कोंहरा सांना।।
जैसे बाड़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई।
सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई।।
माया देखि के जगत लुभानां काहे रे नर गरबांना।
निरभै भया कछू नहिं व्यापै कहै कबीर दिवाँनाँ।।
प्रसंग-प्रस्तुत पद ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीरदास द्वारा रचित है। कबीर की दृष्टि में ईश्वर एक है। वे आत्मा को परमात्मा का अंश मानते हैं। कबीर कण-कण में ईश्वर की सत्ता को देखते हैं।
व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हम तो एक ईश्वर में विश्वास करते हैं। आत्मा भी परमात्मा का ही अंश है। जो लोग इनको पृथक्-पृथक् बताते हैं, उनके लिए दोजख (नरक) जैसी स्थिति है। वे वास्तविकता -को नहीं पहचान पाते हैं। हवा भी एक है। पानी भी एक ही है और सभी में एक ही ज्योति (प्रकाश) समाई हुई है। इसी प्रकार ईश्वर भी है और वही सभी में समाया हुआ है। कबीर और उदाहरण देकर बताते हैं कि एक ही मिट्टी से सभी बरतन बने हैं। मिट्टी एक है, बरतनों का आकार भले ही भिन्न-भिन्न हो। इसी प्रकार हमारे आकारों में भिन्नता तो हो सकती है पर सभी के मध्य जो आत्मा है, उसी परमात्मा का अंश है। इन बरतनों को गढ़ने वाला कुम्हार भी एक ही है, उसी ने मिट्टी को सानकर ये बरतन बनाए हैं। इसी प्रकार एक ही ईश्वर ने हम सब लोगों को एक ही प्रकार के तत्वों से बनाया है। जिस प्रकार बढ़ई लकड़ी को तो काटता है, अग्नि को कोई नहीं काट पाता, इसी प्रकार शरीर तो नष्ट हो सकता है, पर इसके भीतर समाई आत्मा को कोई नहीं काट सकता। सभी लोगों के हृदयों में तू ही अर्थात् परमात्मा ही समाया हुआ है, चाहे स्वरूप कोई भी धारण किया गया हो। यह संसार माया के वशीभूत है। माया बड़ी ठगनी है। माया को देखकर संसार लुभाता रहता है। मनुष्य को माया पर घमंड नहीं करना चाहिए। जब मनुष्य निर्भय बन जाता है तब उसे कुछ भी नहीं सताता। कबीर भी निर्भय हो गया है। वह तो अब दीवाना हो गया है।
विशेष-1. आत्मा को परमात्मा का अंश बताकर अद्वैतवाद का प्रतिपादन किया गया है।
2. एक ईश्वर की मान्यता प्रतिपादित की गई है।
3. अनुप्रास अलंकार काष्ट ही काटे, सरूपै सोई, कहै कबीर
4. उदाहरण देकर बात स्पष्ट की गई है।
5. सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग है।
संतो देखत जग बौराना।
साँच कहीं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।
नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना।
आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना।।
बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़ै कितेब कुराना।
कै मुरीद तदबीर बतावैं, उनमें उहै जो ज्ञाना।।
आसन, मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना।
पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना।।
टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।
साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना।।
हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना।
आपस में दोउ लरि लरि मूए, मर्म न काहू जाना।।
घर-घर मंतर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना।
गुरु के सहित सिख सब बूड़े, अंत काल पछिताना।।
कहै कबीर सुनो हो संतो, ई सब भर्म भुलाना।
केतिक कहीं कहा नहिं मानै, सहजै सहज समाना।।
प्रसंग- स़ंत कबीरदास भक्तिकाल की निर्गुण-ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। उनके द्वारा रचित पद संतो देखत जग कैराना ‘हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह’ में सकलित है। इस पद में सत कबीर अपनी लगंत के साधुओं को इस संसार के पागलपन की बातें समझाते हुए कहते हैं:
व्याख्या-हे साधो! देखो तो सही, यह संसार कैसा पागल हो गया है। यदि यहाँ सत्य बात कहें तो सांसारिक लोग सत्य का विरोध करते हैं और मारने दौड़ते हैं, परन्तु झूठी बातों का विश्वास कर लेते हैं। इन लोगों को सत्य-असत्य का सही ज्ञान नहीं है। हिन्दू समाज के लोग राम की पूजा करते हैं और राम को अपना बताते हैं! इसी प्रकार मुसलमान लोग रहमान (अल्लाह) को अपना बताते हैं। ये हिन्दू और मुसलमान राम और रहमान की कट्टरता के समर्थक हैं और धर्म के नाम पर आपस में लड़ते रहते हैं। इन दोनों में से कोई भी ईश्वर की सत्ता के रहस्य को नहीं जानता। कबीर का कहना है कि इस संसार में मुझे अनेक लोग ऐसे मिले जो नियमों का पालन करने वाले थे और धार्मिक अनुष्ठान भी करते थे तथा प्रात: शीघ्र उठकर स्नान भी करते थे। इन लोगों का भी ज्ञान थोथा ही निकला। ये लोग आत्म तत्व को छोड्कर पत्थर से बनी मूर्तियों की पूजा करते हैं। इन लोगों को अपने ऊपर विशेष घमंड है और आसन लगाकर भी घमण्ड को नहीं त्याग पाए। इन लोगों ने तीर्थ और व्रतों का त्याग कर दिया और ये पीपल के वृक्ष और मूर्ति-पूजा के कार्यों में व्यस्त हो गए। ये हिन्दू लोग अपने गले में माला पहनते हैं तथा सिर पर टोपी धारण करते हैं। माथे पर तिलक लगाते हैं और छापे शरीर पर बनाते हैं। साखी और सबद का गायन भुला दिया है और अपनी आत्मा के रहस्य को ही नहीं जानते हैं। इन लोगों को सांसारिक माया का बहुत अभिमान है और घर-घर जाकर मंत्र-यंत्र देते फिरते हैं। इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने वाले शिष्य और उनके गुरु दोनों ही अज्ञान के सागर में डूबे हुए हैं, इन्हें अपने अंत काल में पछताना पड़ेगा इसी प्रकार इस्लाम धर्म के अनुयायी अनेक पीर, औलिया, फकीर भी आत्मतत्त्व के ज्ञान से रहित पाए गए, जो नियमपूर्वक पवित्र कुरान का पाठ करते हैं, वे भी अल्लाह को सिर झुकाते हैं तथा अपने शिष्यों को कब पर दीया जलाने की बात बतलाते हैं। वे भी खुदा के बारे में कुछ नहीं जानते। कबीर के अनुसार हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धार्मिक आडम्बरों में लिप्त हैं और ईश्वर की परम सत्ता से अपरिचित हैं।
मिथ्याभिमान के परिणामस्वरूप अब तो यह स्थिति हो गई है कि हिन्दुओं में दया और मुसलमानों में महर का भाव नहीं रह गया है। उनके स्वभाव और व्यवहार में कठोरता का भाव आ गया है। दोनों के घर विषय-वासनाओं की आग में झुलस रहे है। कोई जिबह कर और झटका मारकर अपनी वासनाओं की संतुष्टि करता है और इस प्रकार हँसते-चलते अपना जीवन व्यतीत करते हैं और अपने को सयाना अथवा चतुर कहलाने में गौरव का अनुभव करते हैं। ऐसे तथाकथित लोग हमारा उपहास करते हैं। कबीरदास जी कहते हैं कि इनमें कोई भी प्रभु के प्रेम का सच्चा दिवाना नहीं है। दूसरे शब्दों में, प्रभु के प्रति इनका प्रेम कृत्रिमता से युक्त है।
काव्य-सौष्ठव: प्रस्तुत पद में कबीर की आम बोल-चाल की सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग है। तद्भव शब्दों की बहुलता के साथ-साथ उर्दू के शब्दों का भी प्रयोग है। ‘पीपर-पाथर पूजन लागे’, ‘गुरुवा सहित शिष्य सब बूड़े’ में अनुप्रास सहज रूप से दर्शनीय है। चित्रात्मकता के साथ-साथ कबीर ने मानव धर्म का प्रतिपादन किया है। हिन्दू और मुसलमानों के धार्मिक आडम्बरों का विरोध किया गया है और बताया गया है कि आत्म-तत्त्व के ज्ञान के लिए किसी भी धार्मिक आडम्बर की आवश्यकता नहीं है।
कबीर की दृष्टि में ईश्वर एक है? इसके समर्थन में उन्होंने क्या तर्क दिए है?
कबीर की दृष्टि में ईश्वर एक है। इसके समर्थन में उन्होंने निम्नलिखित तर्क दिए हैं:
-पवन (हवा) एक है
-पानी एक है
-एक ही ज्योति सभी में समाई है।
-एक ही मिट्टी से सब बरतन (व्यक्ति) बने हैं।
-एक ही कुम्हार मिट्टी को सानता है।
मानव शरीर का निर्माण किन पाँच तत्त्वों से हुआ है?
मानव शरीर का निर्माण इन पाँच तत्वों से हुआ है-
1. वायु 2. जल 3. मिट्टी (पृथ्वी) 4. अग्नि 5. आकाश।
“जैसे बाड़ी काष्ठ ही का, अगिनि न काटे, कोई।
सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई।।”
-इसके आधार पर बताइए कि कबीर की दृष्टि में ईश्वर का क्या स्वरूप है?
इस काव्यांश के आधार पर कहा जा सकता है कि ईश्वर सर्वव्यापक है, उसे काटा या मिटाया नहीं जा सकता। ईश्वर सभी के हृदयों में आत्मा के रूप में व्याप्त है। वह व्यापक स्वरूप धारण करता है।
-ईश्वर निराकार है
-ईश्वर सर्वव्यापक है
-ईश्वर अजर-अमर है
-ईश्वर आत्मा रूप में प्राणियों में समाया है।
कबीर ने अपने को दीवाना क्यों कहा है?
कबीर ने स्वयं को दीवाना इसलिए कहा है, क्योंकि वह निर्भय है। उसे किसी का कुछ भी कहना व्यापता नहीं है। वह ईश्वर के सच्चे स्वरूप को पहचानता है। वह ईश्वर का सच्चा भक्त है, अत: दीवाना है।
कबीर ने ऐसा क्यों कहा है कि संसार बौरा गया है?
कबीर ने ऐसा इसलिए कहा है कि क्योंकि संसार के लोग सच को सहन नहीं कर पाते और न उस पर विश्वास करते हैं। उन्हें झूठ पर विश्वास हो जाता है। कबीर संसार के लोगों को ईश्वर और धर्म के बारे में सत्य बात बताता है, ये सब बातें परंपरागत ढंग से भिन्न हैं, अत: लोगों को अच्छी नहीं लगतीं। लगता है यह संसार बौरा गया है अर्थात् पागल-सा हो गया है।
कबीर ने नियम और धर्म का पालन करने वाले लोगों की किन कमियों की ओर संकेत किया है?
कबीर ने नियम और धर्म का पालन करने वाले लोगों की अनेक कमियों की ओर संकेत किया है, जैसे-
-ये लोग प्रात:काल स्नान तो करते हैं, पर ये आत्मज्ञान को छोड्कर पत्थर-पूजा करने में विश्वास करते हैं। उन्हें (हिन्दू धर्म के अनुयायी) धर्म का सच्चा ज्ञान नहीं है।
-मुसलमान भी पीर- औलिया की बातें मानते हैं, कुरान को पढ़ते हैं, पर ये भी आडंबरों में लिप्त हैं। ये लोग भी कब पर दीपक जलाने को कहते हैं।
अज्ञानी गुरूओं की शरण में जाने पर शिष्यों की क्या गति होती है?
अज्ञानी गुरुओं की शरण में जाने पर शिष्य भी डूब जाते हैं। दोनों अंधकार के गर्त में समा जाते है। इनके गुरु भी अज्ञानी हैं’ वे तो घर-घर मंत्र देते फिरते हैं और अभिमानी हैं। इन दोनों का अंत बुरा होता है।
बाह्याडंबरों की अपेक्षा स्वयं ( आत्म) को पहचानने की बात किन पंक्तियों में कही गई है? उन्हें अपने शब्दों में लिखे।
निम्नलिखित पंक्तियों में बाह्याडंबरों की अपेक्षा स्वयं (आत्मा) को पहचानने की बात कही गई है, अपने शब्दों में-कबीर ने ये बाह्याडंबर बताए हैं-पत्थर पूजा, कुरान पढ़ना, शिष्य बनाना, तीर्थ-व्रत, टोपी-माला पहनना, छापा-तिलक लगाना आदि।
कबीर के मन में ये सब बाह्याडंबर हैं, इनसे दूर रहना चाहिए। स्वयं (आत्म) को पहचानना चाहिए। यही ईश्वर का; स्वरूप है। आत्मा का ज्ञान सच्चा ज्ञान है।।
अन्य संत कवियों नानक, दादू और रैदास के ईश्वर संबंधी विचारों का संग्रह करें और उन पर एक परिचर्चा करें।
अन्य संत कवियों के पदों का संकलन
रैदास
1. जिहि कुल साधु वैसनो होड़।
बरन अबरन रंक नहीं ईस्वर, विमल बासु जानिए जग सोइ।।
बधन बैस सूद अस खत्री डोम चंडाल मलेच्छ किन सोइ।
होई पुनीत भगवंत भजन ते आपु तारि तारै कुल दोइ।।
धनि सु गार्ड धनि धनि सो ठाऊँ, धनि पुनीत कुटँब सभ लोइ।
जिनि पिया सार-रस, तजे आन रस, होड़ रसमगन, डारे बिषु खोइ।।
पंडित सूर छत्रपति राजा भगत बराबरि औरु न कोई।
जैसे पुरैन पात जल रहै समीप भनि रविदास जनमे जगि ओइ।।
2. ऐसी लाज तुझ बिनु कौन करै।
गरीबनिवाजु गुसैयाँ, मेरे माथे छत्र धरै।।
जाकी ‘छोति जगत की लागै, तापर तुही ढरै।
नीचहिं ऊँच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै!
नामदेव, कबीर, तिलोचन, सधना, सैनु तरै।
कहि रविदास सुनहु रे संतो, हरि-जीउ ते सभै सरै।।
2. ऐसी लाज तुझ बिनु कौन करै।
गरीबनिवाजु गुसैयाँ, मेरे माथे छत्र धरै।।
जाकी ‘छोति जगत की लागै, तापर तुही ढरै।
नीचहिं ऊँच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै!
नामदेव, कबीर, तिलोचन, सधना, सैनु तरै।
कहि रविदास सुनहु रे संतो, हरि-जीउ ते सभै सरै।।
कबीर ने जग को पागल क्यों कहा है?
कबीर जग को पागल इसलिए कहते हैं कि यदि सच कहते है तो यह संसार मारने के लिए दौड़ता है और झूठ कहते है तो विश्वास कर लेता है।
साँची कही तौ मारन धावे, झूठे जग पतियाना’ से लोगों की किस प्रवृत्ति का पता चलता है?
संसार का यह पागलपन ही है जो सत्य का विरोध करता है और झूठ का विश्वास कर लेता है।
कबीर ने इस पद में किन-किन पाखंडों का उल्लेख किया है?
कबीर ने इस पद में हिन्दू और इस्लाम धर्म के अनेक पाखंडों का उल्लेख किया है। जैसे-मूर्ति-पूजा, प्रात: स्नान, माला, टोपी, तिलक, मन्त्र, कुरान पढ़ना, शिष्य बनाना, कब की रजा करना आदि।
कबीर के विचार में पीर-औलिया भी खुदा को खो नहीं जान पाते?
कबीर के विचार से कुरान पढ़ना, चेले बनाना और कब्र की पूजा बताना पीर-लिया का धार्मिक आडम्बर है, इसलिए पीर-औलिया भी खुदा को नहीं जान पाते।
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‘इनमें कौन दिवाना’ में ‘इनमें’ शब्द का प्रयोग किनके लिए हुआ है?
कबीर ने इस अंश में ‘इनमें’ पद का प्रयोग हिन्दू और सलमानों के लिए किया है।
कबीर की दृष्टि से किन लोगों को आत्मबोध नही हो पाता?
कबीर की दृष्टि में वे लोग आत्मबोध नहीं कर सकते जो सत्य का विरोध करते हैं तथा झूठ का विश्वास करते हैं। आत्मज्ञान को त्यागकर मूर्ति-पूजा, पीपल पूजा जैसे धार्मिक आडम्बर करते हैं। कुरान का पाठ करते हैं, अपने चेले बनाते हैं तथा कब्रों पर दीया जलाने का उपदेश देते हैं।
कबीर को क्यों कहना पड़ा ‘आगि दोऊ घर लागी’?
कबीर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ जब समाज में धार्मिक आडम्बरों का साम्राज्य था। हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही धार्मिक आडम्बरों के शिकार हो रहे थे और समाज मानवताविहीन दिशा की ओर अग्रसर था। हिन्दू लोग मूर्ति पूजा, तिलक, माला, जाप आदि अनेक पाखण्डों में लिप्त थे, और मुसलमान कुरान का पाठ करते, नमाज पड़ते, चेले बनाते, कब्र पर दीया जलाने का उपदेश देते थे। इन दोनों में से किसी को सच्चा आत्मबोध नहीं था। धार्मिक आडम्बरों में दोनों ही एक से बढ्कर एक थे; अत: कबीर को कहना पड़ा- ‘आगि दोऊ घर लागी’।
भाव स्पष्ट कीजिए:
(क) मरम न कोई जाना।
(ख) साखी सब्दै गावत भूले आत्म खबर न जाना।
(ग) गुरुवा सहित सिस्य सब बूड़े।
(क) हिन्दू और मुसलमान दोनों ही आत्म-तत्त्व और ईश्वर के वास्तविक रहस्य से अपरिचित हैं, क्योंकि मानवता के विरुद्ध धार्मिक कट्टर और आडम्बरपूर्ण कोई भी धर्म ईश्वर की परम सत्ता का अनुभव नहीं कर सकता।
(ख) साखी और सबद कबीर के आत्मापरक ज्ञान के उपदेश हैं। वे इनके माध्यम से अपनी संगत के साधुओं को आत्मज्ञान बताते थे। उस समय के हिन्दु. और मुसलमान साखी और सबद पर ध्यान नहीं देते थे और धार्मिक कट्टरपन और आडम्बरों में विश्वास रखते थे। साखी और सबद के गायन के बिना हिन्दू और मुसलमान आत्म-तत्त्व के ज्ञान से अपरिचित थे।
(ग) कबीर ऐसे शिष्य और गुरु दोनों को डूबे हुए मानते थे जो अपने अभिमान में चूर-चूर हों और माया के वशीभूत हों। धार्मिक पाखंड और आडम्बरों में विश्वास रखते हों, घर-घर जाकर जन्त्र-मंत्र की शिक्षा देते हों। इस प्रकार के गुरु और शिष्य दोनों ही अज्ञानी हैं तथा अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए हैं।
कबीर के दोहों को साखी क्यों कहा गया है?
साखी ‘शब्द’ या ‘साक्षी’ का अपभ्रंश रूप है। इस रूप में यह शब्द उस अनुभूति का द्योतक है, जिसको कवि ने अपनी बुद्धि से नहीं वरन् अपने अंत:करण से साक्षात्कार किया है। ये साखियाँ उस ज्ञान की साक्षी भी हैं और उसका साक्षात्कार कराने वाली भी हैं। ‘साखी’ शब्द में ‘शिक्षा’` या ‘सीख’ अर्थात् उपदेश देने का अथ भी निहित है। इन साखियों में नैतिक उपदेश का समावेश मिलता है। छंद की दृष्टि से ‘साखी’ दोहा के निकट है।
कबीर ने अन्य किस रूप में काव्य की रचना की है?
कबीर ने साखियों के अतिरिक्त पदों (सबद) और रमैणियों की रचना भी की है। कबीर के पद सबद कहे जाते है। ये पद गेय हैं। ये पद हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इन पदों में अध्यात्म, ज्ञान, भक्ति आदि अनेक विषयों का समावेश है। कबीर ने लगभग 21 रमैणियों की भी रचना की है। ये रमैणियाँ एक पदी, दो पदी, चौपदी, सप्तपदी, अष्टपदी और बारहपदी हैं। इनमें धार्मिक बाह्याचारों और असंगतियों पर तीखे कटाक्ष किए गए हैं।
कबीर की सामाजिक विचारधारा क्या थी?
कबीर भक्त और कवि होने के साथ-साथ समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अपनी साखियों एवं पदों में उस समय के समाज में फैले ढोंग-आडंबरों पर करारी चोट की है। उन्होंने धर्म के बाहरी विधि-विधानों, कर्मकांडों, जैसे-जप, माला, छापा, मूर्तिपूजा, रोजा, नमाज आदि का विरोध किया। उन्होंने ढोंग, आडंबरों के लिए हिन्दू और मुसलमान दोनों को फटकारा। हिन्दुओं से कहा:
पत्थर पूजै हरि मिलै तो मैं पूजूँ पहार।
या तै वो चाकी भली, पीस खाय संसार।।
इसी प्रकार मुसलमानों को यह कहकर फटकारा:
कांकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय।।
कबीर की भाषा-शैली पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
कबीरदास जन-सामान्य के कवि थे, अत: उन्होंने सीधी-सरल भाषा को अपनाया है। उनकी भाषा में अनेक भाषाओं के शब्द खड़ी बोली, पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी, पंजाबी, ब्रज, अवधी आदि के प्रयुक्त हुए हैं, अत:, ‘पंचमेल खिचड़ी’ अथवा ‘सधुक्कड़ी’ भाषा कहा जाता है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे ‘सधुक्कड़ी’ नाम दिया है। उन्होंने अपनी रचनाओं में दोहा-चौपाई और पद-शैली का अधिक प्रयोग किया है।
काव्य को प्रभावशाली बनाने वाले कुछ अलंकार कबीर के काव्य में अनायास आ गए हैं, जैसे- अनुप्रास, रूपक, उपमा, दृष्टांत आदि।
निम्नलिखित काव्य-पंक्ति में निहित सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए-
हम तौ एक एक करि जानां
दोइ कहै तिनहीं कीं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां।
इन काव्य-पक्तियों में ईश्वर के एक ही होने की मान्यता की पुष्टि की गई है। वही एक ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है। वह कण-कण में समाया है। इसी प्रकार आत्मा-परमात्मा भी एक है। आत्मा परमात्मा का ही अंश है। जो इन्हें दो बताता है, वह अज्ञानी है।
-इन काव्य पंक्तियों में ‘एक एक’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग है।
‘जग जिन’ में अनुप्रास अलंकार है।
-‘दोजग’ से दो अर्थ ध्वनित होते हैं- (1) दो संसार (2) नरक, अत: यहां श्लेष अलंकार है।
- भाषा सधुक्कड़ी है।
पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना।
टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।।
इन काव्य पंक्तियों में कबीर ने ढोंग-आडंबरों पर करारी चोट की है। वे तीर्थ-व्रत, मूर्ति पूजा, टोपी-माला को धर्म के चिह्न मानने, तिलक-छापा लगाने का सशक्त विरोध करते हैं। उनके मत में इन बाहु-चिहनों का धर्म से कोई संबंध नहीं है।
-‘पीपर पाथर पूजन’ में ‘प’ वर्ण की आवृति के कारण अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
-सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग है।
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