Hindi B

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Question 1

हिंदी के उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिए।

Solution

हिंदी शब्द का आज मुख्य रूप से निम्न अर्थों में प्रयोग हो रहा है-

(क) हिंदी शब्द अपने विस्तृततम अर्थ में हिंदी प्रदेश में बोली जाने वाली सत्रह बोलियों का द्योतक है। हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में होता है, जहाँ ब्रज, अवधी, डिंगल मैथिली, खड़ी बोली आदि सभी में लिखित साहित्य का विवेचन किया जाता है। वस्तुतः अब हिंदी साहित्य के इतिहास में पूरा उर्दू और पूरा दक्खिनी साहित्य भी समाहित कर लिया जाना चाहिए। इस प्रकार उर्दू तथा दक्खिनी को मिलाकर हिंदी सत्रह बोलियों, उर्दू तथा दिक्खनी को अपने अन्तर्गत किए हुए है।

(ख) भाषा विज्ञान में प्राय: 'पश्चिमी हिंदी' और पूर्वी 'हिंदी' को ही हिंदी मानते रहे हैं। जार्ज ग्रियर्सन ने इसी आधार पर हिंदी प्रदेश की अन्य उपभाषाओं को राजस्थानी, पहाड़ी, बिहारी कहा था जिनमें हिंदी शब्द का प्रयोग नहीं है, किन्तु अन्य दो को हिंदी मानने के कारण पश्चिमी हिंदी तथा पूर्वी हिंदी कहा था। इस प्रकार इस अर्थ में हिंदी आठ बोलियों (ब्रज, खड़ी बोली, बुन्देली, हरियाणी, कन्नौजी, अवधी, छत्तीसगढ़ी) का सामूहिक नाम है।

उद्भव एवं विकास-खड़ी बोली हिंदी का उद्भव शौरसेनी अप से हुआ किन्तु यदि उसे पश्चिमी हिन्दी-पूर्वी हिंदी की आठ बोलियों का प्रतिनिधि माना जाय तो हिंदी का उद्भव काल मोटे रूप से आठवीं शताब्दी के लगभग माना जा सकता है।

वैसे तो हिंदी के कुछ रूप पालि में ही मिलते हैं, प्राकृत काल में उनकी संख्या और भी बढ़ गई तथा अपभ्रंश काल में ये रूप चालीस प्रतिशत से भी अधिक हो जाते हैं किंतु हिंदी भाषा का वास्तविक आरंभ आठवीं शताब्दी से ही हो सका।

आचार्य धीरेन्द्र वर्मा ने हिंदी भाषा का उद्भव 1000 ई.पू. के लगभग स्वीकार किया है, परवर्ती अधिकांश भाषा शास्त्री इस तथ्य से सहमत है। कुछ उत्साही अनुसंधाताओं ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि 1000 ई. के पूर्व ही हिंदी का प्रारम्भिक रूप मिल जाता है। डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल का अनुमान है कि सन् 778 ई. के पूर्व से ही हिंदी बोली जाती रही होगी। डॉ. रामकुमार वर्मा, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन और ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने सातवीं शती ई. की कविता में हिंदी भाषा के शब्दों के प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। यही कारण है कि डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपने आलोचनात्मक इतिहास में चंद्रधर शर्मा गुलेरी और राहुल सांकृत्यायन के मतों का परीक्षण करते हुए 'उत्तर अपभ्रंश' के कवियों को स्थान दिया है। अतः निम्नांकित तथ्य प्रकाश में आते हैं-

  1. विद्वानों का एक वर्ग हिंदी भाषा का उद्भव लगभग 1000 ई. से स्वीकार करता है। इस वर्ग में डॉ. भोलानाथ तिवारी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा जैसे विद्वान आते है।
  2. विद्वानों का दूसरा वर्ग उत्तर अपभ्रंश को ही पुरानी हिंदी स्वीकार करते हुए सातवीं शती ई. में हिंदी का उद्भव मानता है।

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि वीं शती ई. के पूर्व से ही हिंदी के कुछ व्यावहारिक रूप मिलते हैं किन्तु हिंदी भाषा का व्यवस्थित रूप 1000 ई. में ही दिखाई देता है। अतः हिंदी के विकास का इतिहास लगभग 990 वर्षों में फैला हुआ है।

डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने हिंदी भाषा के इस विकास को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से तीन कालखंडों में विभाजित किया है-

  1. प्राचीन काल-सन् 1500 ई. तक जब अपभ्रंश और प्राकृतों का प्रभाव हिंदी भाषा पर विद्यमान था और हिंदी की बोलियों के निश्चित, स्पष्ट रूप सामने नहीं आ पाये थे।
  2. मध्यकाल-इस काल-खंड में हिंदी अपभ्रंशों के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त हो चुकी थी और उसकी प्रमुख बोलियाँ विशेषतया खड़ी बोली, ब्रज और अवधी अपना स्वतंत्र एवं स्पष्ट व्यक्तित्व लेकर सामने आ चुकी थीं।
  3. आधुनिक काल-सन् 1800 ई. के बाद जब मध्य काल के रूपों में स्पष्ट परिवर्तन लक्षित होने लगा था मुद्रण कला के साथ-साथ खड़ी बोली सम्पूर्ण मध्य देश की एकमात्र साहित्यिक भाषा हो गई उसके हिंदी की अन्य बोलियों के प्रभाव को क्षीण कर दिया।

हिंदी भाषा के विकास को स्पष्ट करने के लिए प्रत्येक कालखंड पर विचार आवश्यक है।

प्राचीन काल-डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार हिंदी भाषा के इस प्राचीनकाल की सामग्री नीचे लिखे भागों में विभक्त की जा सकती है-

  1. शिलालेख, ताम्रपत्र तथा प्राचीन पत्र आदि।
  2. अपभ्रंश साहित्य
  3. चारण काव्य तथा राजस्थान में लिखे गये धार्मिक ग्रंथ व अन्य हस्तलिखित ग्रंथ
  4. हिंदवी अथवा पुरानी खड़ी बोली का साहित्य

हिंदी का पौधा राजकीय संरक्षण को प्राप्त किए बिना अपनी अनवरुद्ध जीवनी शक्ति के सहारे तूफानों के थपेड़ों में निरंतर विकसित होता रहा। उस समय को राजनीतिक स्थिति के अनुशीलन से यह तथ्य भली भाँति प्रकाश में आता है। वास्तव में जनता की प्राकृत भाषा होने के कारण हिंदी निरंतर लोक-साहित्य के स्निग्ध कूलों का स्पर्श करते रहने के कारण ही मुरझा न सकी किन्तु राजकीय संरक्षण प्राप्त होने की स्थिति में और विदेशी शासन होने के कारण इस काल के प्राचीन शिलालेख या धातुपत्र अल्प परिणाम में ही उपलब्ध हैं। हाँ, राजस्थान के स्वातन्त्र्यचेता बुद्धिजीवी समाज के सतत् प्रयत्नों एवं सहृदयों जैन कवियों के विपुल साहित्यों में तत्कालीन हिंदी के विकास को भलीप्रकार देखा जा सकता है। आज भी राजस्थान के भाण्डागारों में इस काल की विपुल सामग्री सुरक्षित है। श्री अगरचन्द नाहटा, डॉ. भोगीलाल, साण्सेसरा और मोहनलाल दुलीचंद जैसे खोजी विद्वानों के परिश्रम से इस काल की पर्याप्त सामग्री प्रकाश में आ चुकी है तथापि इसकी आवश्यकता निरन्तर बनी हुई है। डॉ. हरीश के अनुसार पुरानी हिंदी के शब्द रूप और ध्वनियों का अध्ययन करने के लिए आदिकालीन जैन कवियों की रचनाएँ अत्यंत उपयोगी है। हिंदी की लोक-भाषा संबंधी प्रवृत्तियों का अध्ययन करने में ये कृतियाँ बहुत सहायक सिद्ध है। वि.सं. 800 से 1500 तक के उपलब्ध साहित्य के अभाव में अब तक के विकास में जितनी अड़चने अनुभव की जा रही थीं, उनका निराकरण करने की क्षमता इन कृतियों में पूर्णतया विद्यमान है।

डॉ. रामचन्द्र मिश्र, डॉ. उदयनारायण तिवारी, आचार्य धीरेन्द्र वर्मा और डॉ. भोलानाथ तिवारी प्रभृति विद्वानों ने प्रारम्भिक हिंदी ध्वनियों पर विचार करते हुए अपभ्रंश से उनके अन्तर को इस प्रकार स्पष्ट किया है।

  1. अपभ्रंश में केवल आठ स्वर थे (अ, आ, इ, ई.उ, ऊ, ए, ओ) जबकि प्रारम्भिक हिंदी में दो नये स्वर ऐ, औ, विकसित हो गए।
  2. प्रारम्भिक हिंदी में नये व्यंजन, इ. द विकसित हो गये।
  3. संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के स्पर्श व्यंन (च. छ.ज.झ) हिंदी में आकर स्पर्श-संघर्षी हो गये।
  4. संस्कृत अपभ्रंश की दत्य ध्वनियाँ आदिकालीन हिंदी में वर्त्स्य हो गई।
  5. अपभ्रंश के संयुक्त व्यंजन न्ह, म्ह, ल्ह हिंदी में मूल व्यंजन हो गए यथा-न, म, ल। इसके अतिरिक्त कुछ नये संयुक्त व्यंजन भी हिंदी में आ गये कदाचित् फारसी-संस्कृत के शब्दों के आ जाने से ऐसा हुआ होगा।
  6. अपभ्रंश के संयोगात्मक रूपों को हिंदी ने पूरी तरह से ठुकरा दिया और उसकी जगह हिंदी में वियोगात्मक रूपों का प्राधान्य हो गया।
  7. कारक चिह्नों तथा सहायक क्रियाओं का प्रयोग भी हिंदी में काफी होने लगा।
  8. हिंदी की वाक्य-रचना व्यवस्थित हुई और शब्द-क्रम शनैः शनैः निश्चित होने लगा।
  9. नपुसक लिंग एक सीमा तक अपभ्रंश में व्यवहत था, हिंदी ने उसे पूर्णत: अस्वीकृत कर दिया अब केवल दो लिंग ही रह गये स्त्रीलिंग और पुल्लिंग
  10. अपभ्रंश के व्याकरणिक रूप धीरे-धीरे लुप्त होते गये और आदिकाल के अंतिम चरण में हिंदी अपभ्रंश से पूरी तरह मुक्त और समर्थ हो गई।
  11. शब्द-भण्डार की दृष्टि से भी अपभ्रंश की तुलना में हिंदी में तत्सम शब्दावली अधिक व्यवहत हुई। इसके इतिरिक्त विदेशी भाषाओं के जो शब्द उसकी प्रकृति के अनुकूल थे हिंदी ने उदारतापूर्वक उन्हें भी ग्रहण कर लिया।

इस काल-खण्ड के साहित्य में मुख्यतः राजस्थानी, डिंगल मैथिली, ब्रज, अवधी तथा पुरानी खड़ी बोली का प्रयोग मिलता है। प्रारंभ में पुरानी पश्चिमी राजस्थानी और गुजराती की कहीं जाने वाली रचनाओं को अध्येताओं ने हिंदी के अन्तर्गत परिगर्णित नहीं किया था किन्तु पश्चात्कालीन अनुसंधानों से यह तथ्य प्रकाश में आ चुका है कि ये समस्त रचनाएँ आदिकालीन हिंदी साहित्य की सम्पत्ति हैं। इस काल के प्रमुख हिंदी साहित्यकार गोरखनाथ, विद्यापति, सरहपाद, नरपति, नाल्ह, चन्दबरदायी, कबीर, नवाज आदि।

मध्यकाल-इस काल खण्ड में हिंदी पर्याप्त परिवर्तित हो गई। अब उसके स्वरूप की धाराएँ भी निश्चित हो गई थीं और राजस्थानी, मैथिली, दक्खिनी, ब्रज भाषा, अवधी और खड़ी बोली में अलग-अलग रचनाएँ भी होने लगी थी। अवधी और ब्रजभाषा में तो विपुल साहित्य रखा गया। खड़ी बोली में गद्य साहित्य भी उपलब्ध होता है। इस काल में यह भाषा देश के विशाल भू-भाग में जन सम्पर्क की भाषा के रूप में प्रचलित हो गई, जिसे राजकीय संरक्षण भी प्राप्त हुआ इसके अतिरिक्त अनेक धार्मिक सम्प्रदायों ने इसकी श्रीवृद्धि में अपना अन्यतम योगदान दिया लोक-परम्परा के अमृत रस से अभिसिंचित होकर यह भाषा इस युग में चरमोत्कर्ष पर पहुँची जिससे यह कोल हिंदी का स्वर्ण युग माना गया है।

16वीं शतीं (ईसवी) के पूर्वार्द्ध से ही अवधी और ब्रज भाषाओं के पर्याप्त विकास के उदाहरण मिलने लगते हैं। सूरदास ब्रजभाषा के शीर्षस्थ कवि हैं। उनका कविता काल 1500 ई. के बाद का है। यद्यपि सूर पूर्व ब्रज भाषा के भी सुन्दर साक्ष्य मिलते हैं। अष्टछाप के कवियों ने भी इसमें अत्यन्त रमणीय और प्रांजल भाषा में काव्य लिखा। धीरे-धीरे यह भाषा अत्यन्त परिनिष्ठित होती गई और एक दिन ऐसा आया जब वह ब्रज की बोली से भिन्न हो गई। भक्ति काल के अष्टछाप कवियों और रीति काल के कृष्णकाव्य धारा के कवियों के तुलनात्मक अध्ययन से इस तथ्य पर पर्याप्त प्रकाश पड़ सकता है। अवधी में भी गोस्वामी तुलसीदास, मालिक मुहम्मद जायसी जैसे कवि-शिरोमणि हुए। जायसी की प्रसिद्ध कृति 'कन्हावत' तथा 'पद्मावत' में ठेठ अवधी या माधुर्य मिलता है। जबकि गोस्वामी के मानस में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है। विश्वकवि के मानस का जन-जन में प्रचार होने पर भी अवधी ब्रज भाषा के समान व्यापक साहित्यिक भाषा नहीं बन सकी।

संतों की साखियों व पदों में खड़ी बोली के शब्द भी मिल जाते है। प्रेमाख्यानक 'कुतुब शतक' की भाषा में खड़ी बोली का प्राचीन रूप आसानी से परिलक्षित किया जा सकता है। दक्खिनी हिंदी में भी फुटकल रचनाएँ उपलब्ध हैं। मुल्ला वजही गब्बासी, नुसरती, मुकीसी, आजिज, सनतो, इब्ननिशाती, मीरा हाशमी, जैसे कवियों की रचनायें दक्खिनी में ही मिलती हैं। बोलचाल की दक्खिनी के भी अनेक रूप प्रचलित थे, हिंदी, हिन्दवी, देहलवी नाम भी दक्खिनी के लिए प्रयुक्त होते थे। यही कारण हैं पुराने लेखकों ने दक्खिनी को 'हिंदी' लिखा है। राजस्थानी तथा मैथिली की यथेष्ट प्रगति हुई। श्री अगरचंद नाहटा, श्री मोतीलाल मेनारिया आदि के प्रयासों से अनेक राजस्थानी रचनायें प्रकाश में आयीं। मैथिली के विकास को भी डॉ. प्रतापनारायण झा प्रभूति विद्वानों ने भली प्रकार समझाया है। इस काल में राजस्थानी तथा मैथिली गद्य भी मिलता है। श्री शिवशंकर वर्मा ज्योतिरीश्वर ठाकुर से मैथिली गद्य का आरम्भ माते हैं। राजस्थान के प्राच्य प्रतिष्ठानों में उस काल की कुछ सनदें और कुछ पत्र तथा हस्तलिखित ग्रंथ आदि मिलते हैं जिनमें राजस्थानी गद्य के नमूने देखे जा सकते हैं।

18वीं शती ई. के मध्य में उर्दू शब्द भी भाषा के अर्थ में बोला जाने लगा था। भाषाविदों ने उर्दू को भी हिंदी की एक शैली मानते हुए प्रारंभ में खड़ी बोली को उर्दू का ही एक रूप माना है। बाद में फारसी लिपि में लिखी जाने से उसमें पर्याप्त अंतर आ गया। अठारहवीं और उन्नीसवीं शती में मीर, सौदा, इंशा, गालिब जौक और दाग आदि कवियों ने जिस उत्कृष्ट साहित्य की रचना की उसे भी डॉ. धीरेन्द्र वर्मा जैसे भाषाविद् इस काल में अध्ययन की उपयुक्त सामग्री स्वीकार करते हुए लिखते है कि बहुत से मुसलमान कवियों ने काव्य-रचना करके खड़ी बोली उर्दू को परमार्जित साहित्यिक रूप दिया।

हिंदी की ध्वनियाँ उसके व्याकरण तथा शब्द-भण्डार की दृष्टि से इस काल की भाषा में निम्नलिखित विशेषताएँ सरलता से दृष्टिगोचर होती है-

  1. फारसी के प्रचार और उसके प्रभाव के कारण उच्च वर्ग की हिंदी में पाँच नये व्यंजन प्रचलित हुए (क, ख, ग, ज, फ) ।
  2. शब्द के अंत में 'अ' कम से कम मूल व्यंजन के बाद आने पर लुप्त हो गया अर्थात राम का उच्चारण राम् होने लगा। कुछ स्थितियों 'ह' के पहले 'अ' का उच्चारण 'ए' जैसा उच्चारित होने लगा।
  3. आदिकालीन भाषा की तुलना में इस काल की भाषा और भी वियोगात्मक हो गई।
  4. परसर्गों और सहायक क्रियाओं का प्रयोग पहले की अपेक्षा अधिक होने लगा।
  5. भाषा व्याकरण सम्मत हो गई। अपभ्रंश के बचे हुए रूपों को उसने आत्मसात कर लिया।
  6. हिंदी की वाक्य-रचना पर फारसी का प्रभाव पड़ने लगा।
  7. सोलहवीं शती के काव्य में भाषा में तत्सम शब्दों का बाहुल्य हो गया। तत्सम शब्दों का यह अनुपात भाषा में पहले की तुलना में और भी बढ़ गया।
  8. विदेशी सम्पर्क के कारण भाषा के पुर्तगाली, फ्राँसीसी, स्पेनी तथा अग्रेंजी के शब्द भी हिंदी में आ गये।

आधुनिक काल-इस काल तक हिंदी भाषा पर्याप्त समृद्ध और समर्थ हो चुकी थी। प्रेस के प्रसार के और नवयुग के सूत्रपात होने से हिंदी भाषा और साहित्य का आधुनिक युग शुरू हुआ। ब्रजभाषा का स्थान दिल्ली के आस-पास बोली जाने वाली शिष्ट भाषा खड़ी बोली ने लिया। भाषा-परिवर्तन भी इसी समय की एक बड़ी क्रांति है। अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक दिल्ली की शिष्ट भाषा का ही सर्वत्र व्यवहार किया जाने लगा तथा इनमें अनेक सुन्दर गद्य-ग्रंथ भी लिखे जाने लगे। 19 वीं शती के आरंभ से ही खड

Question 2

खड़ी बोली के स्वरूप और विशेषताओं का परिचय दीजिए।

Solution

खड़ी बोली-खड़ी बोली का अभ्युदय तो साम्प्रतिक है, परन्तु प्राचीन यह लगभग उतनी ही है। जितनी ब्रजभाषा; इसके अस्तित्व के प्रमाण चौदहवीं शताब्दी से मिलते हैं। पद्य में ही नहीं, गद्य के क्षेत्र में भी उसकी स्थिति चिर प्राचीन है। नाथ सिद्धों की अनेक गद्य-मय रचनाओं, अमीर खुसरों की पहेलियों, रामानन्द और सन्तों के काव्य में खड़ी बोली के शब्दों का प्रयोग मिलता है। 15वीं शती की रचना कुतुब शतक तथा दक्खिनी हिंदी की कृतियों में खड़ी बोली के गद्य की पंक्तियाँ प्रचुरता से प्राप्त होती हैं। इस प्रकार खड़ी बोली नाम भले ही नया हो किन्तु उसके अस्तित्व के प्रमाण हिंदी भाषा के प्राचीन युग से ही मिलने लगते हैं। खड़ी बोली का एक रूप कौरवी भी है। डॉ. कृष्णचन्द्र शर्मा ने इस बोली के संबंध में लिखा है कि यही वह बोली है जिसका 11 वीं 12वीं शती के पश्चात् पंजाब की ओर से आकर दिल्ली में बसने वाले यवन आक्रान्ताओं ने अपने व्यवहार के लिए चुना था। डॉ. हरिश्चन्द्र वर्मा में अपने पीएच. डी. के शोध -प्रबंध 'खड़ी बोली का विकास' में खड़ी बोली का कौरवी नाम उपयुक्त ठहराया है। डॉ. कृष्णचन्द्र वर्मा के अनुसार वास्तव में यह कुरु प्रदेश के ग्रामीणों की ही बोली थी। वर्तमान खड़ी बोली के क्षेत्र का जो सीमा निर्धारण आधुनिक विद्वानों ने किया है वह समस्त कुरु प्रदेश ही है। अत: खड़ी बोली को कौरवी नाम से पुकारना उचित प्रतीत होता है।

डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने इसका क्षेत्र सरहिन्द, पश्चिमी रूहेलखण्ड, गंगा का उत्तर दोआब तथा अम्बाला जनपद माना है। इस बोली को बोलने वाले लगभग पौने दो करोड़े हैं।

“लल्लू लाल कवि ब्राह्मण गुजराती साहस्र अवदीच आगरे वाले ने विकास सार ले, यामिनी भाषा छोड़ दिल्ली-आगरे की खड़ी बोली में कह प्रेमसागर नाम धरा।"

लगभग इसी समय डॉ. जान गिलक्राइस्ट तथा पं. सदल मिश्र ने भी खड़ी बोली नाम का उल्लेख किया। आगे चलकर शनैः शनै: 'खड़ी बोली' नाम का प्रचार हो गया। खड़ी बोली के 'खड़ी' शब्द को लेकर भाषाविदों ने अनेक कल्पनायें कर डालीं हैं। इस शब्द के अर्थ और व्युत्पत्ति को लेकर कई मत प्रचलित हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

प्रथम अभिमत-(खड़ी तथा पड़ी)- इस मत के मानने वाले हैं-चन्द्रधर शर्मा गुखेरी, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी और लाला भगवानदीन। गुलेरेजी के अनुसार विदेशी मुसलमानों ने आगरे, दिल्ली, सहारनपुर, मेरठ की पड़ी भाषा को खड़ी बना कर अपने लश्कर और समाज के लिए उपयोगी बनाया। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने भारतीय आर्य भाषा और हिंदी में इस पर विचार करते हुए लिखा है कि 18वीं शताब्दी के अन्त तक तो हिंदू लोगों ने भी इस प्रतिष्ठित दरबारी भाषा की ओर ध्यान देना आरम्भ कर दिया था। इसे लोग 'खड़ी बोली' कहने लगे थे जबकि ब्रज-भाषा, अवधी आदि अन्य बोलियाँ पड़ी बोली (गिरी हुई बोली) कही जाने लगी थीं। इसी प्रकार भगवानदीन की धारणा है कि फारसी में कुछ ब्रज और कुछ बांगरू की टेक लगाकर बोली को 'खड़ा' कर दिया था और इसका नाम पड़ गया 'खड़ी बोली '

द्वितीय अभिमत- (खड़ी-खरी अथवा विशुद्ध) गार्सा द तासी ने 'खड़ी' को 'खरी' का समानार्थी माना है। इस्टविक ने खड़ी बोली को शुद्ध भाषा कहा है। केलाँग महोदय ने गार्सा द तासी की भांति इसे इसे 'खरी बोली कहकर, इसका अर्थ शुद्ध बोली (Pure speach) दिया है। प्लैट्स ने अपने प्रसिद्ध अंग्रेजी हिंदी और उर्दू कोश' में खड़ी बोली को माना है। पं. सदल मिश्र भी खड़ी बोली का अर्थ 'निराली' (खालिस) बोली लेते हैं। डॉ. श्रीकृष्ण चन्द्रधर शर्मा शुद्ध बोली को खरी अथवा खरी मानते हैं। पं. चन्द्रबली पाण्डेय ने भी खड़ी बोली का अर्थ प्राकृत, ठेठ या शुद्ध बोली माना है।

तृतीय मत खड़ी-कर्कश-गँवारू-बोली) - आगरा गजैटियर में इसे गाँव वारी या खड़ी बोली कहा गया है। उर्दू रिसाला में 'बाज गलतफहमियाँ' लेख में जनाब अब्दुल हक का कथन है कि खड़ी बोली के माने हिन्दुस्तान में आमतौर पर गंवार बोली के हैं जिसे हिन्दुस्तान का बच्चा-बच्चा जानता है।

आगरे की खड़ी बोली पर विचार करते हुए डॉ. विश्वनाथ प्रसाद ने लिखा है कि आगरा जिले में ऐसी बोली को जो, तू तेरे आदि भद्दे, गंवारू, कर्कश और कठोर शब्दों के व्यवहार के कारण, अखरे (ठाड़ी) बोली कहते हैं।

चतुर्थ मत (खड़ी बोली-प्रचलित या चलती भाषा) - यह मत प्रसिद्ध विद्वान ग्राहेम बोली का है। उन्होंने इसे खड़ी, प्रचलित एवं स्थापित अर्थ में माना है और कड़े शब्दों में गंवारी भाषा विषयक अर्थ का विरोध किया है। श्री माताबदल जायसवाल ने 'खड़ी बोली नाम का इतिहास' शीर्षक अपने लेख में पुष्ट प्रमाणों के आधार पर खड़ी बोली का सार्थक अर्थ प्रचलित बोली को ही निश्चित किया है।

पाँचवां मत (खड़ी पाई वाली-खड़ी बोली)-आचार्य किशोरदास वाजपेई ने 'शब्दानुशासन' में खड़ी बोली का संबंध खड़ी पाई से जोड़कर खड़ी बोली नाम अत्यन्त सार्थक माना है। उनके अनुसार ब्रज का शब्द 'मीठो' अवधी में 'मीठ' और खड़ी बोली में खड़ी पाई की वजह से 'मीठा' हो जाता है।

छठा मत (खड़ी बोली-टकसाली या स्टैंडर्ड भाषा) - गिलक्राइस्ट ने खड़ी बोली के 'प्योर', 'स्टर्लिंग 'पार्टिक्युलर इंडियम' जैसे विशेषणों को लेकर इसे टकसाली भाषा या स्टैण्डर्ड भाषा के अर्थ में स्वीकार किया है।

डॉ. भोलानाथ तिवारी ने भी खड़ी बोली के प्रचलित अर्थ और विभिन्न मतों पर विचार करते हुए लिखा है कि इस नाम के प्रारम्भिक प्रयोक्ताओं- लल्लूलाल, सदल मिश्र, गिलक्राइस्ट के खड़ी बोली नाम से संबंधि त वाक्यों को ध्यान से देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि तीनों ही ने खड़ी बोली के 'खरेपन उसकी विशुद्धता पर ही विशेष बल दिया है अतः खड़ी बोली के व्युत्पत्तिपरक अर्थ की दृष्टि से उपरिनिर्दिष्ट द्वितीय मत ही अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है।

उपर्युक्त विवेचन से निम्नांकित तथ्य प्रकाश में आते हैं-

  1. हिंदी भाषा के प्राचीन काल से लेकर अद्यावधि खड़ी बोली की परम्परा दृष्टिगोचर होती है।
  2. लल्लू लाल कृत 'प्रेमसागर' से पूर्व खड़ी बोली शब्द का प्रयोग अभी तक हिंदी साहित्स के किसी भी ग्रंथ में उपलब्ध नहीं है। यह बोली इस देश में काल, स्थान एवं स्वरूप भेद से हिंदवी, हिन्दुई, रेखता, हिन्दुस्तानी आदि अनेक नामों से प्रचलित थी किन्तु अब इसका सर्वाधिक प्रचलित नाम खड़ी बोली ही है।
  3. खड़ी बोली शब्द का अर्थ और व्युत्पत्ति के विषय में कई मत प्रचलित हैं किन्तु अधिकांश विद्वान उसका अर्थ 'विशुद्ध' लेते हैं।
  4. खड़ी बोली विकसित होते हुए आज परिनिष्ठित हिन्दी के रूप में प्रचलित है।
  5. खड़ी बोली हिंदी-भाषा का प्रयोग आजकल तीन अर्थों में किया जाता है।
  6. व्यापक अर्थ, 2. साहित्यिक अर्थ, और 3. हिंदी भाषा।

विशेषताएँ -ध्वनि विचार की दृष्टि से खड़ी बोली की कतिपय विशेषताएँ इस प्रकार हैं।

  1. इसकी प्रवृत्ति अकारान्त प्रधान है; जैसे-किया, करेगा, लोटा, पोटा, छोटा, मोटा आदि।
  2. 2. इसके ऐ और औ का उच्चारण क्रमशः 'ऐ' और 'ओ' की तरह ही होती है; जैसे-पैर (पैर) दोरा (दौरा)।
  3. 3. इसमें 'ड़' के स्थान पर 'ड', 'ल' के स्थान पर 'ळ' 'न' के स्थान पर 'ण' बोला जाता है; जैसे-गाड़ी (गाड़ी), साडी (साड़ी), जाणा (जाना) ।
  4. 4. इसमें प्राय द्वित्य वर्णों का प्रयोग होता है; जैसे-गुरुज्जी (गुरुजी), बेट्टा (बेटा), आल्लू (आलू), जुत्ता (जूता)।
  5. 5. 'ह' के पूर्व 'अ' का उच्चारण 'ए' की तरह सुनाई देता है; जैसे-रेह (रहा) ।
  6. 6. कहीं-कहीं इ का लोप भी देखा जाता है; जैसे-कट्टे (इकट्ठे)।
  7. 7. भूतकालिक क्रियाओं में 'थे' के स्थान पर 'हाँ( और 'हे' का प्रयोग मिलता है।
  8. 8. पूर्वकालिक क्रियाओं के रूप में 'कर' के स्थान पर 'के' का प्रयोग मिलता है; जैसे 'खाकर' के स्थान पर प्रायः 'खाके' बोला जाता है।
  9. 9. कुछ क्रिया-विशेषण नये ढग से प्रयुक्त होते है;-जैसे 'अभी' को 'इभी' 'यों' को 'नू' कहा जाता है।
  10. 10. अग्र स्वरों के साथ 'य' श्रुति तथा पश्च स्वरों के साथ 'व श्रुति का रूप सुनाई देता है।व-श्रुति-हुआ-हुवा, खोआ-खोवा
  11. य-श्रुति- धोई-धोयी, गए-गये
  1. 'अई' तथा 'अउ' संयुक्त स्वर क्रमशः 'ऐ' तथा 'औ' में बदल जाते हैं; जैसे-मइदान्-मैदान,मउसम--मौसम।
  2. खड़ी बोली में अंग्रेजी के कई शब्द प्रचलित हैं, किन्तु ध्वनि-परिवर्तन मिलता है; जैसे-FORM (फॉम) का फारम् PADDLE (पैडल) का पैंडिल, CHEQUE (चेक) का चैक, POST CARD (पोउस्ट कार्ड) का पोस्ट काट् या पोस्ट कार्ड।
  3. अनुनासिकता का खड़ी बोली में विशेष महत्त्व है। किसी भी स्वर को अनुनासिक किया जा सकता
  4. खड़ी बोली हिंदी में संस्कृत की त्त्समप्रियता के कारण बोलियों से अधिक व्यंजन-गुच्छ मिलते हैं। हिंदी में आदि, मध्य तथा अन्त्य सभी स्थितियों में व्यंजन-गुच्छ प्रयुक्त किये जाते हैं। आदि-स्थिति में निर्मित व्यंजन-गुच्छों में सबसे अधिक गुच्छ (स्) ध्वनि से बनाते हैं; जैसे-स्न्- स्नान, स्व-स्वच्छ, स्क-स्कंध, स्प-स्पष्ट आदि।

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