Hindi B

Sponsor Area

Question 1

निम्नलिखित की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-

(क) सतगुर हम सूं रीझि कर, एक कहया प्रसंग

बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया अब अंग।

अथवा

कृपासिंधु बोले मुसुकाई । सोइ करू जोहिं तब नाव न जाई।

बेगि आनु जल पाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू ॥

जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।

सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थौरा॥

 (ख) बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ

सौंह करै भौंहनु हँसै, दैन कहै नटि जाइ।

अथवा

रूपनिधान सुजान लखें बिन आँखिन दीठि हि पीढ़ि दई है।

ऊखिल ज्यौं खरकै पुतरीन मैं, सूल की मूल सलाइ भई है।

ठौर कहूँ न लहै ठहरानि को मूदें महा अकुलानिमई है।

बूड़त ज्यौं घनआनंद सोचि, दई बिधि ब्याधि समाधि नई है।

(ग) परिचय पूछ रहे हो मुझसे

कैसे परिचय दूँ इसका

वही जान सकता है इसको,

माता का दिल है जिसका

अथवा

कोई न छाया

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;

श्याम तन, भर बंधा यौवन,

नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ,

करती बार-बार प्रहार:

सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

Solution

(क) 

प्रसंगसंदर्भानुसार - प्रस्तुत दोहा भक्तिकालीन निर्गुण काव्यधारा के संतकवि कबीरदास द्वारा रचित 'कबीर ग्रंथावली' से अवतरित है। कबीर संत, समाज सुधारक, भक्त, साधक आदि बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी हैं उन्होंने सहज, सरल भाषा में अपने विचार प्रस्तुत किए हैं।

व्याख्या- कबीरदास ने सत्गुरु की महत्ता बताते हुए कहा है कि सत्गुरू जब कृपा करते हैं, दया करते हैं तब सब प्रेम के रंग में डूब जाते हैं। कबीर कहते हैं कि सत्गुरू ने मुझसे रीझकर एक प्रसंग कहा जिससे प्रेम बादल बरसा और मेरा तन मन भीग गया अर्थात् सत्गुरु जब प्रेममयी ज्ञान की वर्षा करते है तब जीवात्मा उसमें भीगकर आमगन हो जाती है।

विशेष - 1. दोहा छंद है।

  1. कबीर के दोहे 'साखी' नाम से प्रसिद्ध है।
  2. कबीर की भाषा सधुक्कड़ी है।
  3. शब्दावली की दृष्टि से अर्द्धतत्सम शब्दावली है।
  4. ज्ञानवर्द्धक विचार व्यक्त है।
  5. उपदेशात्मक शैली है।
  6. बिंबात्मकता है।

अथवा

प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस से अवतरित हैं।

व्याख्या- ये पंक्तियाँ राम चरितमानस के केवट प्रसंग से हैं जिसमें केवट और श्रीराम के संवाद है। यहाँ तुलसी कहते हैं कि जिस श्रीराम भगवान के एक बार नाम मरण से भवसागर से व्यक्ति पार उत्तर जाता है। वे ही श्रीराम नदी पार जाने के लिए केवट की ओर सहायता हेतु देख रहे हैं। जिस भगवान ने तीन पैरों (कदमों) से पूरी पृथ्वी को नाप दिया वे भगवान लीला स्वरूप केवट से सहायता मांग रहे हैं।

विशेष - 1. अवधी भाषा है।

  1. श्रीराम की सहायता का वर्णन है।
  2. चौपाई छंद है।

(ख) 

प्रसंगसंदर्भानुसार - प्रस्तुत दोहा रीतिकालीन रीतिसिद्ध कवि बिहारी द्वारा रचित 'सतसई' से अवतरित है। बिहारी ने शृंगार विषय को आधार बनाकर सर्वाधिक दोहे लिखे हैं जिसमें से एक यहाँ प्रस्तुत है। बिहारी अपने कला कौशल के लिए दक्ष है।

व्याख्या - इस दोहे में बिहारी ने नायक श्रीकृष्ण और नायिका श्रीराधा को बीच की प्रेममयी अरुखेलियों का वर्णन किया है। श्रीराधा कृष्ण से मिलने बात करने के लिए आतुर है। इसलिए उसने श्रीकृष्ण की बाँसुरी को बड़ी ही चतुराई के छिपाने की कोशिश की है। उसने उनसे मिलने और बात करने की वजह से ही ऐसा किया है। उसके मन में उनसे मिलने की लालच उत्पन्न हो गया है। इसी वजह से उनकी प्रिय बाँसुरी को अपनी चतुराई से दिपा दिया है। जब नायक श्रीकृष्ण ने उससे बाँसुरी माँगी तो वह अपने भौंहों के संकेत से मना करना है कि उसने बाँसुरी नहीं ली है। वह अपने भौंहों से मना कर देती है। वह नट जाती है कि उसने उसकी बाँसुरी नहीं जी है। इस पर श्रीकृष्ण उसको कसम खाने पर हँस पड़ते हैं। वह नायिका भी मन-ही-मन में हँस रही है। जबकि उसने ही उनकी बाँसुरी को छिपाया है। अतः उसकी चोरी स्वयं उसका भेद खोल रही है।

विशेष- 1. ब्रजभाषा है।

  1. दोहा छंद है।
  2. शृंगार रस है।
  3. माधुर्य गुण है।
  4. वैदर्भी रीति है।
  5. बिंबात्मकता लयात्मकता है।
  6. लालच लाल-अनुप्रास अलंकार है।
  7. अनुभाव योजना द्रष्टव्य है।

अथवा

प्रसंग-यह पद्य कविवर घनआनन्द की रचना सृजानहित के आरंभ से लिया गया है। इसमें नायिका द्वारा नायक के प्रथम-दर्शन के बाद आँखों और उनपर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन किया गया है। नायक या श्रीकृष्ण के सौंदर्य से प्रभावित गायिका या गोपी अपनी सहेली से कह रही हैं।

 

व्याख्या- हे सखि सौंदर्य के आगार उस साजन (श्रीकृष्ण) को मेरी आँखों ने जब से तनिक-सा एक बार देखा है, तब से बड़ी ही अनोखी दशा हो गई है। उसके अनोखे सौंदर्य को देखते ही आँखें चकित-सी रहकर उसके प्रेम में मग्न हो गई हैं। प्रेम ने मेरी बुद्धि ने जीवन और समाज के सारे लोक-लाज भुला दी है। अर्थात् प्रेम में इतना मग्न कर दिया है कि सभी तरह की शर्म-हया जाती रही हैं। छोटे-बड़े या घर-समाज का कोई भय या भाव प्रेम की तल्लीलता के कारण रही ही नहीं गया है। घनानन्द कवि कहते हैं कि जब से उस प्रिय को तनिक-सा देखा है, उसकी सुंदरता और प्रेम के कारण एक और आश्चर्य भी हुआ है। वह यह कि जब पलक रूपी पर्दे हमेशा गीले रहने लगे हैं। आदमी उसकी सुंदरता के प्रभाव से एक बार जो आँखें खुली की खुली रही, अब उसे देखते रहने के लिए हमेशा ही खुली रहती हैं। एक पल के लिए भी  कभी पलकें नहीं लगती। उस मनमोहन के प्रेम भरी आँखों के तारे कुछ इस प्रकार से लग गये हैं कि अब टालने पर भी नहीं टलते। अर्थात् बार-बार प्रयत्न करने पर भी आँखें उस रूप सौंदर्य की ओर से हटती नहीं है। उसकी सुंदरता और प्रेम ने बड़ी ही विचित्र स्थिति बना दी है।

 

विशेष-  1. घनआनन्द की कविता में 'सुजान' पद श्रीकृष्ण का भी सूचक या प्रतीक है और साजन या नायक का भी। वैसे सुजान व्यावहारिक जीवन में कवि की वेबफा प्रेमिका का नाम था।

  1. पद्य में रूपक, विशेषोक्ति, अनुप्रास आदि कई अलंकार हैं।
  2. भाषा माधुर्य-गुण-प्रधान है।
  3. बिंबात्मक प्रयोग है।
  4. रूप सौंदर्य वर्णित है।
  5. दृष्टि का सौंदर्य है, दृष्टि में ही सौंदर्य है।
  6. लयात्मकता है।
  7. विरह व्यथा भी है।

(ग) 

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण सभुद्राकुमारी चौहान द्वारा रचित 'बालिका का परिचय' कविता से अवतरित है। इन पंक्तियों में कवयित्री ने अपनी बंटी के माध्यम से अपने स्त्री जन्म भाव व्यक्त किए है।

 

व्याख्या- सुभद्राकुमारी जी कह रही है कि तुम मुझ से मेरी बेटी का परिचय पूछ रहे हो कि यह क्या है ? तो उसके उत्तर में मैं यह कहूँगी कि यह अपने में सभी मानवीय गुणों से युक्त है। यह साक्षात् गुणों की खान है। मुझे इस पर पूर्ण रूप से गर्व है। इसका परिचय देने की ज़रूरत नहीं है। यह स्वयं ही अपने में सच्चा परिचय है। मैं इसका क्या परिचय सकती हूँ? इसे वही जान सकता है। जिसके पास माँ की ममता से भरा दिल है। एक माँ की संवेदना और उसकी गहराई को जानने वाला व्यक्ति ही बालिका का सच्चा परिचय जान सकता है। अतः कवयत्री ने धर्म-गुरूओं के माध्यम से बेटियों की विभिन्न विशेषताओं का उल्लेख किया है। उन्होंने बालिका में व्याप्त उच्च मानवीय गुणों की ओर ईशारा किया है। इसमें बेटियों पर विश्वास करने की भी बात की गई है। वह मानती हैं कि बालिका का परिचय शब्दों के माध्यम से नहीं दिया

जा सकता है। वह अपने आम में ही गुणवान है।

 

विशेष-

  1. गीतात्मकता है।
  2. बिंबात्मकता है।
  3. बेटी के प्रति एक माँ के सहज भाव व्यक्त है।

अथवा

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला द्वारा रचित वह तोड़ती पत्थर से अवतरित है।

 

व्याख्या- इस कविता के द्वारा निराला ने श्रमिक वर्ग की दयनीय दशा का चित्रण किया है। कवि कहता है कि मैंने उसे अर्थात् में वर्णित मजदूरिन को इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ते हुए देखा। वह जिस वृक्ष के नीचे बैठकर पत्थर तोड़ रही थी, वह छायादान नहीं था लेकिन विवशता के कारण उसको उस वृक्ष के नीचे बैठकर पत्थन तोड़ना स्वीकार करना पड़ा। उसके शरीर कारंग काला था और पूरी तरह युवा अथवा भरी जवानी में थी। वह नीच की ओर अपनी आँखें झुकाकर पत्थर तोड़ने के प्रिय कर्म में संलग्न थी। उसके हाथ में एक भारी हथौड़ा था, जिससे वह पत्थरों पर बार-बार चोटें मार रही थी। उसके सामने ही दूसरी ओर सघन वृक्षों की पंक्ति, अट्टालिकाएँ ओर परकोटे वाली कोठियाँ मौजूद थीं।

 

विशेष - 1. इस कविता का रचनाकाल 1935 है। इसी सन् में भारत में प्रगतिवादी रचनाओं का प्रणयन आरंभ हुआ था। निराला की प्रस्तुत कविता प्रगतिवादी काव्यधारा की ही कविता है। जिसमें सर्वहारा वर्ग के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने का प्रयास किया गया है।

  1. मजदूरिनी का सूखे वृक्षों के नीचे बैठकर पत्थर तोड़ना और उसके सामने सघन वृक्षों की पंक्ति, अट्टालिकाओं तथा प्राचीर वाली कोठियों का उल्लेख करके कवि ने वर्ग वैषम्य को रेखांकित किया।
  2. बार-बार में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। नत नयन प्रिय कर्म रत में पदमैत्री देखी जा सकती है।
  3. तत्समप्रधान भाषा है।

Question 2

तुलसी की भक्ति-भावना पर विचार कीजिए।

अथवा

कबीर के काव्य-सौंदर्य पर विचार कीजिए।

Solution

 भक्तिकालीन साहित्य में ईश्वर के निर्गुण-निराकार रूप को आधार बनाकर जिन्होंने उपासना की वे संत कहलाए। कबीर इसी संत परंपरा के प्रवर्तक है। लेकिन कबीर केवल संत, साधक, भक्त, कवि से ज्यादा समाज सुधारक कहे जा सकते हैं इनकी कविता जन सामान्य के बीच उपजी और जन सामान्य के लिए सरस है। कबीर पर भक्ति-प्रभाव होने से रचनाओं में रागात्मक तत्त्व की प्रधानता मिलती है। इसके विषय में आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने कहा है-"कबीर की लोक-मंगल की भावना से ओत-प्रोत वाणी का उद्देश्य वस्तुत: इस सृष्टि के अनंत विस्तार में अन्तहीन वास्तविकता का बोध कराना था।" इसलिए उनके द्वारा धर्म के प्रति खण्डन-मण्डन की भावना ही दिखाई पड़ती है। उन्होंने अपनी मान्यताओं, विचारों और भावों को कविता के माध्यम से जन-सामान्य के पास पहुँचाया है। कबीर अशिक्षित थे न 'मसि कागद' हुआ था और न हाथ में 'कलम' ही गही थी। यही कारण है कि रस-ग्राहकों और कला-पिपासुओं ने कबीर का विशेष स्वागत नहीं किया है। इतना अवश्य है कि कबीर अपनी मधुर वाणी से जनता में लोकप्रिय हो गए थे। लेकिन कबीर जी के विचार क्रांतिकारी रहे हैं। इसीलिए कहा गया है कि-"प्रतिभा उनमें बड़ी प्रखर थी, इसमें संदेह नहीं। " हिंदी साहित्य के शुद्ध साहित्य की दृष्टि से कबीर अन्य की अपेक्षा अद्वितीय है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने कबीर-काव्य का मूल्यांकन करते हुए कहा है कि-"कबीर का काव्य बहुत स्पष्ट और प्रभावशाली है। यद्यपि कबीर ने पिंगल और अलंकार के आधार पर काव्य-रचना नहीं की तथापि उनकी काव्यानुभूति इतनी उत्कृष्ट थी कि वे सरलता से महाकवि कहे जा सकते हैं। कविता में छन्द और अलंकार गौण है, संदेश-प्रधान है। कबीर ने अपनी कविता में महान संदेश दिया है। उस सन्देश को प्रकट करने का ढंग अलंकार से युक्त न होते हुए भी काव्यमय है।" कबीरजी का साहित्य तीन प्रवृत्तियों पर आधृत है-प्रेमानुभूति संबंधी, सामाजिकता संबंधी और साधना-पद्धति संबंधी। कबीर वास्तव में हमारे सामने साहित्यिक दृष्टिकोण से सर्वश्रेष्ठ नहीं प्रतीत होते हैं और न ही उनकी भाषा को परिष्कृत तथा अलंकृत ही मान सकते हैं। आलोच्य दोहों में प्रेम, ज्ञान, सत्गुरु आदि विषयों को आधार बनाया गया है पहले दोहे में प्रेम की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि यह संसार बड़ी-बड़ी ज्ञान की पुस्तकें पढ़-पढ़ कर मर गया, परन्तु, अभी तक कोई भी पंडित नहीं हुआ है। अर्थात् ज्ञान की बहुत सारी बातें भले ही जान गया हो, पर 'प्रेम' जैसे ढाई अक्षर के रहस्य को अभी भी कोई नहीं जान पाया है। यह प्रेम मनुष्य से भी हो सकता है, ईश्वर से भी हो सकता है, मगर इसको पाने में अभी मनुष्य निष्फल है। प्रेम दुनिया की अनमोल चीज है, जिसे जानना अत्यंत अनिवार्य है। यह अपने में सहज एवं गूढ़ अर्थ को समेटे हुए है। मगर इसके महत्त्व को अभी कोई भी पंडित हो जाएगा। वही अपने में ज्ञानी कहलाएगा। इसमें कबीर ने ज्ञान की अपेक्षा प्रेम के महत्त्व को ही महत्त्व दिया है। प्रेम का अपने में गहन अर्थ एवं महत्त्व है। जो इसे जान लेगा, वही सच्चे अर्थ में पंडित है। दूसरे दोहे में मायाग्रस्त अज्ञानों मनुष्य को समझाने का प्रयास किया है जो यह सच्चाई नहीं जानता है कि ईश्वर सबके मन में बसा हुआ होता है। परन्तु वह मंदिर-मस्जिद में ढूँढ़ता फिरता है। वे उसे जानना चाहते हुए भी उसे जान नहीं पाते हैं। वे अपने मन में नहीं ढूंढ़ते हैं। हिरण की भी हालत यही है, वह जंगल में भागता रहता है, पर अपने अंदर नहीं देख पाता है, जबकि कस्तूरी उसी की नाभि में मौजूद होती है। यह सब माया मोह का फेर है। इसी की ओर कबीर संकेत करते हैं। हिरण की नाभि में कस्तूरी बसी हुई होती है, मगर उसे इसका पता नहीं होता है। वह उसकी सुगंध को पाता तो है परंतु उसे पता नहीं होता है कि वह कहाँ पर है ? वह इसी भ्रम में उसे पाने के लिए जंगलों में भागता रहता है। यह उसकी अज्ञानता का ही परिचायक है। वह इसी भ्रम में पड़ा रहता है। ठीक इसी तरह इंसान भगवान राम को मंदिर-मस्जिद, मक्का-मदीना तथा तीर्थ स्थानों में ढूँढ़ता रहता है, जबकि वह भगवान राम उसके मन के अंदर ही बसे हुए होते हैं। अपने मन में नहीं ढूँढ़ता है। यह वह माया-मोह की वजह से नहीं जान पाता है। भगवान हर जगह मौजूद हैं। मगर यह दुनियाँ उन्हें देख नहीं पाती है। इसको पाने के लिए वह इधर-उधर भकटती रहती है। इसमें कबीर ने आडम्बर ने आडम्बर पर चोट की है। भगवान को सभी जगह पर बसा हुआ कहा है। वे सर्वव्यापक एवं सार्वजनीन हैं। वे हर इंसान के शरीर में बसे हुए होते हैं।

तीसरे और चौथे दोहे में सत्गुरु की महत्ता बताई है जो ईश्वर का भी ज्ञान कराता है, माया से भी बचाता है। गुरु को वह ईश्वर से भी ऊँचा मानते हैं। उसे गुणी बताते हैं। इसी से ही मनुष्य का कल्याण सम्भव है। ऐसा वे मानते हैं। उस सच्चे गुरु को पाने पर वे अधिक बल देते हैं। वे कहते हैं-मनुष्य का यह शरीर जहर की बेल है, जो निरन्तर ज़हरीली बनकर फैलती है। इसमें उनको दोष एवं दुर्गुण दिखाई देते हैं। ये मानवीय विकार शरीर में बढ़ते-फैलते रहते हैं। एक दिन यही शरीर जहर में परिणत हो जाता है। मगर गुरू ही ऐसा प्राणी है जो अपने में अमृत के समान जीवन देता है। वह मनुष्य की कमियों को दूर करता है। उसमें पवित्रता एवं गुणों को उत्पन्न करता है। उसे सद्मार्ग दिखाता है। उसका कल्याण करता है। यदि वह जीवन में यदि मिल जाए तो इससे अच्छी एवं सस्ती बात और कोई हो नहीं सकती है। इसके लिए है मनुष्य ! तुझे अपना सिर भी काट कर देना पड़े तो उसे सबसे सस्ता मान ले। वह अपने में गुणों की खान है। अर्थात् वह गुणों का भंडार है। उसे पाने की कोशिश कर। वे आगे गुरू की महिमा करते हुए कहते हैं सात समुद्र के पानी को स्याही बना लो, सारे वनों की लकड़ी की कलम बना लो और पूरी धरती को कागज़ बना तब भी भगवान गुणों को लिखा नहीं जा सकेगा। भगवान अपने में गुणों की खान है। उनके सभी गुणों को लिखा ही नहीं जा सकता है। वे महिमामय एवं अपने में अनंत हैं। कबीर के कहने का अभिप्राय यह है कि भगवान के बारे में पूर्णतः लिखा ही नहीं जा सकता है। वे अपने में गुणों के भंडार हैं। ये सब चीजें कम पड़ जाएँगी।

पांचवे दोहे में साधुओं के स्वभाव को व्यक्त किया है, उन्होंने एक अच्छे स्वभाव वाले गुणी साधु की संगति करने पर बल दिया है, जो अपने में निर्मल एवं ज्ञानी हो। वह अपनी संगति से भक्त और शिष्य का भला कर सके। वह उसमें अच्छी-अच्छी बातें पैदा करे और दुर्गुणों को दूर कर सके। वे इसी संबंध में कहते हैं। इस संसार में हमें ऐसा साधु मिलना चाहिए जो हमारा कल्याण कर सके। हमें सद्मार्ग पर ले जा सके। हमें हमारे विकारों के बारे में बता कर उन्हें दूर कर सके। वह अपने में विनम्र, ज्ञानी तथा सात्त्विक विचारों को ग्रहण किए हुए हो। वह अपने भक्तों एवं शिष्यों का भला कर सके। वह उन्हें जीवन की वास्तविकता का बोध करा सके। उसका स्वभाव निर्मल एवं प्रिय हो। वह सभी से प्रेम करे और उन्हें अच्छे व्यवहार एवं चरित्र को बनाए रखने का ज्ञान दे। वह हमारे मन में अच्छी-अच्छी बातें पैदा करके हमारा मार्ग प्रशस्त करे। हमारी कतिमयों एवं दोषों को दूर करे। वह उन्हें उड़ाने का काम करे।

अंतिम दोहे में पुनः सत्यगुरु की महत्ता बताई है कि सत्यगुरु की कृपा से ही आत्मा का कल्याण होता है वे कहते हैं कि सतगुरु ने प्रसन्न होकर मुझसे एक ऐसा प्रसंग कहा कि प्रेम का बादल बरस गया और मेरा सारा शरीर उससे भीग गया। कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान अपने में शक्तिशाली जीवन दायक तथा दया करने वाले हैं। वे जब तक प्रसन्न नहीं होंगे तब तक भक्त या मनुष्य का कल्याण संभव नहीं है। भक्त का कर्त्तव्य है कि वह अपनी भक्ति से उन्हें प्रसन्न करे। यदि वे उससे प्रसन्न हो जाते हैं तो वे उस पर अपनी प्रेम-वर्षा कर देंगे। इस तरह उसका कल्याण हो जाएगा। कबीर कहते हैं कि मेरे शरीर का हर अंग प्रेम-रूपी बादल के बरसने से भीग गया है। मेरा मन बहुत प्रसन्नचित है। मेरा जीवन ईश्वर की कृपा से सराबोर है। इसमें ईश्वर भक्ति पर बल दिया गया है। ईश्वर की कृपा से ही उसका कल्याण संभव है।

 

अथवा

कबीर के जीवन वृत्त के संबंध में विद्वान सभी तक किसी निश्चित मत पर पहुँच जाते हैं। हिन्दी साहित्य की अन्य प्राचीन विभूतियों के समान उनके जन्म स्थान, जाति, परिवार तथा गुरू आदि के संबंध में प्रामाणिक साक्ष्य के में, किसी तर्क सम्मत जीवन चरित्र की रूप रेखा अपने तक नहीं बन पाई अतः साक्ष्य, संत साहित्य किवंदतियाँ एवं इतिहास समस्त घटनाओं के आधार उनका जो जीवन वृत्त निर्मित होता है वह निम्नलिखित है। कबीर के जन्म के बारे में कहा गया है।

चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ भये।

जेठ सुदी बरसायत को, पूरनमासी प्रकट भए

 

अर्थात् कबीर का जन्म संवत 1455 में हुआ। लेकिन अनेक दोहों के अनुसार कबीर की मृत्यु क्रमशः संवत् 1575, 1539 और 1569 ठहरती है। इनमें सवत् 1575 वाली तिथि ही अधिक और एतिहासिक दृष्टि से शुद्ध प्रमाणित होती है।

उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी जन्मभूमि के विषय में कुछ नहीं लिखा। उन्होंने जगह-जगह अपने निवास सथान का ही उल्लेख किया है। उनके स्थान के विषय में महगर (बस्ती जिला) काशी और बेलहरा (आजमगढ़) का लिया जाता है।

कबीर पंथियों के अनुसार, सत्य पुरूष का तेज काशी के लहर तालाब उतरा अथवा किसी ताल में रहन के पत्ते पर पौढ़ा हुआ बालक नीरू जुलाहे स्त्री को काशी नगर के निकट मिला था। परंतु बनारस डिसिट्रक्ट गजेटियर कबीर का जन्म बेलहरा गाँव में होना बताया गया है क्योंकि बेलहरा का और कोई प्रमाण मिलता किंतु पंडित चन्द्रबली पाण्डे बेलहर के पक्ष में हैं। डॉ. त्रिगुणायत मन को ही कबीर का जन्मस्थान मानने के पक्ष में हैं, परंतु उनका मगहर काशी स्थान वर्णित है। अधिकांश जनमत काशी को ही उनका जन्म स्थान मानता है। हो सकता है वह काशी का ही मगहर हो। कबीर ने भी जगह-जगह अपने को जुलाहा कहा है। धर्मदास आदि पुराने लेखक भी काशी को ही संगत और समीचीन मानते हैं।

जन्म स्थान की तरह कबीर ने अपने माता-पिता का भी कहीं उल्लेख नहीं है। जनश्रुति के अनुसार काशी के साथ मवतः ही यह बात जुड़ जाती है कि का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था. परंतु पालन पोषण नीरू नीमा नामक जुलाहा दम्पति के यहाँ हुआ था कबीर अपनी माँ के कारण बड़े दुखी थे उनका कहना था कि

मुसि मुसि रोवै कबीर की माई।

इन पंक्तियों में कबीर के जूलाहा या कोरी होने का संकेत मिलता है। स्थान जुलाहा के काम के आने वाले सभी शब्दों का प्रयोग, उन्होंने उपमाओं को आदि के रूप में किया है। वे जुलाहा थे यह स्पष्ट होता है, लेकिन होता है कि उनकी जाति क्या थी। वे कोरी थे या जुलाहा? जुलाहा मुसलमान कोरी हिंदू होते हैं। पेशा दोनों का कपड़ा बुनना होता है। इस संबंध में अनेक मत हैं।

कबीर की जाति कुछ भी हो, वे गृहस्थी थे और उनका विवाह हुआ कहा जाता है कि उनकी पत्नी का नाम लोई था। उनके कमाल तथा कमाली नामक दो बच्चे थे। जिनमें से केवल कमाल ही बच रहा था। कबीर के अनुसार उसी ने कबीर के वंश को डुबाया था, क्यों उसकी रूचि धन कमाने में थी।

कबीर पंथी लोग कबीर को अविवाहित सिद्ध करते हैं। वे कमाली को शेख तुर्की की पुत्री बताते हैं, जिससे कबीर ने उसके मरने के आठ दिन बाद जीवन प्रदान किया था। वह उनकी गोद ली हुई पुत्री थी और कमाल पोष्य पुत्र एवं शिष्य है। माता पिता के समान कबीर ने अपने गुरू का कोई कहीं नाम नहीं लिया किंतु कबीर ने बार-बार उल्लेख कर उसके प्रति अपार श्रद्धा प्रकट की है। इससे उसका कोई गुरू अवश्य था। इस संबंध में कबीर का गुरू रामानंद को माना जाता है।

कबीर साहित्य के अध्ययन से यह पता चलता है कि पढ़े लिखे न होने पर भी सत्य के अन्वेषी थे। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने देश देशानतरों का भ्रमण किया और कपड़ा बुनने के मामूली व्यवसाय को लेकर संतोष किया। इससे उनका जीवन सदा बना रहा और और सत्य दर्शन में कोई बाधा उपस्थित नहीं हुई। अपने अस्तित्व का बोध वे इस सीमा तक कर पाये कि झीनी चदरिया को ओड़कर ज्यों का त्यों एक दिन उठाकर रख दिया। इसी सत्य दर्शन की खोज में लगे रहने के स्थान-स्थान पर अपने अनेक प्रमाण मिलते हैं। जहाँ भी वे गये, प्रमाण स्वयं उसके अवशेष अब भी प्राप्त होते हैं। अपनी इस यात्रा उनका उद्देश्य तीर्थयात्रा हज या पर्यटन का नहीं था, वे न केवल सत्य की खोज में इधर-उधर घूमते रहे। उन्होंने इस आरय का संकेत अपने इस पद में किया है।