Hindi B

Question 1

किन्हीं तीन अवतरणों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए।

(क)  यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान

शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान

(ख)        बतरस-लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ

सौंह करें भौहनु हंसें, बैन कहँ नटि जा॥

 

Solution

प्रसंगसंदर्भानुसार- प्रस्तुत दोहा भक्तिकालीन निर्गुण काव्यधारा के संतकवि कबीरदास द्वारा रचित 'कबीर ग्रंथावली' से अवतरित है। कबीर संत, समाज सुधारक, भक्त, साधक आदि बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी हैं उन्होंने सहज, सरल भाषा में अपने विचार प्रस्तुत किए हैं।

व्याख्या- कबीरदास ने ईश्वरीय ज्ञान देने वाले सत्गुरु की वंदना की है। इस साखी में कबीर कहते हैं कि यह देह जहर की बेल की भांति है जिससे कुछ भला नहीं होने वाला है। यह घातक है। वे कहते हैं कि सत्गुरू ही एक मात्र अमृत का भंडार है। वही इस बेल के दुष्प्रभाव से बचा सकते हैं अतः ऐसे ज्ञानी, सच्चे गुरु को यदि सीस देकर भी पाया जाए तो भी यह सौदा सस्ता होगा।

विशेष-  1. दोहा छंद है।

  1. कबीर के दोहे 'साखी' नाम से प्रसिद्ध है।

3.कबीर की भाषा सधुक्कड़ी है।

4.शब्दावली की दृष्टि से अर्द्धतत्सम शब्दावली है।

  1. ज्ञानवर्द्धक विचार व्यक्त है।
  2. उपदेशात्मक शैली है।
  3. बिंबात्मकता है।
  4. लयात्मकता है।

9.मनुष्य देह मायाग्रस्त होने के कारण नश्वर होने के कारण विष की बेल है।

10.सीस देने का अर्थ अहं त्याग से है।

  1. मीरा ने भी कृष्ण को मोल लिया था और अपना सौदा सस्ता बताया था।
  2. तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान-रूपक अलंकार है।
  3. सत्गुरु की महत्ता है।

अथवा

पद कमल धोइ चढ़ाई नाव नाथ उतराई चहौं।

मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ्य सब साँची कहौं।

बरु तीर मारहूँ लखनु पै जब लगि पाँय पखारिहौं

तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं ।

प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण 'केवट प्रसंग' से लिया गया है जिसके कवि तुलसीदास हैं।

व्याख्या- इन पंक्तियों में राग और केवल को बीच चल रहे प्रसंग (संवाद) को कवि ने प्रस्तुत किया है। केवट राम जी से कहता है कि जब तक मैं आपके कमल रूपी चरणों को नहीं भी लेता तब तक मैं अपनी नाव पर आपको नहीं चढ़ाऊँगा। केवट कहता है मैं आपके मान और दशरथजी की शपथ खाकर कहता हूँ कि बिना पांव धोये में अपनी नाव पर नहीं चठाऊँगा। चाहे लक्ष्मण मेरी इस पृष्टता पर मुझे तीर मार दे लेकिन मैं बिना पाँव पखारे आपको अपनी नाव पर नहीं चढ़ाऊँगा। तब तक तुलसी के स्वामी श्रीराम मैं आपको पार नहीं उतारूँगा।

विशेष- (1) केवट की भक्ति भावना है।

(2) चौपाई छंद है।

(3) अवधी भाषा हैं।

प्रसंगसंदर्भानुसार- प्रस्तुत दोहा रीतिकालीन रीतिसिद्ध कवि बिहारी द्वारा रचित 'सतसई' से अवतरित है। बिहारी ने शृंगार विषय को आधार बनाकर सर्वाधिक दोहे लिखे हैं जिसमें से एक यहाँ प्रस्तुत है। बिहारी अपने कला कौशल के लिए दक्ष है।

व्याख्या- इस दोहे में बिहारी ने नायक श्रीकृष्ण और नायिका श्रीराधा को बीच की प्रेममयी अरुखेलियों का वर्णन किया है। श्रीराधा कृष्ण से मिलने बात करने के लिए आतुर है। इसलिए उसने श्रीकृष्ण की बाँसुरी को बड़ी ही चतुराई के छिपाने की कोशिश की है। उसने उनसे मिलने और बात करने की वजह से ही ऐसा किया है। उसके मन में उनसे मिलने की लालच उत्पन्न हो गया है। इसी वजह से उनकी प्रिय बाँसुरी को अपनी चतुराई से दिपा दिया है। जब नायक श्रीकृष्ण ने उससे बाँसुरी माँगी तो वह अपने भौंहों के संकेत से मना करना है कि उसने बाँसुरी नहीं ली है। वह अपने भौंहों से मना कर देती है। वह नट जाती है कि उसने उसकी बाँसुरी नहीं जी है। इस पर श्रीकृष्ण उसको कसम खाने पर हँस पड़ते हैं। वह नायिका भी मन-ही-मन में हँस रही है। जबकि उसने ही उनकी बाँसुरी को छिपाया है। अतः उसकी चोरी स्वयं उसका भेद खोल रही है।

विशेष -            1. ब्रजभाषा है।

  1. दोहा छंद है।
  2. शृंगार रस है।
  3. माधुर्य गुण है।
  4. वैदर्भी रीति है।
  5. बिंबात्मकता लयात्मकता है।
  6. लालच लाल-अनुप्रास अलंकार है।
  7. अनुभाव योजना द्रष्टव्य है।

अथवा

यह मेरी गोबी की शोभा

सुख सुहाग की है लाली।

शाही शान भिखारिन की है।

मनोकामना मतवाली

प्रसंगसंदर्भानुसार- प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रसिद्ध राष्ट्रवादी कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा रचित कविता 'बालिका का परिचय' से अवतरित है। सुभद्रा जी ने जीवन को आशावादी, उल्लासमयी रूप में लिया है। उनकी कविताएँ पुरूष प्रधान समाज के बीच स्त्री की अभिता और आत्मशक्ति को प्रकट करती है। बालिका का परिचय कविता में उन्होंने बेटियों के संबंध में उभरती नई सामाजिक सोच को प्रस्तुत किया है। वे एक बेटी पाकर सबसे खुश महसूस करती है। गौरव महसूस करती है। अतः वही उमंग उल्लास और खुशी इस कविता के माध्यम से अभिव्यंजित हुई है।

व्याख्या- कविता की इन पंक्तियों में सुभद्राकुमारी बेटी को पाकर होने वाली अपनी खुशी को व्यक्त करते हुए कह रही है कि यह बालिका मात्र बालिका नहीं यह बालिका तो मेरी गोदी की शान है। यह मेरे सौभाग्यशाली अर्थात् सुहाग की लालिमा के रूप में प्रमाण है। मुझे माँ होने का गौरव इसी ने बढ़ाया है। यह मुझे जैसे गरीब भिखारिन का राजसी-रूप है। यह मेरे मन की कामना के अनुसार मेरी इच्छा है। इसे पाकर मैं अपने में मस्त हो गयी हूँ। यह मेरा वैभव है। इतना ही नहीं यह मेरे अँधकार पूर्ण जीवन की दिये के समान प्रकाशमान रूप में चमकने वाली घनघोर घटाओं में चमकने वाली बिजली है, जो सारे आकाश को प्रकाश से चमका देती है। सुबह के समय सूर्य उगने से पहले चंद्रमा की चाँदनी का सफेद प्रकाश चारों तरफ फैला हुआ होता है। उस समय कमल के फूल पर मंडराने वाला भँवरा उसके चारों ओर चक्कर लगाता है। वैसे ही यह बालिका मेरे चारों ओर मंडराती रहती है। जिसे देखकर में मन-ही-मन खुश होती हूँ। यह मेरे सूखे और उजाड़ जीवन में हरी-भरी खुशी उत्पन्न करने वाली है। बालिका मेरे जीवन का आधार है। इसके आने से मेरे जीवन में खुशी उत्पन्न हो गई है। यह बालिका मेरे जीवन में अमृत की धारा बहाने वाली है। उसने मेरे जीवन में, जिसमें उदासी है, खुशी पैदा करने वाली है। मैं इसे पाकर खुश हूँ। कवयित्री बालिका को अपने पतझड़-रूसी जीवन में हरियाली लाने वाले वसंत के समान मानती है। मेरी साधना के मूल में मस्ती पैदा करके इसने मुझे तपस्वी बना दिया है। कहने का तात्पर्य यह है कि इसके माध्यम से तपस्वी के आनंद की अनुभूति को बालिका के माध्यम से प्राप्त होने की बात कही गई है। इसमें सच्चे मन से मनन करने वाली साधना है या लगन है। यह हमेशा सोचती रहती है। यह उसी तरह से नटखटपन तथा खेल करती है, जिस तरह से मैं अपने जीवन में करती थी। यह उन्हीं की याद है। यह अपने में खेल-कूद करने वाली बालिका है, जो बाग में खिलने वाले फूलों की तरह मुस्क रहती है। फूल भी अपनी डाली पर मस्ती में अठखेलियाँ करते हैं। यह भी उसी तरह से मचलती फिरती है। उसका शोर-गुल इसके नटक्षटपन का प्रमाण है। इसमें संदेह नहीं है कि यह हरे-भरे बाग की तरह खिलने वाली है। यह अपने में मद-मस्त है। यह मुझे बालिका नही चलती फिरती, जीवंत लघु नाटिका सी लगती है। जिसमें विभिन्न भावों को देखकर में आनंदित होती हूँ।

विशेष -

  1. गीतात्मकता है।
  2. बिंबात्मकता है।
  3. बेटी के प्रति एक माँ के सहज भाव व्यक्त है।
  4. कवयित्री बेटी की भाव भंगिमाओं पर लुब्ध है।
  5. खड़ी बोली का लयात्मक प्रयोग है।
  6. तत्सम शब्दावली की प्रधानता है।
  7. सुख सुहाग, शाही शान, मनोकामना मतवाली मस्ती मगन आदि में अनुप्रास अलंकार है।
  8. बेटी के लिए विभिन्न प्राकृतिक उपमान जुटाए है।
  9. 'हँसती हुई नाटिका' प्रतीकात्मक प्रयोग है।
  10. वात्सल्य वर्णन है।

Question 2

कबीर अथवा तुलसी का साहित्यिक परिचय दीजिए।

Solution

कबीर के जीवन वृत्त के संबंध में विद्वान सभी तक किसी निश्चित मत पर पहुँच जाते हैं। हिन्दी साहित्य की अन्य प्राचीन विभूतियों के समान उनके जन्म स्थान, जाति, परिवार तथा गुरू आदि के संबंध में प्रामाणिक साक्ष्य के में, किसी तर्क सम्मत जीवन चरित्र की रूप रेखा अपने तक नहीं बन पाई अतः साक्ष्य, संत साहित्य किवंदतियाँ एवं इतिहास समस्त घटनाओं के आधार उनका जो जीवन वृत्त निर्मित होता है वह निम्नलिखित है। कबीर के जन्म के बारे में कहा गया है।

चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ भये।

जेठ सुदी बरसायत को, पूरनमासी प्रकट भए

 

अर्थात् कबीर का जन्म संवत 1455 में हुआ। लेकिन अनेक दोहों के अनुसार कबीर की मृत्यु क्रमशः संवत् 1575, 1539 और 1569 ठहरती है। इनमें सवत् 1575 वाली तिथि ही अधिक और एतिहासिक दृष्टि से शुद्ध प्रमाणित होती है।

उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी जन्मभूमि के विषय में कुछ नहीं लिखा। उन्होंने जगह-जगह अपने निवास सथान का ही उल्लेख किया है। उनके स्थान के विषय में महगर (बस्ती जिला) काशी और बेलहरा (आजमगढ़) का लिया जाता है।

कबीर पंथियों के अनुसार, सत्य पुरूष का तेज काशी के लहर तालाब उतरा अथवा किसी ताल में रहन के पत्ते पर पौढ़ा हुआ बालक नीरू जुलाहे स्त्री को काशी नगर के निकट मिला था। परंतु बनारस डिसिट्रक्ट गजेटियर कबीर का जन्म बेलहरा गाँव में होना बताया गया है क्योंकि बेलहरा का और कोई प्रमाण मिलता किंतु पंडित चन्द्रबली पाण्डे बेलहर के पक्ष में हैं। डॉ. त्रिगुणायत मन को ही कबीर का जन्मस्थान मानने के पक्ष में हैं, परंतु उनका मगहर काशी स्थान वर्णित है। अधिकांश जनमत काशी को ही उनका जन्म स्थान मानता है। हो सकता है वह काशी का ही मगहर हो। कबीर ने भी जगह-जगह अपने को जुलाहा कहा है। धर्मदास आदि पुराने लेखक भी काशी को ही संगत और समीचीन मानते हैं।

जन्म स्थान की तरह कबीर ने अपने माता-पिता का भी कहीं उल्लेख नहीं है। जनश्रुति के अनुसार काशी के साथ मवतः ही यह बात जुड़ जाती है कि का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था. परंतु पालन पोषण नीरू नीमा नामक जुलाहा दम्पति के यहाँ हुआ था कबीर अपनी माँ के कारण बड़े दुखी थे उनका कहना था कि

मुसि मुसि रोवै कबीर की माई।

इन पंक्तियों में कबीर के जूलाहा या कोरी होने का संकेत मिलता है। स्थान जुलाहा के काम के आने वाले सभी शब्दों का प्रयोग, उन्होंने उपमाओं को आदि के रूप में किया है। वे जुलाहा थे यह स्पष्ट होता है, लेकिन होता है कि उनकी जाति क्या थी। वे कोरी थे या जुलाहा? जुलाहा मुसलमान कोरी हिंदू होते हैं। पेशा दोनों का कपड़ा बुनना होता है। इस संबंध में अनेक मत हैं।

कबीर की जाति कुछ भी हो, वे गृहस्थी थे और उनका विवाह हुआ कहा जाता है कि उनकी पत्नी का नाम लोई था। उनके कमाल तथा कमाली नामक दो बच्चे थे। जिनमें से केवल कमाल ही बच रहा था। कबीर के अनुसार उसी ने कबीर के वंश को डुबाया था, क्यों उसकी रूचि धन कमाने में थी।

कबीर पंथी लोग कबीर को अविवाहित सिद्ध करते हैं। वे कमाली को शेख तुर्की की पुत्री बताते हैं, जिससे कबीर ने उसके मरने के आठ दिन बाद जीवन प्रदान किया था। वह उनकी गोद ली हुई पुत्री थी और कमाल पोष्य पुत्र एवं शिष्य है। माता पिता के समान कबीर ने अपने गुरू का कोई कहीं नाम नहीं लिया किंतु कबीर ने बार-बार उल्लेख कर उसके प्रति अपार श्रद्धा प्रकट की है। इससे उसका कोई गुरू अवश्य था। इस संबंध में कबीर का गुरू रामानंद को माना जाता है।

कबीर साहित्य के अध्ययन से यह पता चलता है कि पढ़े लिखे न होने पर भी सत्य के अन्वेषी थे। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने देश देशानतरों का भ्रमण किया और कपड़ा बुनने के मामूली व्यवसाय को लेकर संतोष किया। इससे उनका जीवन सदा बना रहा और और सत्य दर्शन में कोई बाधा उपस्थित नहीं हुई। अपने अस्तित्व का बोध वे इस सीमा तक कर पाये कि झीनी चदरिया को ओड़कर ज्यों का त्यों एक दिन उठाकर रख दिया। इसी सत्य दर्शन की खोज में लगे रहने के स्थान-स्थान पर अपने अनेक प्रमाण मिलते हैं। जहाँ भी वे गये, प्रमाण स्वयं उसके अवशेष अब भी प्राप्त होते हैं। अपनी इस यात्रा उनका उद्देश्य तीर्थयात्रा हज या पर्यटन का नहीं था, वे न केवल सत्य की खोज में इधर-उधर घूमते रहे। उन्होंने इस आरय का संकेत अपने इस पद में किया है।

अथवा

तुलसीदास हिन्दी के सर्व श्रेष्ठ कवि हैं। वे महानतम लोकनायक एवं लोक-सेवक, मध्यकालीन भारत की आत्मा तथा हिन्दी भाषा के प्राण हैं। तुलसीदास भारत के वाल्मीकि, व्यास, कालिदास तथा पश्चिम के होमर, दांते, शेक्सपीयर के स्तर के विश्वकवि हैं। उनका 'रामचरितमानस' रामायण एवं महाभारत के पश्चात् भारतीय वाड्मय में भक्तिमार्ग का सर्वश्रेष्ठ काव्य है।

हिन्दी के मध्ययुगीन अन्य कवियों की भांति तुलसीदास की जीवनवृत्त स बन्धी सामग्री के स बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। तुलसी के जन्म, परिवार, मृत्यु आदि के विषय में विभिन्न धारणाएं व्यक्त की जाती हैं। अन्त: साध्य तथा बाह्यसाक्ष्य के आधार पर तुलसी का जन्म संवत् 1589 (सन् 1532) तथा मृत्यु संवत् 1680 (सन् 1623) माना जाता है। इनकी मृत्यु -तिथि के स बन्ध में नि नलिखित दोहा प्रचलित है-

संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।

श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यौ शरीर

 

आधुनिक विद्वान् इनकी 'मृत्यु-तिथि सावन कृष्णा तीज शनि' मानते हैं। कहा जाता है तुलसी के मित्र टोडर के वंशज आज तक इस तिथि को उनकी वर्षी मनाते रहे हैं। 'मूल गोसाईं चरित' में भी इसी तिथि को तुलसीदास की मृत्यु-तिथि माना गया है। प्राप्त सामग्री के आधार पर कहा जा सकता है कि तुलसी का जन्म राजापुर (जिला बाँदा) में हुआ। कतिपय विद्वान् तुलसी का जन्म-स्थान सूकर क्षेत्र (सोरों) मानते हैं, परन्तु पहले मत को अधिक मान्यता प्राप्त है। इनकी माता का नाम हुलसी तथा पिता का नाम आत्माराम दुबे था।

तुलसी के जन्म के विषय में यह किंवदन्ती प्रचलित है कि अयुक्त मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण, उनके मुँह में दाँत देखकर, शरीर अपेक्षाकृत बहुत बड़ा देखकर तथा जन्म लेते ही 'राम' नाम का उच्चारण करने के कारण उनके माता-पिता ने उन्हें त्याग दिया। इनका लालन-पालन चुनिया नामक दासी ने किया था, किन्तु दुर्भाग्यवश वह भी सांप के काटने से मर गई। तब उनका पालन अनन्त राम के शिष्य नरहरि ने किया था। जन्म के समय 'राम' नाम का उच्चारण करने के कारण इनका बचपन का नाम 'रामबोला' पड़ा।

इस महान् उद्देश्य के कारण तुलसी का मानस जन-जन का कण्ठहार बन गया है। निस्सन्देह तुलसी का रामचरितमानस हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है।

  1. विनयपत्रिका— तुलसी-साहित्य में 'रामचरितमानस' के पश्चात् 'विनय पत्रिका' का स्थान है। काव्य-कला की दृष्टि से यह तुलसीदास की श्रेष्ठ रचना है। भक्ति की दृष्टि से भी इसका महत्त्व अधिक है। भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, संसार की असारता से स बन्धित तुलसी के मार्मिक उद्गार इस पत्रिका में मिलते हैं। यह कवि की विनय-भाव से आपूरित पत्रिका है। इसमें कवि- भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति हुई है। इसकी रचना गीत-शैली में की गई है। इसमें 279 पद हैं। यह तुलसी की ब्रज-भाषा की रचनाओं में सर्वोत्तम है।
  2. कवितावली - इसमें सात काण्ड हैं और 325 पद्य हैं जो कि कवित्त, सवैया, छप्पय आदि छन्दों में रचे गये हैं। उत्तरकाण्ड की कथा सबसे अधिक विस्तृत है। इस एक ही काण्ड में 183 छन्द हैं। इसमें कवि ने राम के जीवन-स बन्धी घटनाओं तथा ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि के पदों का संग्रह किया है। कला की दृष्टि से इसका महत्त्व गीतावली के समकक्ष है। कवितावली के अन्त में ही 'हनुमान बाहुक' के अनेक अंश संगृहीत हैं। यह हनुमान की स्तुति से स बन्धित पदों का संग्रह है। इसकी रचना कवि ने बाहु-पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए की थी।
  3. दोहावली – 'दोहावली' भक्ति, नीति, नाम-महिमा, प्रेम, अध्यात्म आदि विविध विषयों से सबन्धित 573 दोहों की रचना है। ये दोहे कवि की विभिन्न रचनाओं से लिए गये हैं। इसमें चातक की एकनिष्ठा से स बन्धित दोहे अत्यन्त सुन्दर तथा भावपूर्ण हैं।
  4. गीतावली - इसमें सात काण्ड तथा 328 पद हैं। विषय रामकथा है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने इसे 'सूरसागर' से प्रभावित माना है। इसमें वत्सल रस का समावेश भी इसी प्रभाव के कारण हुआ है, किन्तु सूरसागर की तुलना में यह रचना हल्की ठहरती है। इसकी भाषा ब्रजभाषा है। 'गीतावली' गीति- कला की दृष्टि से एक सफल कृति है।
  5. जानकी मंगल- इसमें 216 पद्यों में राम और सीता के विवाह का वर्णन किया गया है। इसकी भाषा अवधी है। यह वर्णनात्मक शैली में रची गई है।
  6. पार्वती मंगल – इसमें शिव-पार्वती के विवाह का वर्णन है। इसका आधार 'शिवपुराण' है।
  7. रामलला नहछू— इसमें राम के यज्ञोपवीत का वर्णन है जो विवाह के अवसर का है। यह शृंगारिक रचना है। इस रचना में लोक-गीतों की प्रश्नोतर-शैली का मनोरम रूप मिलता है। इसमें 13 द्विपदियाँ हैं।
  8. रामाज्ञा प्रश्न - इसमें 7 सर्ग हैं। प्रत्येक सर्ग में सात सप्तक तथा प्रत्येक सप्तक में सात दोहे हैं। इस प्रकार इसके कुल दोहों की सं या 343 है। इसका विषय रामकथा है। रामकथा के बहाने तुलसी ने शुभाशुभ शकुनों पर विचार किया है।
  9. कृष्ण गीतावली - कृष्ण गीतावली में कृष्णा-चरित्र स बन्धी पद हैं। यह रचना भी 'सूरसागर' के अनुकरण पर की गई है। कृष्णा-चरित्र के वर्णन में भी कवि ने अपनी मर्यादा-प्रवृत्ति का पूर्ण ध्यान रखा है। गीति-काव्य की दृष्टि से 'कृष्ण गीतावली' 'गीतावली' की अपेक्षा अधिक सफल है।
  10. बरवै रामायण- इसमें सात काण्ड तथा 69 छन्द हैं। इसमें रामकथा वर्णित है। इसमें अलंकार-ज्ञान का प्रदर्शन किया गया है। कलात्मक दृष्टि से बरवै रामायण महत्त्वपूर्ण है।
  11. वैराग्य संदीपनी- इसमें 62 छन्द हैं। इसका विषय राम महिमा, संत-स्वभाव तथा ज्ञान-वैराग्य की चर्चा है। इसमें तुलसी का झुकाव संत-मत की ओर दिखाई देता है। इसमें दोहा, चौपाई, सोरठा छन्द का प्रयोग किया गया है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त इसे अप्रामाणिक रचना मानते हैं।

काव्य-रूप की दृष्टि से रामचरितमानस, रामलला नहछू जानकी मंगल तथा पार्वती-मंगल प्रबन्ध-काव्य हैं। वैराग्य-संदीपनी, बरवै रामायण, रामाज्ञा प्रश्न, दोहावली तथा कवितावली मुक्तक काव्य हैं। गीतावली, कृष्ण गीतावली तथा विनय-पत्रिका गीति-काव्य के अन्तर्गत आती हैं। इस प्रकार तुलसी ने सभी काव्य-रूपों पर अपनी लेखनी चलाई है। गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी के सर्व श्रेष्ठ कवि हैं। तुलसी केवल महाकवि ही नहीं थे, वे महाकवि होने के साथ-साथ उच्च कोटि के भक्त, समाज-सुधारक तथा लोकनायक भी थे। तुलसी की इन्हीं विशेषताओं के कारण आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी विश्व के इतिहास में इनका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं मानते। आचार्य शुक्ल भी गोस्वामी जी के प्रादुर्भाव को हिन्दी काव्य-क्षेत्र में चमत्कार मानते हैं। वस्तुतः तुलसी हिन्दी के सर्वाधिकदेदीप्यमान नक्षत्र हैं, जिसका प्रकाश समस्त हिन्दी साहित्याकाश को प्रतिभासित किये हुए है। तुलसी का काव्य अगाध रत्नाकार की भांति है जिसमें विषय-व्यापकता, भाषा-परिमार्जन, शैलियों की विविधता, प्रबन्ध कौशल, समन्वय भावना आदि अनेक रत्नों की राशि विद्यमान है। इन्हीं विशेषताओं के कारण हिन्दी कवियों में तुलसी का स्थान मूर्धन्य है।

विषय-व्यापकता - तुलसी के काव्य का विषय क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। जहाँ वीरगाथा काल के कवियों ने केवल वीर और शृंगार रस प्रधान रचनाएं कीं, सन्तों का काव्य लौकिक-पक्ष से अछूता रहा, सूफी कवि केवल प्रेम के ही गायक रहे और कृष्ण-भक्त कवियों ने कृष्ण के केवल लोकरंजक रूप का ही लीलागान किया है, वहाँ तुलसी ने जीवन के किसी अंग विशेष का चित्रण न कर स पूर्ण जीवन की झाँकी प्रस्तुत की है। जीवन की विविध दशाओं एवं वृतियों का अंकन तुलसी के काव्य में सफलतापूर्वक हुआ है। तुलसी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी सर्वतो-मुखी प्रतिभा।

इनके प्रारीभक गुरु नरहरि ही थे जिनसे इन्होंने रामकथा सूकरखेत (शूकर क्षेत्र) में सुनी थी। नरहरि के साथ अनेक तीर्थों की यात्रा करते हुए ये काशी पहुँचे। वहाँ नरहरि ने इनको विद्याध्ययन के लिए महात्मा शेष-सनातन के पास छोड़ दिया। जहाँ इन्होंने वेद, शास्त्र दर्शन, पुराण आदि का ज्ञान प्राप्त किया।

तुलसीदास का विवाह रत्नावली नामक सुन्दर कन्या से हुआ था। वे अपनी पत्नी के रूप, विद्या आदि गुणों पर इतने आसक्त थे कि उसके बिना एक पल नहीं रह सकते थे। एक बार इनकी पत्नी बिना बताए मायके चली गई तो ये प्रेमान्ध हो आँधी-पानी की परवाह किये बिना उसके पास पहुँचे। पत्नी विदुषी थी। उसने इनकी इस आसक्ति पर इन्हें फटकारते हुए कहा था

लाज न आवत आपको दौरे आएहु साथ।

धिकू धिकू ऐसे प्रेम को, कहा कहाँ में नाथ ॥

अस्थि- चर्ममय देह सम, तामें जैसी प्रीति ।

जैसी जो श्रीराम महं होति न तौ भव भीति ॥

 

इस फटकार से तुलसी के ज्ञान-चक्षु खुल गये। उन्हें गृहस्थ जीवन से वैराग्य हो गया और वे राम-भक्त हो गये। गृहस्थ-जीवने के त्याग के उपरान्त तुलसी का अधिकांश जीवन देशाटन में व्यतीत हुआ। काशी तथा चित्रकूट उनके प्रिय स्थान थे। अयोध्या में उन्होंने 'मानस' की रचना की थी। जनश्रुतियों के अनुसार उनका ब्रज-गमन भी मानसिंह प्रसिद्ध है। महाकवि तुलसी को अपने जीवन में कई मित्रों से विशेष स्नेह मिला था। उनमें से रहीम, टोडरमल तथा उल्लेखनीय हैं। 1623 ई. में इनका देहावसान हो गया।

व्यक्तित्व- तुलसी की कृतियों से उनके व्यक्तित्व पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है। वे अपने इष्टदेव में अगाध विश्वास तथा एकनिष्ठ भक्ति रखते थे। उनकी वाणी में सर्वत्र आशा और विश्वास था,