Hindi B

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Question 1

निम्नलिखित की सप्रसंग व्याख्या कीजिए:

(क)        पोथी पड़ि पड़ जग मुवा, पंडित भया न कोई ।

एकै आषिर पीव का, पढ़ सु पंडित होइ ।

अथवा

जासु नाम सुमरत एक बारा । उतरहि नर भवसिंधु अपारा॥

सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगह ते थोरा ॥

(ख)        या अनुरागी चित्त की गति समुझे नहि कोई।

ज्यौं ज्यों बूड़े स्याम रंग, त्यौं त्यौं उज्जलु होइ ॥

अथवा

सुधा-धार यह नीरस दिल की

मस्ती मगन तपस्वी की।

जीवन ज्योति नष्ट नयनों की

सच्ची लगन मनस्वी की ॥

Solution

(क)- प्रसंग संदर्भानुसार-प्रस्तुत दोहा भक्तिकालीन निर्गुण काव्यधारा के संत कवि कबीरदास द्वारा रचित 'ग्रंथावली' से अवतरित है। यहाँ कबीर ने कर्मकांडों से (पुस्तकीय ज्ञान) से ज्यादा प्रेम की महत्ता पर बल दिया है। वे कहते हैं कि

व्याख्या- वेद-पुस्तक पढ़-पढ़कर कई युग बीत गए लेकिन कोई भी पंडित यानि ज्ञानी नहीं बना। अर्थात् केवल पुस्तकें पड़ने से कोई ज्ञानी नहीं होता है। वे कहते हैं कि जिसने प्रेम को जाना है वही ज्ञानी है। वे कहते है प्रेम के ढाई अक्षर समझने वाला ही सच्चा ज्ञानी है। बाकी ज्ञान कोरा ज्ञान है।

विशेष - 1. ज्ञान की अपेक्षा प्रेम पर बल दिया है।

  1. सधुक्कड़ी भाषा है।
  2. पोथी पढ़ि पति-अनुप्रास और पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  3. 'प्रेम' शब्द से ढाई अक्षर है। प्रेम
  4. ईश्वर प्राप्ति प्रेम से ही संभव है।
  5. दोहा छंद है।

 

अथवा

जासु नाम ………………………………………………………………………………. ते थोरा

प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस से अवतरित हैं।

व्याख्या- ये पंक्तियाँ राम चरितमानस के केवट प्रसंग से हैं जिसमें केवट और श्रीराम के संवाद है। यहाँ तुलसी कहते हैं कि जिस श्रीराम भगवान के एक बार नाम मरण से भवसागर से व्यक्ति पार उत्तर जाता है। वे ही श्रीराम नदी पार जाने के लिए केवट की ओर सहायता हेतु देख रहे हैं। जिस भगवान ने तीन पैरों (कदमों) से पूरी पृथ्वी को नाप दिया वे भगवान लीला स्वरूप केवट से सहायता मांग रहे हैं।

 

विशेष -  1. अवधी भाषा है।

  1. श्रीराम की सहायता का वर्णन है।
  2. चौपाई छंद है।

 

(ख)  या अनुरागी चित्त की, गति समुझे नहिं कोई।

ज्यौं-ज्यौं बूडे स्याम रँग, त्यौं त्यौं उज्जलु होड़

प्रसंग संदर्भानुसार - प्रस्तुत दोहा रीतिकालीन रीतिसिद्ध कवि बिहारीलाल द्वारा रचित 'सतसई' से अवतरित है। बिहारी की सतसई 'फूलों' का गुलदस्ता कहीं जाती है। जिसमें से यह भक्ति नीति का दोहा है।

व्याख्या- यहा कवि ने प्रेमी मन जो कृपा की भक्ति में डूबा हुआ है कि अवस्था बताई है कि प्रेम में जितना है उतना ही सुख मिलेगा। यहाँ विरोधाभासी अलंकार के माध्यम से यह बात कवि ने व्यक्त की है। कवि श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम का प्रदर्शन करते हुए कहता है कि इस प्रेमी हृदय की गति अत्यंत विचित्र है। इसमें कोई नहीं समझ सकता है। मेरा मन भी ऐसा ही है। यह श्रीकृष्ण के प्रेम में निमग्न होता जा रहा है। जैसे-जैसे यह उनके प्रेम में आसक्त होता जाता है यानी श्रीकृष्ण के प्रेम में डूबता जाता है। वैसे-वैसे और अधिक पावन होता जाता है। यहाँ अनुरागी का अर्थ लाल रंग है। उस दृष्टि से इस दोहे. से की व्याख्या कुछ इस प्रकार की जा सकती है। कवि श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति का प्रतिपादन करते हुए कहता है कि मेरे लाल रंग वाले चित्त की दशा को कोई नहीं समझा सकता। मेरा यह (लाल रंग वाला) मन जैसे-जैसे श्याम रंग में यानी काले रंग में डूबता जाता है वैसे-वैसे पवित्र और परम पावन होता जाता है। प्राय: काले रंग में डूबने वाली वस्तु का रंग भी काला हो जाता है लेकिन कवि ने यहाँ कहाँ हैं कि लाल रंग का मन श्रीकृष्ण के अनुराग में डूबकर और अधिक उज्जवल, श्वेत और परम पावन हो जाता है। कुछ आलोचकों ने 'ज्यौं-ज्यौं बूड़ै स्याम रंग' त्यौं-त्यौ। उज्जलु होई का यह अर्थ लगाया है कि भक्त का मन श्रीकृष्ण की भक्ति में जितना अधिक लगता जाता है उतना अधिक गाढ़े प्रेम में पड़ता जाता है। भक्ति का उन्माद ही ऐसा होता है। भक्त सच्चा आनंद तभी प्राप्त कर सकता है जब वह पूरी तरह अपने आराध्य के साथ तदाकार हो जाता है।

विशेष-1. विरोधाभास अलंकार है।

  1. ज्यों-ज्यौं-पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

अथवा

सुधा-धार …………………………………………………………………. मनस्वी की।

प्रसंगसंद भीनुसार- प्रस्तुत पंक्तियाँ सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा रचित कविता बालिका का परिचय से ली गई है। इसमें सुभद्राकुमारी चौहान ने अपनी बेटी की प्रसंशा की है। उसे विभिन्न उपमानों से उपरित किया है।

व्याख्या- सुभ्रदाकुमारी जी कह रही है। कि मेरी बेटी केवल एक लड़की नहीं, मेरी बेटी नहीं है। वह तो अमृत की धारा है। वह मेरे नीरस मन को प्रफुल्लित करने वाली इसयुक्त करनेवाली है। यह किसी तपस्वी को मस्त मगन करने वाली शक्ति है। यह किसी अंधे की आंखों की ज्योति है। यह तो सच्ची लागन की भांति मनसवी है।

विशेष -

  1. बेटी के लिए अनेक उपमान रखे हैं।
  2. तत्सम् शब्दावली है।
  3. मस्ती, मगन, जीवन ज्योति-अनुप्रास अलंकार है।

Question 2

कबीरदास अथवा तुलसीदास का साहित्यिक परिचय दीजिए ।

Solution

कबीर के जीवन वृत्त के संबंध में विद्वान सभी तक किसी निश्चित मत पर पहुँच जाते हैं। हिन्दी साहित्य की अन्य प्राचीन विभूतियों के समान उनके जन्म स्थान, जाति, परिवार तथा गुरू आदि के संबंध में प्रामाणिक साक्ष्य के में, किसी तर्क सम्मत जीवन चरित्र की रूप रेखा अपने तक नहीं बन पाई अतः साक्ष्य, संत साहित्य किवंदतियाँ एवं इतिहास समस्त घटनाओं के आधार उनका जो जीवन वृत्त निर्मित होता है वह निम्नलिखित है। कबीर के जन्म के बारे में कहा गया है।

चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ भये।

जेठ सुदी बरसायत को, पूरनमासी प्रकट भए

 

अर्थात् कबीर का जन्म संवत 1455 में हुआ। लेकिन अनेक दोहों के अनुसार कबीर की मृत्यु क्रमशः संवत् 1575, 1539 और 1569 ठहरती है। इनमें सवत् 1575 वाली तिथि ही अधिक और एतिहासिक दृष्टि से शुद्ध प्रमाणित होती है।

उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी जन्मभूमि के विषय में कुछ नहीं लिखा। उन्होंने जगह-जगह अपने निवास सथान का ही उल्लेख किया है। उनके स्थान के विषय में महगर (बस्ती जिला) काशी और बेलहरा (आजमगढ़) का लिया जाता है।

कबीर पंथियों के अनुसार, सत्य पुरूष का तेज काशी के लहर तालाब उतरा अथवा किसी ताल में रहन के पत्ते पर पौढ़ा हुआ बालक नीरू जुलाहे स्त्री को काशी नगर के निकट मिला था। परंतु बनारस डिसिट्रक्ट गजेटियर कबीर का जन्म बेलहरा गाँव में होना बताया गया है क्योंकि बेलहरा का और कोई प्रमाण मिलता किंतु पंडित चन्द्रबली पाण्डे बेलहर के पक्ष में हैं। डॉ. त्रिगुणायत मन को ही कबीर का जन्मस्थान मानने के पक्ष में हैं, परंतु उनका मगहर काशी स्थान वर्णित है। अधिकांश जनमत काशी को ही उनका जन्म स्थान मानता है। हो सकता है वह काशी का ही मगहर हो। कबीर ने भी जगह-जगह अपने को जुलाहा कहा है। धर्मदास आदि पुराने लेखक भी काशी को ही संगत और समीचीन मानते हैं।

जन्म स्थान की तरह कबीर ने अपने माता-पिता का भी कहीं उल्लेख नहीं है। जनश्रुति के अनुसार काशी के साथ मवतः ही यह बात जुड़ जाती है कि का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था. परंतु पालन पोषण नीरू नीमा नामक जुलाहा दम्पति के यहाँ हुआ था कबीर अपनी माँ के कारण बड़े दुखी थे उनका कहना था कि

मुसि मुसि रोवै कबीर की माई।

इन पंक्तियों में कबीर के जूलाहा या कोरी होने का संकेत मिलता है। स्थान जुलाहा के काम के आने वाले सभी शब्दों का प्रयोग, उन्होंने उपमाओं को आदि के रूप में किया है। वे जुलाहा थे यह स्पष्ट होता है, लेकिन होता है कि उनकी जाति क्या थी। वे कोरी थे या जुलाहा? जुलाहा मुसलमान कोरी हिंदू होते हैं। पेशा दोनों का कपड़ा बुनना होता है। इस संबंध में अनेक मत हैं।

कबीर की जाति कुछ भी हो, वे गृहस्थी थे और उनका विवाह हुआ कहा जाता है कि उनकी पत्नी का नाम लोई था। उनके कमाल तथा कमाली नामक दो बच्चे थे। जिनमें से केवल कमाल ही बच रहा था। कबीर के अनुसार उसी ने कबीर के वंश को डुबाया था, क्यों उसकी रूचि धन कमाने में थी।

कबीर पंथी लोग कबीर को अविवाहित सिद्ध करते हैं। वे कमाली को शेख तुर्की की पुत्री बताते हैं, जिससे कबीर ने उसके मरने के आठ दिन बाद जीवन प्रदान किया था। वह उनकी गोद ली हुई पुत्री थी और कमाल पोष्य पुत्र एवं शिष्य है। माता पिता के समान कबीर ने अपने गुरू का कोई कहीं नाम नहीं लिया किंतु कबीर ने बार-बार उल्लेख कर उसके प्रति अपार श्रद्धा प्रकट की है। इससे उसका कोई गुरू अवश्य था। इस संबंध में कबीर का गुरू रामानंद को माना जाता है।

कबीर साहित्य के अध्ययन से यह पता चलता है कि पढ़े लिखे न होने पर भी सत्य के अन्वेषी थे। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने देश देशानतरों का भ्रमण किया और कपड़ा बुनने के मामूली व्यवसाय को लेकर संतोष किया। इससे उनका जीवन सदा बना रहा और और सत्य दर्शन में कोई बाधा उपस्थित नहीं हुई। अपने अस्तित्व का बोध वे इस सीमा तक कर पाये कि झीनी चदरिया को ओड़कर ज्यों का त्यों एक दिन उठाकर रख दिया। इसी सत्य दर्शन की खोज में लगे रहने के स्थान-स्थान पर अपने अनेक प्रमाण मिलते हैं। जहाँ भी वे गये, प्रमाण स्वयं उसके अवशेष अब भी प्राप्त होते हैं। अपनी इस यात्रा उनका उद्देश्य तीर्थयात्रा हज या पर्यटन का नहीं था, वे न केवल सत्य की खोज में इधर-उधर घूमते रहे। उन्होंने इस आरय का संकेत अपने इस पद में किया है।

अथवा

 

(क) तुलसीदास हिन्दी के सर्व श्रेष्ठ कवि हैं। वे महानतम लोकनायक एवं लोक-सेवक, मध्यकालीन भारत की आत्मा तथा हिन्दी भाषा के प्राण हैं। तुलसीदास भारत के वाल्मीकि, व्यास, कालिदास तथा पश्चिम के होमर, दांते, शेक्सपीयर के स्तर के विश्वकवि हैं। उनका 'रामचरितमानस' रामायण एवं महाभारत के पश्चात् भारतीय वाड्मय में भक्तिमार्ग का सर्वश्रेष्ठ काव्य है।

हिन्दी के मध्ययुगीन अन्य कवियों की भांति तुलसीदास की जीवनवृत्त स बन्धी सामग्री के स बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। तुलसी के जन्म, परिवार, मृत्यु आदि के विषय में विभिन्न धारणाएं व्यक्त की जाती हैं। अन्त: साध्य तथा बाह्यसाक्ष्य के आधार पर तुलसी का जन्म संवत् 1589 (सन् 1532) तथा मृत्यु संवत् 1680 (सन् 1623) माना जाता है। इनकी मृत्यु -तिथि के स बन्ध में नि नलिखित दोहा प्रचलित है-

संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।

श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यौ शरीर

 

आधुनिक विद्वान् इनकी 'मृत्यु-तिथि सावन कृष्णा तीज शनि' मानते हैं। कहा जाता है तुलसी के मित्र टोडर के वंशज आज तक इस तिथि को उनकी वर्षी मनाते रहे हैं। 'मूल गोसाईं चरित' में भी इसी तिथि को तुलसीदास की मृत्यु-तिथि माना गया है। प्राप्त सामग्री के आधार पर कहा जा सकता है कि तुलसी का जन्म राजापुर (जिला बाँदा) में हुआ। कतिपय विद्वान् तुलसी का जन्म-स्थान सूकर क्षेत्र (सोरों) मानते हैं, परन्तु पहले मत को अधिक मान्यता प्राप्त है। इनकी माता का नाम हुलसी तथा पिता का नाम आत्माराम दुबे था।

तुलसी के जन्म के विषय में यह किंवदन्ती प्रचलित है कि अयुक्त मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण, उनके मुँह में दाँत देखकर, शरीर अपेक्षाकृत बहुत बड़ा देखकर तथा जन्म लेते ही 'राम' नाम का उच्चारण करने के कारण उनके माता-पिता ने उन्हें त्याग दिया। इनका लालन-पालन चुनिया नामक दासी ने किया था, किन्तु दुर्भाग्यवश वह भी सांप के काटने से मर गई। तब उनका पालन अनन्त राम के शिष्य नरहरि ने किया था। जन्म के समय 'राम' नाम का उच्चारण करने के कारण इनका बचपन का नाम 'रामबोला' पड़ा।

इस महान् उद्देश्य के कारण तुलसी का मानस जन-जन का कण्ठहार बन गया है। निस्सन्देह तुलसी का रामचरितमानस हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है।

  1. विनयपत्रिका— तुलसी-साहित्य में 'रामचरितमानस' के पश्चात् 'विनय पत्रिका' का स्थान है। काव्य-कला की दृष्टि से यह तुलसीदास की श्रेष्ठ रचना है। भक्ति की दृष्टि से भी इसका महत्त्व अधिक है। भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, संसार की असारता से स बन्धित तुलसी के मार्मिक उद्गार इस पत्रिका में मिलते हैं। यह कवि की विनय-भाव से आपूरित पत्रिका है। इसमें कवि- भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति हुई है। इसकी रचना गीत-शैली में की गई है। इसमें 279 पद हैं। यह तुलसी की ब्रज-भाषा की रचनाओं में सर्वोत्तम है।
  2. कवितावली - इसमें सात काण्ड हैं और 325 पद्य हैं जो कि कवित्त, सवैया, छप्पय आदि छन्दों में रचे गये हैं। उत्तरकाण्ड की कथा सबसे अधिक विस्तृत है। इस एक ही काण्ड में 183 छन्द हैं। इसमें कवि ने राम के जीवन-स बन्धी घटनाओं तथा ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि के पदों का संग्रह किया है। कला की दृष्टि से इसका महत्त्व गीतावली के समकक्ष है। कवितावली के अन्त में ही 'हनुमान बाहुक' के अनेक अंश संगृहीत हैं। यह हनुमान की स्तुति से स बन्धित पदों का संग्रह है। इसकी रचना कवि ने बाहु-पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए की थी।
  3. दोहावली – 'दोहावली' भक्ति, नीति, नाम-महिमा, प्रेम, अध्यात्म आदि विविध विषयों से सबन्धित 573 दोहों की रचना है। ये दोहे कवि की विभिन्न रचनाओं से लिए गये हैं। इसमें चातक की एकनिष्ठा से स बन्धित दोहे अत्यन्त सुन्दर तथा भावपूर्ण हैं।
  4. गीतावली - इसमें सात काण्ड तथा 328 पद हैं। विषय रामकथा है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने इसे 'सूरसागर' से प्रभावित माना है। इसमें वत्सल रस का समावेश भी इसी प्रभाव के कारण हुआ है, किन्तु सूरसागर की तुलना में यह रचना हल्की ठहरती है। इसकी भाषा ब्रजभाषा है। 'गीतावली' गीति- कला की दृष्टि से एक सफल कृति है।
  5. जानकी मंगल- इसमें 216 पद्यों में राम और सीता के विवाह का वर्णन किया गया है। इसकी भाषा अवधी है। यह वर्णनात्मक शैली में रची गई है।
  6. पार्वती मंगल – इसमें शिव-पार्वती के विवाह का वर्णन है। इसका आधार 'शिवपुराण' है।
  7. रामलला नहछू— इसमें राम के यज्ञोपवीत का वर्णन है जो विवाह के अवसर का है। यह शृंगारिक रचना है। इस रचना में लोक-गीतों की प्रश्नोतर-शैली का मनोरम रूप मिलता है। इसमें 13 द्विपदियाँ हैं।
  8. रामाज्ञा प्रश्न - इसमें 7 सर्ग हैं। प्रत्येक सर्ग में सात सप्तक तथा प्रत्येक सप्तक में सात दोहे हैं। इस प्रकार इसके कुल दोहों की सं या 343 है। इसका विषय रामकथा है। रामकथा के बहाने तुलसी ने शुभाशुभ शकुनों पर विचार किया है।
  9. कृष्ण गीतावली - कृष्ण गीतावली में कृष्णा-चरित्र स बन्धी पद हैं। यह रचना भी 'सूरसागर' के अनुकरण पर की गई है। कृष्णा-चरित्र के वर्णन में भी कवि ने अपनी मर्यादा-प्रवृत्ति का पूर्ण ध्यान रखा है। गीति-काव्य की दृष्टि से 'कृष्ण गीतावली' 'गीतावली' की अपेक्षा अधिक सफल है।
  10. बरवै रामायण- इसमें सात काण्ड तथा 69 छन्द हैं। इसमें रामकथा वर्णित है। इसमें अलंकार-ज्ञान का प्रदर्शन किया गया है। कलात्मक दृष्टि से बरवै रामायण महत्त्वपूर्ण है।
  11. वैराग्य संदीपनी- इसमें 62 छन्द हैं। इसका विषय राम महिमा, संत-स्वभाव तथा ज्ञान-वैराग्य की चर्चा है। इसमें तुलसी का झुकाव संत-मत की ओर दिखाई देता है। इसमें दोहा, चौपाई, सोरठा छन्द का प्रयोग किया गया है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त इसे अप्रामाणिक रचना मानते हैं।

काव्य-रूप की दृष्टि से रामचरितमानस, रामलला नहछू जानकी मंगल तथा पार्वती-मंगल प्रबन्ध-काव्य हैं। वैराग्य-संदीपनी, बरवै रामायण, रामाज्ञा प्रश्न, दोहावली तथा कवितावली मुक्तक काव्य हैं। गीतावली, कृष्ण गीतावली तथा विनय-पत्रिका गीति-काव्य के अन्तर्गत आती हैं। इस प्रकार तुलसी ने सभी काव्य-रूपों पर अपनी लेखनी चलाई है। गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी के सर्व श्रेष्ठ कवि हैं। तुलसी केवल महाकवि ही नहीं थे, वे महाकवि होने के साथ-साथ उच्च कोटि के भक्त, समाज-सुधारक तथा लोकनायक भी थे। तुलसी की इन्हीं विशेषताओं के कारण आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी विश्व के इतिहास में इनका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं मानते। आचार्य शुक्ल भी गोस्वामी जी के प्रादुर्भाव को हिन्दी काव्य-क्षेत्र में चमत्कार मानते हैं। वस्तुतः तुलसी हिन्दी के सर्वाधिकदेदीप्यमान नक्षत्र हैं, जिसका प्रकाश समस्त हिन्दी साहित्याकाश को प्रतिभासित किये हुए है। तुलसी का काव्य अगाध रत्नाकार की भांति है जिसमें विषय-व्यापकता, भाषा-परिमार्जन, शैलियों की विविधता, प्रबन्ध कौशल, समन्वय भावना आदि अनेक रत्नों की राशि विद्यमान है। इन्हीं विशेषताओं के कारण हिन्दी कवियों में तुलसी का स्थान मूर्धन्य है।

विषय-व्यापकता - तुलसी के काव्य का विषय क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। जहाँ वीरगाथा काल के कवियों ने केवल वीर और शृंगार रस प्रधान रचनाएं कीं, सन्तों का काव्य लौकिक-पक्ष से अछूता रहा, सूफी कवि केवल प्रेम के ही गायक रहे और कृष्ण-भक्त कवियों ने कृष्ण के केवल लोकरंजक रूप का ही लीलागान किया है, वहाँ तुलसी ने जीवन के किसी अंग विशेष का चित्रण न कर स पूर्ण जीवन की झाँकी प्रस्तुत की है। जीवन की विविध दशाओं एवं वृतियों का अंकन तुलसी के काव्य में सफलतापूर्वक हुआ है। तुलसी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी सर्वतो-मुखी प्रतिभा।

इनके प्रारीभक गुरु नरहरि ही थे जिनसे इन्होंने रामकथा सूकरखेत (शूकर क्षेत्र) में सुनी थी। नरहरि के साथ अनेक तीर्थों की यात्रा करते हुए ये काशी पहुँचे। वहाँ नरहरि ने इनको विद्याध्ययन के लिए महात्मा शेष-सनातन के पास छोड़ दिया। जहाँ इन्होंने वेद, शास्त्र दर्शन, पुराण आदि का ज्ञान प्राप्त किया।

तुलसीदास का विवाह रत्नावली नामक सुन्दर कन्या से हुआ था। वे अपनी पत्नी के रूप, विद्या आदि गुणों पर इतने आसक्त थे कि उसके बिना एक पल नहीं रह सकते थे। एक बार इनकी पत्नी बिना बताए मायके चली गई तो ये प्रेमान्ध हो आँधी-पानी की परवाह किये बिना उसके पास पहुँचे। पत्नी विदुषी थी। उसने इनकी इस आसक्ति पर इन्हें फटकारते हुए कहा था-

लाज न आवत आपको दौरे आएहु साथ।

धिकू धिकू ऐसे प्रेम को, कहा कहाँ में नाथ ॥

अस्थि- चर्ममय देह सम, तामें जैसी प्रीति ।

जैसी जो श्रीराम महं होति न तौ भव भीति ॥

इस फटकार से तुलसी के ज्ञान-चक्षु खुल गये। उन्हें गृहस्थ जीवन से वैराग्य हो गया और वे राम-भक्त हो गये। गृहस्थ-जीवने के त्याग के उपरान्त तुलसी का अधिकांश जीवन देशाटन में व्यतीत हुआ। काशी तथा चित्रकूट उनके प्रिय स्थान थे। अयोध्या में उन्होंने 'मानस' की रचना की थी। जनश्रुतियों के अनुसार उनका ब्रज-गमन भी मानसिंह प्रसिद्ध है। महाकवि तुलसी को अपने जीवन में कई मित्रों से विशेष स्नेह मिला था। उनमें से रहीम, टोडरमल तथा उल्लेखनीय हैं। 1623 ई. में इनका देहावसान हो गया।

व्यक्तित्व- तुलसी की कृतियों से उनके व्यक्तित्व पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है। वे अपने इष्टदेव में अगाध विश्वास तथा एकनिष्ठ भक्ति रखते थे। उनकी वाणी में सर्वत्र आशा और विश्वास था, उनकी दृष्टि सार-ग्राहिणी थी त

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