Hindi B

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Question 1

किन्हीं तीन अवतरणों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए:

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,

सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।

अथवा

माँगी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।

चरन कमल रज कहूँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई ॥

छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तैं न काठ कठिनाई।

तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाइ। बाट परम मोरि नाव उड़ाई।

(ख)   या अनुरागी चित्त की, गति समुझे नहिं कोई।

ज्यौं-ज्यौं बूडे स्याम रँग, त्यौं त्यौं उज्जलु होड़

 

अथवा

(ग)  सुधा-धार यह नीरस दिल की

मस्ती मगन तपस्वी की।

जीवन ज्योति नष्ट नयनों की

सच्ची लगन मनस्वी की।

Solution

 प्रसंगसंदर्भानुसार - प्रस्तुत दोहा भक्तिकालीन संत कवि कबीरदास द्वारा रचित ग्रंथावली में अवतरित है। इस दोहे में साधु के स्वभाव का वर्णन है।

व्याख्या- कबीर कहते हैं समाज में साधू के नाम पर आडम्बर है। साधू तो वह होता है जो सूप के स्वभाव का होता है जैसे सूप सार (मूल) को ग्रहण रखता है और थोथी (खोखली, व्यर्थ, छिकल) को बाहर फेंक देता है उसी प्रकार साध अंधे, उत्तम गुणों को रखकर व्यर्थ के दोषों को बाहर निकल देता है।

विशेष 1. दोहा छंद है।

  1. खड़ी बोली है।
  2. सार सार पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार है।
  3. सूप सुभाय-अनुप्रास अलंकार हैं।

अथवा

प्रसंगसंवर्भानुसार - प्रस्तुत पंक्तियाँ भक्तिकालीन रामभक्त कवि तुलसदास द्वारा रचित प्रसंग से ली गई हैं। जहाँ श्री राम और केवट के बीच संवाद चल रहा है।

व्याख्या- श्रीराम वनवास को जाते समय नदी के किनारे आ जाते है और वहाँ उन्हें नदी पार जाने के लिए किसी नाव जैसे साधन की आवश्यकता पड़ती है तो वे केवट से नाव मांगते है लेकिन केवट अपनी नाव देनेके लिए माना कर देता है। श्रीराम को उसके नाव न देने का कारण समझ नहीं आता है। इस पर केवट कहता है कि मैं अपनी नाव इसलिए नहीं दूंगा क्योंकि आपके पांव चमत्कारी हैं। आपके पांव के स्पर्श से पत्थर स्त्री (अहिल्या) बन गई थी। अतः अगर नाँव पर बैठांऊंगा तो पहले आपके चरणों को धोऊँगा। अगर मैने ऐसा न किया तो मेरी लकड़ी की नाव भी किसी रूप में बदल सकती है। तब मैं कैसे जीवनयापन करूंगा। आपके चरणों की धूल को साफ किए बिना मैं आपनी नाव पर आपको नहीं चढाऊंगा।

(ख)

प्रसंग संदर्भानुसार - प्रस्तुत दोहा रीतिकालीन रीतिसिद्ध कवि बिहारीलाल द्वारा रचित 'सतसई' से अवतरित है। बिहारी की सतसई 'फूलों' का गुलदस्ता कहीं जाती है। जिसमें से यह भक्ति नीति का दोहा है।

व्याख्या- यहा कवि ने प्रेमी मन जो कृपा की भक्ति में डूबा हुआ है कि अवस्था बताई है कि प्रेम में जितना है उतना ही सुख मिलेगा। यहाँ विरोधाभासी अलंकार के माध्यम से यह बात कवि ने व्यक्त की है। कवि श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम का प्रदर्शन करते हुए कहता है कि इस प्रेमी हृदय की गति अत्यंत विचित्र है। इसमें कोई नहीं समझ सकता है। मेरा मन भी ऐसा ही है। यह श्रीकृष्ण के प्रेम में निमग्न होता जा रहा है। जैसे-जैसे यह उनके प्रेम में आसक्त होता जाता है यानी श्रीकृष्ण के प्रेम में डूबता जाता है। वैसे-वैसे और अधिक पावन होता जाता है। यहाँ अनुरागी का अर्थ लाल रंग है। उस दृष्टि से इस दोहे. से की व्याख्या कुछ इस प्रकार की जा सकती है। कवि श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति का प्रतिपादन करते हुए कहता है कि मेरे लाल रंग वाले चित्त की दशा को कोई नहीं समझा सकता। मेरा यह (लाल रंग वाला) मन जैसे-जैसे श्याम रंग में यानी काले रंग में डूबता जाता है वैसे-वैसे पवित्र और परम पावन होता जाता है। प्राय: काले रंग में डूबने वाली वस्तु का रंग भी काला हो जाता है लेकिन कवि ने यहाँ कहाँ हैं कि लाल रंग का मन श्रीकृष्ण के अनुराग में डूबकर और अधिक उज्जवल, श्वेत और परम पावन हो जाता है। कुछ आलोचकों ने 'ज्यौं-ज्यौं बूड़ै स्याम रंग' त्यौं-त्यौ। उज्जलु होई का यह अर्थ लगाया है कि भक्त का मन श्रीकृष्ण की भक्ति में जितना अधिक लगता जाता है उतना अधिक गाढ़े प्रेम में पड़ता जाता है। भक्ति का उन्माद ही ऐसा होता है। भक्त सच्चा आनंद तभी प्राप्त कर सकता है जब वह पूरी तरह अपने आराध्य के साथ तदाकार हो जाता है।

विशेष-1. विरोधाभास अलंकार है।

  1. ज्यों-ज्यौं-पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

अथवा

(ग)

प्रसंगसंद भीनुसार- प्रस्तुत पंक्तियाँ सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा रचित कविता बालिका का परिचय से ली गई है। इसमें सुभद्राकुमारी चौहान ने अपनी बेटी की प्रसंशा की है। उसे विभिन्न उपमानों से उपरित किया है।

व्याख्या- सुभ्रदाकुमारी जी कह रही है। कि मेरी बेटी केवल एक लड़की नहीं, मेरी बेटी नहीं है। वह तो अमृत की धारा है। वह मेरे नीरस मन को प्रफुल्लित करने वाली इसयुक्त करनेवाली है। यह किसी तपस्वी को मस्त मगन करने वाली शक्ति है। यह किसी अंधे की आंखों की ज्योति है। यह तो सच्ची लागन की भांति मनसवी है।

विशेष - 1. बेटी के लिए अनेक उपमान रखे हैं।

  1. तत्सम् शब्दावली है।

3. मस्ती, मगन, जीवन ज्योति-अनुप्रास अलंकार है।

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Question 2

बिहारी का साहित्यिक परिचय दीजिए।

Solution

बिहारी का साहित्यिक परिचय- बिहारी रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इनकी अमर कीर्ति का स्तम्भ इनकी अमर कृति 'बिहारी सतसई' है। यह इनकी एकमात्र रचना है और इसे हिंदी मुक्तक काव्य का एक अमूल्य आभूषण कह सकते हैं। इनकी चालीस टीकाएँ और अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। पद्मसिंह शर्मा के अनुसार-"बिहारी सतसई क्या है ? यह तो एक मीठी खांड की रोटी है, जिधर से तोड़ें उधर से मीठी है। यह जो जौहरी की दुकान है जिसका प्रत्येक रत्न अमूल्य है। बिहारी के दोहे क्या हैं ? शिव की जटाओं से निकली गंगा की धारा है, जिसे जटाओं से निकलकर अन्यत्र कहीं समा जाने का स्थान नहीं मिलता। "

बिहारी का जन्म सं. 1660 में ग्यालियर के निकट वसुवा-गोविंदपुर ग्राम में हुआ। इनका बाल्यकाल बुन्देलखण्ड में और यौवन मथुरा में व्यतीत हुआ-

जनम ग्वालियर जानिये, खण्ड बुन्देले बाल।

तरुणाई आई सुखद, मथुरा बसि ससुराल।।"

बिहारी जयपुर के राजा जयसिंह के दरबार में रहा करते थे। कहा जाता है कि जयसिंह अपनी नव-विवाहिता पत्नी में आसक्त हो गए। अपनी अत्यधिक आसक्ति में वह राज-काज भी भूल गए। दरबारीगण चिंतित हुए। संयोगवश बिहारी वहाँ पहुँचे। उन्होंने राजा की आँखें खोलने के लिए अन्योक्ति-व्यंजक यह दोहा लिखा-

"नाहि पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास ऐहि काल।

अलि कली ही सो बन्ध्यो आगे कौन हवाल।।"

इस दोह को सुनते ही राजा को आत्म-ज्ञान हुआ है। विलासिता के पंथ से निकलकर दरबार में आए और राज-काज देखने लगे। क्रुद्ध होने के स्थान पर प्रसन्न होकर इन्हें अपना दरबारी कवि बना लिया। जयसिंह के दरबार में रहकर बिहारी ने सात सौ दोहों की रचना की, जिनका संग्रह 'बिहारी सतसई' नाम से हुआ है। बिहारी ने स्वयं एक दोहे में स्वीकार किया है कि उन्होंने 'बिहारी सतसई' की रचना जयसिंह की प्रेरणा से की।

बिहारी को पीयूषवर्षी मेघ कहा गया है। सूर, तुलसी एवं केशव के उपरांत बिहारी को स्थान दिया जाता है। राधाचरण गोस्वामी के शब्दों में-“यदि सूर सूर्य हैं, तुलसी शशि हैं, केशव उडुगन हैं तो बिहारी पीयुषवर्षी मेघ हैं जिनके आते ही सबका प्रकाश आच्छल हो जाता है। चतुर चातक चहकने लगते हैं, मन मयूर नाचने लगते हैं, बीच में भावों की विघुत चमक, हृदय छेद कर पार कर जाती है।" बिहारी के दोहे क्या हैं, प्रेम रस की पिचकारियाँ हैं जो आज तक भी सहृदय जनों के हृदय को रसाप्लावित कर रही हैं। बिहारी के दोहों में गागर में सागर भरा हुआ है। तभी तो कहा गया है-

सतसइया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।

देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर।

बिहारी की काव्य में काव्य-सौष्ठव की बहार यत्र-तत्र सर्वत्र सराहनीय है। इनकी सूक्ष्म पकड़ और अभिव्यंजना-पद्धति बड़ी अनुपम हैं। संसार-सागर को पार करने में नारी बाधक हैं, इस भाव की अति सुन्दर एवं मार्मिक अभिव्यक्ति द्रष्टव्य है-

"या भाव पारावार को उलंधि पार को जाय।

तिय छवि छाया ग्राहनी, गहै बीच ही आय।। "

बिहारी की अभिव्यंजना-पद्धति में एक ओर एक ही शब्द द्वारा पूर्ण भाव को प्रकट करने की चेष्टा की गई है और दूसरी ओर व्यंजना-शक्ति को ग्रहण किया गया हैं। इन्होंने प्रेम की मनोहारी अभिव्यंजना में सारी शक्ति लगा दी है। नायिका के हाव-भावों के सूक्ष्म चित्रण, नैन-सैन और मूक भाषा में प्रकट किए गए भावों का सौन्दर्य अवलोकनीय हैं-

"कहत-नटत, रीझत खिझत मिलत हिलत लजियात।

भरे भीन में करत हैं नैनन ही सब बात। "

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार 'बिहारी सतसई' उत्कृष्ट काव्य-रचना है। इसमें मुक्तक शैली की सभी विशेषताएँ मिलती हैं। यथा-गागर में सागर भरना, स्वतःपूर्णता, भाषा में समास शक्ति, वैयक्तिकता, नाना विषयों का ज्ञान आदि। बिहारी भले ही आचार्य ने हों, किन्तु 'बिहारी सतसई' के प्रदर्शित बिहारी का व्यापक पाण्डित्य यह प्रमाणित करता है कि बिहारी किसी आचार्य से कम नहीं और उनकी सतसई आचार्यत्व के गुण से रहित नहीं।

बिहारी की ब्रजभाषा शुद्ध एवं परिष्कृत है। वह सरल होते हुए भी साहित्यिक है। इनकी भाषा की मुख्य विशेषता हैं-समासीकरण और व्यंग्यात्मकता। सरसता और मथुरता का तो कहना ही क्या। तभी तो कहा गया है-

"ब्रजभाषा बनरी सबै, कविवर बुद्धि विशाल

सबकी भूषण सतसई, रचि बिहारीलाल।।"

राधाकृष्ण गोस्वामी के शब्दों में-"बिहारी सतसई भाषा की टकसाल है। "

सारांश यह है कि बिहारी के काव्य में यद्यपि लोक-कल्याण की भावना का अभाव मिलता है तथापि अनुपम है। उक्ति-वैचत्र्यि, प्रेम के सरस चित्रण, नायिकाओं के हाव-भावों के निरूपण, भाषा-मार्दव, भावभिव्यक्ति के संक्षिप्तीकरण आदि की दृष्टि से 'बिहारी सतसई' हिंदी-जगत का शृंगार है।

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