कीचड़ का काव्य - काका कालेलकर
(क) पाठ-कीचड़ का काव्य, लेखक-काका कालेलकर।
(ख) लोग कीचड़ को गंदा मानते है। उसको छूने से कपड़े मैले हो जाते है। कोई न तो अपने कपड़ों पर कीचड़ के छीटें देखना चाहता है, न ही उसमें पैर डालना पसन्द करता है। कारण एक ही है हम उसे गंदा समझते है।
(ग) इसमें प्रकृति के सुन्दर रूपों को वर्णन किया गया है। वर्णन करने वाले अर्थात् वर्णनकर्ता आकाश की नीलिका का पृथ्वी की हरियाली का या सरोवरों की स्वच्छता का वर्णन करते है।
(घ) हम आनजाने में कीचड़ के रंगों का प्रयोग निम्न स्थलों पर करते है।
(i) पुस्तकों के गत्तों पर (ii) घरों की दीवारों पर (iii) कीमती कपड़ों पर
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