दिये गये काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या करें
किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी।
पेटको पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी।।
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।
‘जतुलसी’ बुझाई एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागितें बड़ी है अगि पेटकी।।
प्रसगं: प्रस्तुत कवित्त रामभक्त कवि तुलसीदास द्वारा रचित ‘कवितावली’ से अवतरित है। इसमें कवि ने तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक दुरावस्था का यथार्थ चित्रण किया है।
व्याख्या: गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं-आज इतना कठिन समय आ गया है कि मनुष्य के लिए पेट तक भरना कठिन हो गया है। कोई पेट भरने के लिए मजदूरी करता है, कोई खेती करता है, कोई बनिया बनकर व्यापार करता है, कोई भीख माँगता है, कोई भाट बनकर राजाओं और धनिकों का गुणगान करता फिरता है, कोई नौकरी करता है, कोई चंचल अभिनेता बनता है, कोई चोरी करता है तो कोई चतुर बाजीगर ही बनता है। लोग अपना पेट भरने के लिए पड़ते हैं (ज्ञान प्राप्ति के लिए नहीं), उदर-पूर्ति के लिए ही लोग विभिन्न गुणों को सीखते हैं और उनका प्रदर्शन करते हैं। कई लोग इस पेट को भरने के लिए पहाड़ों पर चढ़ते हैं तो कई लोग शिकार करने के लिए जंगलों में भटकते फिरते हैं। पेट भरने के लिए ही लोग ऊँचे-नीचे धर्म-अधर्म के कार्य करते हैं यहाँ तक कि इस पापी पेट को भरने के लिए लोग बेटा-बेटी तक बेच डालते हैं। पेट की यह आग वडवाग्नि (समुद्र की आग) से भी बढ्कर भयंकर है। श्रीराम की कृपादृष्टि ही इस आग को बुझा सकती है। कवि कहता है कि मैंने धनश्याम रूपी राम की कृपा से अपनी पेट की अग्नि को शांत कर लिया है। भाव यह है कि श्रीराम की कृपादृष्टि जिस व्यक्ति पर हो जाए वही सम्मानपूर्वक जीविका-निर्वाह कर पाता है। इसके अभाव में लोग जीविका के लिए उल्टे-सीधे काम करने को विवश हो जाते हैं।
विशेष: 1. तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक दशा का यथार्थ अंकन किया गया है।
2. समस्त कवित्त में स्थल-स्थल में अनुप्रास अलंकार की छटा विद्यमान है-(किसबी किसान कुल, पेट को पढ़त, गुन गढ़त, बेटा-बेटकी आदि में)।
3. रूपक अलंकार को सुंदर प्रयोग है।
4. पेट की आग (भूख) को वडवाग्नि से भी बढ्कर बताया गया है। अत: अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग है।
5. भाषा: ब्रज।
6. छंद: कवित्त।