दिये गये काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या करें
यह बृतांत दसानन सुनेऊ। अति बिषाद मुनि मुनि सिर धुनेऊ।।
व्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। विविध जतन करि ताहि जगावा।।
जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहूँ कालु देह धरि वैसा।।
कुंभकरन बूझा कह भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई।।
प्रसंग: प्रस्तुत काव्याशं ‘रामचरितमानस’ के ‘लंकाकांड’ से उड़त है। मेघनाद की शक्ति लगने से लक्ष्मण मूर्च्छित हो गए थे, पर लंका के वैद्य सुषेण के उपचार से वे स्वस्थ भी हो गए। जब रावण को यह समाचार मिला तो उसे बहुत दुःख हुआ क्योंकि उनका सब किया-कराया बेकार चला गया।
व्याख्या: लक्ष्मण की मूर्च्छा टूटने का समाचार जब रावण ने सुना तब उसने अत्यंत विषाद (दुःख) के मारे बार-बार अपना सिर पीटा। वह व्याकुल होकर कुंभकर्ण के पास गया और बहुत से उपाय करके उसे जगाया।
कुंभकर्ण जाग गया अर्थात् उठ बैठा। वह ऐसा दिखाई देता था मानो काल ही स्वय शरीर धारण करके बैठा हो। कुंभकर्ण ने पूछा-है भाई! कहो तो तुम्हारे मुख सूख क्यों रहे हैं? अर्थात् तुम्हें क्या कष्ट है?
विशेष: 1. रावण की दुःखी दशा का अंकन किया गया है।
2. ‘पुनि-पुनि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
3. ‘मानहु कालु…’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
4. भाषा: अवधी।
5. छंद: चौपाई।