काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या
अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा।।
निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्हक्य प्रान अधारा।।
सौपसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी।।
उतरु काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई।।
बहू बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव बल लोचन।।
उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कपाल बेदेखाई।
प्रसगं: प्रस्तुत काव्याशं तुलसीदास द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के ‘लंकाकांड’ से अवतरित है। लक्ष्मण के मूर्च्छित होने पर राम विलाप करने लगते है। हनुमान औषधि लेने गए हैं। उनके आने में विलंब हो जाता है तो राम व्याकुल हो जाते हैं।
व्याख्या: लक्ष्मण के होश में न आने पर श्रीराम विलाप करते हुए कहते हैं-अब तो हे पुत्र! मेरा निष्ठुर और कठोर हृदय अपयश और तुम्हारा शोक दोनों को ही सहन करेगा। हे तात! तुम अपनी माता के एक ही पुत्र और उसके प्राणाधार हो।
उन्होंने सब प्रकार से सुख देने वाला और परम हितकारी जानकर ही तुम्हें हाथ पकड़कर मुझे सौंपा था। अब जाकर उन्हें मैं क्या उत्तर दूँगा। हे भाई! तुम उठकर मुझे सिखाते (समझाते) क्यों नहीं?
लोगों को सोच से छुड़ाने वाले श्रीराम बहुत प्रकार से सोच रहे हैं। उनके कमल की पंखुड़ी के समान नेत्रों से निरंतर जल (विषाद के आँसुओं का) बह रहा है। शिवजी कहते हैं-हे उमा (पार्वती)! श्रीरामचंद्र जी एक (अद्वितीय) और अखंड (वियोग रहित) हैं। भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान ने (लीला करके) मनुष्य की दशा दिखलाई है।
विशेष: 1. श्रीराम की व्याकुलता का मार्मिक अंकन हुआ है।
2. ‘सोक सुत’, ‘तात तासु’, ‘बहु बिधि’, ‘सोचत सोच’, ‘स्रवत सलिल’ आदि स्थलों पर अनुप्रास अलंकार की छटा है।
3. भाषा: अवधी।
4. रस: करुण।
5. छंद: चौपाई।