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निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर प्रत्येक लगभग 20 शब्दों में लिखिए : [2 × 4 = 8]
(क) ‘बालगोबिन भगत’ पाठ में किन सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार किया गया है?
(ख) महावीर प्रसार द्विवेदी शिक्षा-प्रणाली में संशोधन की बात क्यों करते हैं?
(ग) ‘काशी में बाबा विश्वनाथ और बिस्मिल्ला खाँ एक-दूसरे के पूरक हैं – कथन का क्या आशय है?
(घ) वर्तमान समाज को संस्कृत कहा जा सकता है या ‘सभ्य ? तर्क सहित उत्तर दीजिए ।
(क) बालगोबिन भगत पाठ में दर्शाई गई सामाजिक रूढ़ियाँ
(ग) काशी में बाबा विश्वनाथ और बिस्मिल्ला खाँ एक-दूसरे के पूरक हैं। काशी आज भी बिस्मिल्ला खाँ के सुर पर सोती और जागती है। काशी में मरण भी मंगल माना गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि काशी के पास बिस्मिल्ला खाँ जैसा हीरा रहा है जो दो कौमों को एक होने की प्रेरणा देता है।
लेखक के अनुसार बालगोबिन भगत कबीर के भगत थे। वे कत्पीर को ‘साहब’ कहते थे। वे कबीर के बताए नियमों का दृढ़ता से पालन करते थे। उनके अनुसार उनकी सब चीजें ‘साहब’ की देन हैं। उनके खेत में जो भी पैदावार होती थी, उसे सिर पर लादकर ‘साहब’ के दरबार में पहुँचाते थे। वह सब कुछ भेंट स्वरूप दरबार में रख देते थे। वापसी में जो कुछ भी ‘प्रसाद’ के रूप में मिलता उससे अपना निर्वाह करते थे।
बालगोबिन भगत कबीर की तरह ही भगवान के निराकार रूप को मानते थे। वे मृत्यु को दुःख का नहीं आनंद मनाने का अवसर मानते थे। कबीर जी ने आत्मा को परमात्मा की प्रेमिका बताया है जो मृत्यु उपरांत अपने प्रियतम से जा मिलती है। बालगोबिन भगत ने कबीर की वाणी का पालन करते हुए अपने पुत्र के मृत शरीर को फूलों से सजाया और पास में दीपक जलाया। वे स्वयं भी पुत्र के मृत शरीर के पास बैठकर पिया मिलन के गीत गाने लगे। उन्होंने अपनी पुत्रवधू को भी रोने के लिए मना कर दिया था। इससे पता चलता है कि बालगोबिन भगत की कबीर पर अगाध श्रद्धा थी। वे कबीर के पद इस ढंग से गाते थे जैसे सभी जीवित हो जाएंगे।
‘साधु’ की पहचान उसके पहनावे से नहीं उसके व्यवहार से करनी चाहिए। हर भगवे कपड़े पहनने वाला व्यक्ति साधु नहीं होता अपितु परिवार में रहने वाला व्यक्ति भी साधु हो सकता है। साधु व्यक्ति की पहचान निम्न आधारों पर की जा सकती है:
(i) दृढ़ निश्चयी - साधु का स्वभाव दृढ़ निश्चयी होंना चाहिए। उसे अपनी कथनी और करनी में अंतर नहीं करना चाहिए। वह अपने लिए जो नियम बनाए उसका दृढ़ता से पालन करना चाहिए तभी दूसरे व्यक्ति भी उन नियमों का पालन करेंगे।
(ii) सीमित आवश्यकताएं- व्यक्ति की निजी आवश्यकताएं सीमित होनी चाहिएं। साधु बने व्यक्ति को माया जाल में नहीं फंसना चाहिए।
(iii) सरल स्वभाव- साधु व्यक्ति का स्वभाव सरल होना चाहिए। उसके मन में किसी के प्रति भेद-भाव नहीं होना चाहिए।
(iv) मधुर वाणी- साधु व्यक्ति की वाणी मधुर होनी चाहिए। उसे सुनने वाले व्यक्ति उसकी वाणी सुनकर प्रभावित हुए बिना न रह सकें।
(v) सामाजिक कुरीतियों से दूर - साधु व्यक्ति को समाज में फैली कुरीतियों से दूर रहना चाहिए और उसके संपर्क में आने वाले लोगों को उन कुरीतियों के अवगुणों से अवगत कराना चाहिए।
जिस व्यक्ति में उपरोक्त विशेषताएं हों वह गृहस्थी होते हुए भी साधु है लेकिन भगवे कपड़े पहनकर, पूजा-पाठ का दिखावा करने वाला व्यक्ति साधु होते हुए भी साधु नहीं है।
(i) कहाँ मैं, और, कहाँ हमारे समाज के सबसे नीचे स्तर का यह तेली
स्थानवाचक क्रिया विशेषण
(ii) कपड़े बिल्कुल कम पहनते थे।
परिणामवाचक क्रिया विशेषण
(iii) थोड़ी ही देर पहले मूसलाधार वर्षा खत्म हुई है।
परिणामवाचक क्रिया विशेषण
(iv) उनका यह गाना अंधेरे में अकस्मात् कौंध उठने वाली बिजली की तरह किसे न चौंका देता?
रीतिकाल क्रिया विशेषण
(v) इन दिनों वह सवेरे ही उठते।
कालवाचक क्रिया विशेषण!
(vi) धीरे-धीरे स्वर ऊँचा होने लगा।
रीतिवाचक क्रिया विशेषण।
(vii) उसके सामने जमीन पर ही आसन जमाए गीत गाए चले जा रहे हैं।
स्थानवाचक क्रिया विशेषण
(viii) वह हर वर्ष गंगा-स्नान करने जाते।
कालवाचक क्रिया विशेषण
(ix) थोड़ा बुखार आने लगा।
परिणामवाचक क्रिया विशेषण
(x) उस दिन भी संध्या में गीत गाए।
कालवाचक किया विशेषण
विद्यार्थी अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं करें।
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विक्रम संवत कैलेंडर चैत्र माह से आरंभ होता है। बह्म पुराण में लिखा है-
‘चैत्र मासि जगत ब्रह्मा, ससर्ज प्रथमे हीन।
शुक्कपक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति।।
विक्रम संवत कलैंडर के महीने इस क्रम से होते हैं-
चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रवण, भादों, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फालुन विक्रम संवत कलैंडर के महीने इस क्रम से होते हैं-
विद्यार्थी अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं करें।
बालगोबिन भगत हर वर्ष की तरह गंगा स्नान करने गए थे। अब वे बूढ़े हो गए थे परंतु अपने नियम पर अड़िग रहते थे। वहीं पूरे रास्ते गाते-बजाते गए और कुछ नहीं खाया। जब वे गंगा स्नान से लौटे तो उनकी तबीयत खराब थी। धीरे-धीरे उनकी तबीयत बिगड़ने लगी थी परंतु अपने नियम-व्रतों में ढ़ील नहीं आने दी। वहीं दोनों समय गाना, स्नान ध्यान करना और खेती-बाड़ी की देखभाल करना। वे अपने सभी कार्य स्वयं करते थे। लोगों की आराम करने के सलाह को हँसी में टाल देते थे। एक शाम गीत गाकर सोए थे, उसी रात उनके जीवन की माला टूट गई थी। लोगों को सुबह पता चला कि बालगोबिन भगत नहीं रहे। उनकी उनके स्वभाव के अनुरूप हुई थी।
‘बालगोबिन भगत’ पाठ के लेखक ‘रामवृक्ष बेनीपुरी’ हैं। लेखक बचपन से ही बालगोबिन भगत को आदरणीय व्यक्ति मानता आया है। लेखक ब्राह्मण था और बालगोबिन भगत एक तेली थे। तेली को उस समय के समाज में अच्छा नहीं समझा जाता था। फिर भी ‘बालगोबिन भगत’ सबकी आस्था के कारण थे।
लेखक ने इस पाठ के माध्यम से वास्तविक साधुत्व का परिचय दिया है। गृहस्थी में रहते-हुए भी व्यक्ति साधु हो सकता है। साधु की पहचान उसका पहनावा नहीं अपितु उसका व्यवहार है। व्यक्ति का अपने नियमों पर दृढ़ रहना, निजी आवश्यकताओं को सीमित करना, सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए प्रयत्नशील होना तथा मोह-माया के जाल से दूर रहने वाला व्यक्ति ही साधु हो सकता है। बालगोबिन भगत भगवान के निराकार रूप को मानते थे।
उनके अनुसार उनका जो भी है वह मालिक की देन है उस पर उसी का अधिकार है। इसीलिए वे अपने खेतों की पैदावार कबीर मठ में पहुँचा देते थे। बाद में प्रसाद के रूप में जो मिलता उसी से अपना निर्वाह करते थे। उन्होंने अपने की मृत्यु पर अपनी पुत्रवधू से सभी क्रिया-कर्म करवाए। वे समाज में प्रचलित मान्यताओं को नहीं मानते थे। उन्होंने पुत्रवधू को पुनर्विवाह के लिए उसके घर भेज दिया था। वे अपने निजी स्वार्थ के लिए कुछ नही करते थे। उनके सभी कार्य परहित में होते थे। वे अंत तक अपने बनाए नियमों में विश्वास करते हुए जीते रहे थे। उन्होंने आत्मा के वास्तविक रूप को पहचान लिया था। अंत में आत्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है इसलिए उसका मोह व्यर्थ है। व्यक्ति को अपनी मुक्ति के लिए परमात्मा से प्रेम करना चाहिए।
इस पाठ के माध्यम से लेखक लोगों को पाखंडी साधुओं से सचेत करना चाहता है। वास्तविक साधु वही होते हैं जो समाज के सामने उदाहरण प्रस्तुत करें और समाज को पुरानी सड़ी-गली परंपराओं से मुक्त कराएं।
‘बालगोबिन भगत’ पाठ के लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी’ हैं। बालगोबिन भगत पाठ का मुख्य पात्र है। बालगोबिन भगत का चरित्र-चित्रण निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया गया है:
परिचय-बालगोबिन भगत गृहस्थी होते हुए भी स्वभाव से साधु थे। उनकी आयु साठ वर्ष से ऊपर थी। उनकी पत्नी नहीं थी। परिवार में एक बीमार बेटा तथा उसकी पत्नी थी।
व्यक्तित्व-बालगोबिन भगत मंझोले कद के व्यक्ति थे। उनका रंग गोरा था। बाल सफेद थे। वे लंबी दाढ़ी नहीं रखते थे। उनके चेहरे पर सफेद बालों के कारण बहुत तेज लगता था।
वेशभूषा-बालगोबिन भगत बहुत कम कपड़े पहनते थे। उनके अनुसार शरीर पर उतने ही कपड़े पहनने चाहिएं जितने शरीर पर आवश्यक हों। कमर पर एक लंगोटी पहनते थे। सिर पर कनफटी टोपी पहनते थे। सर्दियों में वे काली कंबली ओढ़ते थे। मस्तक पर रामानंदी चंदन का टीका होता था। वह टीका नाक से शुरू होकर ऊपर तक जाता था। गले में की जड़ों की एक बेडौल माला होती थी।
व्यवसाय- बालगोबिन भगत का काम खेती-बाड़ी था। वे एक किसान थे। वे अपने खेत में धान की फसल उगाते थे।
कबीर के भगत-बालगोबिन भगत गृहस्थी होते हुए भी साधु थे। उन्होंने अपने जीवन में कबीर जी का जीवन वृत्त उतार रखा था। वे कबीर जी को अपना साहब मानते थे। उनकी शिक्षाओं पर अमल करते थे। उनके अनुसार उनका जो कुछ है वह सब साहब (कबीर जी) की देन है।
मधुर गायक-बालगोबिन भगत एक मधुर गायक थे। उनका गीत सुनने वाला व्यक्ति अपनी सुध-बुध खोकर उन्हीं में खो जाता था। वे कबीर जी के पद गाते थे। कबीर जी के पद वे इस ढंग से गाते थे कि ऐसे लगता था कि सभी पद जीवित हो उठे हों। बालगोबिन भगत के संगीत का जादू सबको झूमने के लिए मजबूर कर देता था।
संतोषी वृत्ति के व्यक्ति-बालगोबिन भगत संतोषी वृत्ति के व्यक्ति थे। उनकी निजी आवश्यकताएं सीमित थीं। उनके खेत में जो पैदावार होती थी, वे उसे कबीर जी के मठ में पहुँचा देते थे। वहाँ से जो प्रसाद के रूप में मिलता था उसी में अपनी गृहस्थी का निर्वाह करते थे।
परमात्मा से प्रेम-बालगोबिन भगत भगवान के निराकार रूप को मानते थे। उनके अनुसार आत्मा की मुक्ति के लिए परमात्मा से प्रेम करना चाहिए। उन्होंने मृत्यु की सच्चाई जान ली थी कि अंत में शरीर में से आत्मा निकलकर परमात्मा में मिल जाती है इसलिए परमात्मा से प्रेम करना चाहिए।
मोहमाया से दूर-बालगोबिन भगत मोहमाया से दूर थे। उन्हें केवल परमात्मा से प्रेम था। वे किसी भी प्रकार के मोह माया के बंधन में नहीं बंधते थे। जब उनके इकलौते बेटे की मृत्यु हुई तो उन्होंने शोक मनाने की अपेक्षा उसे आनंद मनाने का अवसर माना था। इस दिन उनके बेटे की आत्मा शरीर से मुक्त होकर परमात्मा से मिल गई थी। उन्होंने बुढ़ापे में बेटे की मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नी को भी उसके घर भेज दिया था। वे किसी प्रकार के मोह में नहीं पड़ना चाहते थे। नियमों पर दृढ़- बालगोबिन भगत अपने बनाए नियमों पर दृढ़ थे। वे कभी भी किसी से बिना पूछे उसकी वस्तु व्यवहार में लाना तो दूर, छूते भी नहीं थे। गंगा स्नान जाते थे, समय मार्ग में कुछ भी नहीं खाते थे। उन्हें आने-जाने में चार-पाँच दिन लग जाते थे। वे अपनी दिनचर्या का पालन बीमारी में भी करते रहे थे।
सामाजिक परंपराओं के विरोधी-बालगोबिन भगत सामाजिक परंपराओं के विरोधी। उन्होंने अपने बेटे की मृत्यु के सभी क्रिया-कर्म अपनी पुत्रवधू से करवाए थे। उन्होंने अपनी पुत्रवधू को पुनर्विवाह के लिए मजबूर किया था। वे उसे अपने पास रखकर उसके मन को मरता हुआ नहीं देख सकते थे। वे ऐसी सामाजिक मान्यताएं नहीं मानते थे जो किसी को दुःख दें।
बालगोबिन का चरित्र उनके साधुत्व को प्रकट करता है।
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श्राद्ध का समय समाप्त होते ही उन्होंने पतोहू के भाई को बुलाया और उसे अपनी बहन को साथ ले जाने के लिए कहा। उन्होंने उसके भाई को यह भी कहा कि अपनी बहन का दूसरा विवाह कर देना।
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