देशी रियासतों के विलय से संबंधित उपरोक्त दोनों विचार अपने-अपने स्थान पर सही हैं। परंतु देशी रियासतों के विलय के घटनाचक्र पर विस्मय का विचार अधिक सही मालूम पड़ता है। स्वतंत्रता अधिनियम 1947 की घोषणा के अनुसार रजवाड़ों पर ब्रिटिश प्रभुत्व समाप्त हो गया था। इसका अर्थ यह था कि सभी रजवाड़े कानूनी तोर पर स्वतंत्र हो गए। अंग्रेजी राज का यह दृष्टिकोण था कि रजवाड़े भारत अथवा पाकिस्तान में मिलने के लिए स्वतंत्र होंगें या फिर ये अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रख सकते हैं। अधिकांश रजवाड़ों का प्रशासन सुव्यवस्थित ढंग से नहीं चल रहा था। प्रजा अपने लोकतंत्रीय अधिकार चाहती थी। क्योंकि अधिकांश रजवाड़ों में शासन अलोकतंत्रीय ढंग से चलाया जा रहा था। इसलिए रजवाड़ों के लोग भारतीय संघ में शामिल होने के लिए तैयार थे। इसके विपरीत भारतीय सरकार का रवैया रजवाड़ों के प्रति लचीला था। वह कुछ इलाकों को स्वतंत्रता देने के लिए तैयार थी। अत: विस्मय की यह राय कि रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने से इन रियासतों की प्रजा तक लोकतंत्र का विस्तार हुआ, पर्याप्त रूप से सही है।
परंतु रियासतों के विलय के समय बड़ी-बड़ी रियासतों नें भारतीय संघ में मिलने से इंकार कर दिया। पहले इन प्रभावशाली रियासतों को लोकतंत्रीय ढंग से तथा बातचीत के माध्यम से भारतीय संघ में मिलाने के लिए मनाने का प्रयत्न किया गया । जूनागढ़, हैदराबाद, कश्मीर और मणिपुर की रियासतों का विलय कठिन साबित हुआ। हैदराबाद और जूनागढ़ के मामलें में कुछ बल का प्रयोग भी किया गया। इस तरह रियासतों के खिलाफ बल प्रयोग अलोकतंत्रीय था लेकिन सरकार की राजनीतिक मजबूरी थी। इस आधार पर इंद्रप्रीत के विचार सही हैं कि लोकतंत्र में आम सहमति से.काम लिया जाता है।