आचार्य हजारी प्रमाद द्विवेदी का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं तथा भाषा-शैली की विशेषताएँ लिखो।
जीवन-परिचय. हजारीप्रसाद द्विवेदी का जन्म बलिया जिले मे “दूबे का छपरा” नामक ग्राम में सन् 1907 ई. में हुआ। आपके पिता पं. अनमोल द्विवेदी ने पुत्र को संस्कृत एवं ज्योतिष के अध्ययन की ओर प्रेरित किया। आपने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से साहित्याचार्य एवं ज्योतिषाचार्य की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। सन् 1940 से 1950 ई. तक द्विवेदी जी ने शांति निकेतन मे हिंदी भवन के निदेशक के रूप में कार्य किया। सन् 1950 ई. में द्विवेदी जी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष नियुक्त हुए। सन् 1960 से 1966 ई. तक वे पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे। इसके उपरांत आपने भारत सरकार की हिंदी संबंधी योजनाओं के कार्यान्वयन का दायित्व ग्रहण किया। आप उत्तर प्रदेश सरकार की हिंदी ग्रंथ अकादमी के शासी मंडल के अध्यक्ष भी रहे। 19 मई, 1979 ई. को दिल्ली में इनका देहावसान हुआ। द्विवेदी जी का अध्ययन क्षेत्र अत्यंत व्यापक था। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बंगला आदि भाषाओं एवं इतिहास दर्शन, संस्कृति, धर्म आदि विषयों में उनकी विशेष गति थी। इसीलिए उनकी रचनाओं में विषय-प्रतिपादन और शब्द-प्रयोग की विविधता मिलती है।
रचनाएँ: हिंदी निबंधकारों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पश्चात् द्विवेदी जी का प्रमुख स्थान है। वे उच्च कोटि के निबंधकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं
निबंध-संग्रह: (1) अशोक के फूल (2) विचार और वितर्क (3) कल्पलता (4) कुटज (5) आलोक पर्व।
आलोचनात्मक कृतियाँ: (1) सूर-साहित्य (2) कबीर (3) हिंदी साहित्य की भूमिका (4) कालिदास की लालित्य योजना।
उपन्यास: (1) चारुचंद्रलेख (2) बाणभट्ट की आत्मकथा (3) पुनर्नवा (4) अमानदास का पोथा।
द्विवेदी जी की सभी रचनाएँ ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली’ के ग्यारह भागों में संकलित हैं।
भाषा-शैली: द्विवेदी जी की भाषा सरल होते हुए भी प्रांजल है। उसमें प्रवाह का गुण विद्यमान है तथा भाव-व्यजक भी है। द्विवेदी जी की भाषा अत्यंत समृद्ध है। उसमें गंभीर चिंतन के साथ हास्य और व्यंग्य का पुट सर्वत्र मिलता है। बीच-बीच मे वे संस्कृत के साहित्यिक उद्धरण भी देते चलते हैं। भाषा भावानुकूल है। संस्कृत की तत्सम शब्दावली के मध्य मुहावरों और अंग्रेजी उर्दू आदि के शब्दों के प्रयोग से भाषा प्रभावी तथा ओजपूर्ण बन गई है। गंभीर विषय के बीच-बीच में हास्य एवं व्यंग्य के छींटे मिलते हैं। उनकी गद्य-शैली हिंदी साहित्यकार के लिए वरदान स्वरूप है।
साहित्यिक विशेषताएँ: द्विवेदी जी का पूरा कथा-साहित्य समाज के जात-पाँत मजहबों में विभाजन और आधी आबादी (स्त्री) के दलन की पीड़ा को सबसे बड़े सांस्कृतिक संकट के रूप पहचानने. रचने और सामंजस्य में समाधान खोजने का साहित्य है। वे स्त्री को सामाजिक अन्याय का सबसे बड़ा शिकार मानते हैं तथा सांस्कृतिक-ऐतिहासिक संदर्भ में उसकी पीड़ा का गहरा विश्लेषण करते हुए सरस श्रद्धा के साथ उसकी महिमा प्रतिष्ठित करते हैं-विशेषकर बाणभट्ट की आत्मकथा में। मानवता और लोक से विमुख कोई भी विज्ञान, तंत्र-मंत्र, विश्वास या सिद्धान्त उन्हें ग्राह्य नहीं है और मानव की जिजीविषा और विजययात्रा में उनकी अखंड आस्था है। इसी से वे मानवतावादी साहित्यकार व समीक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
द्विवेदी जी का निबंध-साहित्य इस अर्थ में बड़े महत्त्व का है कि साहित्य-दर्शन तथा समाज-व्यवस्था संबंधी उनकी कई मौलिक उद्भावनाएँ मूलत: निबंधों में ही मिलती हैं, पर यह निचार-सामग्री पांडित्य के बोझ से आक्रांत होने की जगह उसके बोध से अभिषिक्त है। अपने लेखन द्वारा निबंध-विधा को सर्जनात्मक साहित्य की कोटि में ला देने वाले द्विवेदी जी के ये निबंध व्यक्तित्व व्यंजना और आत्मपरक शैली से युक्त हैं।