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वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
औपनिवेशिक काल के वन प्रबंधन में आए परिवर्तनों ने इन समूहों को कैसे प्रभावित किया :
- झूम-खेती करने वालों को
- घुमंतू और चरवाहा समुदायों को
- लकड़ी और वन- उत्पादों का व्यापार करने वाली कंपनियों को
- बागान मालिकों को
- शिकार खेलने वाले राजाओं और अंग्रेज अफसरों को
(i)झूम-खेती करने वालों को- यूरोपीय वन रक्षको की नजर में झूम खेती वनों के लिए नुकसानदेह थीl सरकार ने झूम खेती पर रोक लगाने का फैसला किया क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि जहां कुछ सालों के अंतर पर खेती की जा रही हो ऐसी जमीन पर रेलवे के लिए इमारती लकड़ी वाले पेड़ नहीं उगाए जा सकतेl परिणामस्वरुप उनके समुदायों को वनों में उनके घरों से जबरन हटा दिया गयाl कुछ को अपना पेशा बदलना पड़ा तो कुछ ने छोटे-बड़े विद्रोहो के जरिए प्रतिरोध व्यक्त कियाl
(ii) घुमंतू और चरवाहा समुदायों को- मद्रास प्रेसिडेंसी के कोरवा, कराचा व येरूकुला जैसे अनेक चरवाहे और घुमंतू समुदाय को अपनी जीविका से हाथ धोना पड़ाl इन्हे सरकार की निगरानी में फैक्ट्रियों, खदानों और बागानों में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ाl असम में चाय बागानों में काम करने के लिए झारखंड के संथाल और उँंराव व छत्तीसगढ़ के जैसे आदिवासी मर्द और औरत दोनो की भर्ती की गईl
(iii) लकड़ी और वन-उत्पादों का व्यपार करने वाली कंपनियों को- ब्रिटिश सरकार ने कई बड़ी यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को विशेष इलाकों में वन उत्पादों के व्यापार की जिम्मेदारी सौंप दीl इससे भारतीय वन-उत्पादन व इमारती लकड़ी का व्यापार नष्ट हो गयाl
(iv) बागान मालिक को-यूरोपीय होने के कारण बागान मालिक लाभ प्राप्त करते थेl
(v) शिकार खेलने वाले राजाओ और अंग्रेज अफसरों को -वैसे तो जंगल में शिकार करने पर रोक थी किंतु इसमें भेदभाव किया जाता थाl इस प्रकार के नियम होने के बावजूद राजा महाराजा तथा ब्रिटिश अधिकारी इन नियमों का उलघंन करते हुए शिकार करते थेl उसके साथ सरकार की मौन सहमति थी क्योंकि बड़े जगली जानवरो को वे आदिम, असभ्य और बर्बर समुदाय का सूचक मानते थेl अतः भारत को सभ्य बनाने के नाम पर इन जानवरों का शिकार किया जाता थाl
बस्तर और जावा के औपनिवेशिक वन प्रबंधन में क्या समानताएँ हैं?
(i) बस्तर एवं जावा दोनों क्षेत्रों में वन अधिनियम लागू हुआ। इसमें वनों की तीन श्रेणियों में बाँटा गया-आरक्षित, सुरक्षित प ग्रामीण वन वनो को राज्य के अंतर्गत लाया गया और ग्रामीणों के साथ-साथ चरवाहे और घुमंतू समुदाय के भी प्रवेश करने पर रोक लगा दी गई।
(ii) औपनिवेशिक सरकार ने रेलवे जहाज निर्माण उद्योग के विस्तार के लिए वनों को कटवाया। उन्होंने शिकार पर पाबंदी लगा दी। वन समुदायों को वन प्रबंध के लिए मुफ्त में काम करना पड़ता था और वहाँ रहने के लिए किराया भी देना पड़ता था।
(iii) यूरोपीय कंपनियों को वनों का विनाश और बागान उद्योग लगाने की अनुमति दी गई।
(iv) वन प्रबंधन के लिए अंग्रेज और डच दोनों ने यूरोपीय व्यक्तियों को चुना।
सन 1800 से 1920 के बीच भारतीय उपमहाद्वीप वनाच्छदित क्षेत्र में 97 लाख हेक्टर की गिरावट आयी। पहले के 10.86 करोड़ हेक्टेयर से घटकर यह क्षेत्र 9.89 करोड़ हेक्टेयर रह गया था। इस गिरावट में निम्नलिखित कारकों की भूमिका बताएँ-
- रेलवे
- जहाज निर्माण
- कृषि विस्तार
- व्यवसायिक खेती
- चाय कॉफी के बागान
- आदिवासी और किसान
(i) रेलवे- रेलवे के विस्तार का वन क्षेत्रों की कमी में महत्वपूर्ण योगदान रहा। रेल की पटरियाँ बिछाने के लिए आवश्यक स्लीपरों के लिए भारी संख्या में पेड़ो को काटा गया। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 1 मील लंबी पटरी बिछाने के लिए लगभग 500 पेड़ों की आवश्यकता होती थी। रेलवे सैनिकों और वाणिज्यक वस्तुओं को एक जगह से दूसरी जगह तक लाने-ले जाने में सहायक था। इसलिए इस कार्य को बहुत तेजी से किया गया फलतः वनों का तेजी से ह्यास हुआ।
(ii) जहाज निर्माण- जहाज निर्माण उद्योग वन क्षेत्र में कमी के लिए दूसरा सबसे बड़ा कारण रहा जो कि यूरोप में ओक वन लगभग ख़त्म हो चुके थे ऐसी स्थिति में उनकी नज़र भारतीय वनों की कठोर और टिकाऊ लकड़ी पर पड़ी उन्होंने इसकी अंधाधुध कटाई शुरु कर दी जिससे वनों का तेजी से हास हुआ।
(iii) कृषि विस्तार- इस दौरान न केवल यूरोपीय बल्कि भारतीय आबादी भी तेजी से बढ़ रही थी। जिसके कारण कृषि उत्पादों की मांग में भी तेजी से वृद्धि हुई कृषि भूमि सिमित ही थी। किन्तु इतनी बड़ी आबादी की मांग पूरी नहीं हो रही थी। ऐसी स्थिति में औपनिवेशिक सरकार ने कृषि भूमि में वृद्धि करने की सोची। किंतु फैसला अविवेकपूर्ण ढंग से किया गया जिसके कारण वनो का ह्यास हुआ।
(iv) व्यवसायिक खेती- व्यवसायिक खेती भी वनों के हास का प्रमुख कारण है। इस तरह की खेती के लिए अधिक उपजाऊ भूमि की आवश्यकता थी। उपलब्ध भूमि पर पारंपरिक तरीके से वर्षा से खेती की जा रही थी जिसके कारण वह खास उपजाऊ नहीं रह गई थी। परिणास्वरूप उपजाऊ भूमि के लिए वनों को साफ किया जाने लगा लगा और वनों का ह्यास हुआ।
(v) चाय-कॉफी के बागान- वनों की कीमत पर चाय एवं कॉफी के बागानों के विकास को प्रोत्साहित किया गया। इसके लिए यूरोपियन लोगों को परमिट दिया गया तथा हर संभव सहायता दी गई। वनवसियों का कम-से-कम मजदूरी पर पेड़ काटकर बागान के लिए ज़मीन तैयार करने के साथ-साथ बागान के अन्य विकास संबंधी कार्यों में लगाया गया। इस तरह वर्ग तथा वनवासी दोनों को ही नुकसान पहुंचाया गया।
(vi) आदिवासी और किसान समूह- आदिवासी और किसान समूह ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष किया क्योंकि यह सरकार के हाथ अपनी वन संपदा खो चुके थे। किंतु अपनी जमीन वापस मिलते ही वह वापस अपने परंपरागत कार्यों पर लौट आएl यहां तक की स्वतंत्रता के उपरांत आज भी पर वन में ही रहना पसंद करते हैं।
युद्धों से जंगल क्यों प्रभावित होते है?
युद्धों से जंगल इसलिए प्रभावित होते है क्योंकि-
(i) युद्धों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए लकड़ी की बहुत आवश्यता होती है। जिसके कारण वनों को काटा जाता है।
(ii) विरोधी सैन्य बल सबसे पहले भोजन संसाधन तथा छुपने की जगहों को नष्ट करते है। इन दोनों की आपूर्ति में वन काफी सहायक होता है। जंगलों पर जापानियों के कब्जे से ठीक पहले डचों ने 'भस्म-कर-भागो नीति' अपनाई जिसके तहत आरा-मशीनों और सागौन के विशाल लट्ठों के ढेर जला दिए गए जिससे वे जापानियों के हाथ न लग पाएँ।
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