भक्ति - सूफी परंपराएँ

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Question
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उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए कि संप्रदाय के समन्वय से इतिहासकार क्या अर्थ निकालते हैं?

Solution

संप्रदाय के समन्वय से इतिहासकारों का अभिप्राय पूजा प्रणालियों के समन्वय से हैं। एक प्रक्रिया ब्राह्मणीय विचारधारा के प्रचार की थी। इतिहासकारों के अनुसार यहाँ कम से कम दो प्रक्रियाएँ चल रही थी। इसका प्रसार पौराणिक ग्रंथों की रचना, संकलन और परिरक्षण द्वारा हुआ। ये ग्रंथ सरल संस्कृत छंदों में थे जो वैदिक विद्या से विहीन स्त्रियों और शूद्रों द्वारा भी ग्राह्य थे।
दूसरी परंपरा शूद्र, स्त्रियों व अन्य सामाजिक वर्गों के बीच स्थानीय स्तर पर विकसित हुई विश्वास प्रणालियों पर आधारित थी। इन दोनों अर्थात् ब्राह्मणीय व स्थानीय परम्पराओं के संपर्क में आने से एक-दूसरे में मेल-मिलाप हुआ। इसी मेल-मिलाप को इतिहासकार समाज की गंगा-जमुनी संस्कृति या सम्प्रदायों के समन्वय के रूप में देखते हैं। इसमें ब्राह्मणीय ग्रंथों में शूद्र व अन्य सामाजिक वर्गों के आचरणों व आस्थाओं को स्वीकृति मिली। दूसरी ओर सामान्य लोगों ने कुछ सीमा तक ब्राह्मणीय परम्परा को स्थानीय विश्वास परंपरा में शामिल कर लिया। इस प्रक्रिया का सबसे विशिष्ट उदाहरण पुरी, उड़ीसा में मिलता है जहाँ मुख्य देवता को बारहवीं शताब्दी तक आते-आते जगन्नाथ (शाब्दिक अर्थ में संपूर्ण विश्व का स्वामी), विष्णु के एक स्वरूप के रूप में प्रस्तुत किया गया।   

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Question
CBSEHHIHSH12028294

किस हद तक उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का सम्मिश्रण है?

Solution

उप-महाद्वीपीय में विभिन्न मुस्लिम शासकों ने अनेकों मस्जिदों का निर्माण करवाया। इस्लाम का लोक प्रचलन जहाँ भाषा और साहित्य में देखने को मिलता हैं, वही इसकी यह छवि स्थापत्य कला (विशेषकर मस्जिद) के निर्माण में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। मस्जिदों के कुछ स्थापत्य संबंधित तत्व जैसे: मस्जिद के लिए यह अनिवार्य हैं की इमारत का मक्का की ओर संकेत करना जो मेहराब (प्रार्थना) तथा मिनबार (व्यासपीठ) की स्थापना से लक्षित होता था। परन्तु बहुत-से ऐसे तत्व होते थे जिनमें भिन्नता पाई जाती थी जैसे: छत की स्थिति, निर्माण का समान, सज्जा के तरीके व स्तम्भों के बनाने की विधि। 
उदाहरण के लिए 13वीं शताब्दी में केरल में बनी एक मस्जिद की छत्त मंदिर के शिखर से मिलती- जुलती है। इसके विपरीत बांग्लादेश की ईंटों से बनी अतिया मस्जिद की छत गुंबददार हैं।

Question
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बे शरिया और बा शरिया सूफी परंपरा के बीच एकरूपता और अंतर दोनों को स्पष्ट कीजिए।

Solution

शरिया मुसलमानों को निर्देशित करने वाला कानून हैं। यह कुरान शरीफ और हदीस पर आधारित हैं। शरिया का पालन करने वाले को बा-शरिया और शरिया की अवेहलना करने वालों को बे-शरिया कहा जाता था।

एकरूपता:

  1. बे शरिया और बा शरिया दोनों ही इस्लाम धर्म से संबंध रखते थे। 
  2. दोनों ही एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उनके अनुसार अल्लाह एक मात्र ईश्वर हैं जो सर्वोच्च, शक्तिशाली अथवा सर्वव्यापक हैं।
  3. दोनों ही अल्लाह के समुख पूर्ण आत्मसमर्पण पर बल देते थे।
  4. इनकी एक-रूपता इस बात में भी थी ये दोनों सूफी आंदोलनों से थे।

अंतर:

  1. बा-शरीआ सूफी सन्त ख़ानक़ाहो में रहते थे। खानकाह एक फ़ारसी शब्द है, जिसका अर्थ है-आश्रम। जबकि बे-शरीआ सूफी संत ख़ानक़ाह का तिरस्कार करके रहस्यवादी एवं फ़कीर की जिन्दगी व्यतीत करते थे।
  2. बा-शरीआ सिलसिले शरीआ का पालन करते थे, किन्तु बे-शरीआ शरीआ में बँधे हुए नहीं थे।

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चर्चा कीजिए कि अलवार,  नयनार और वीरशैवों ने किस प्रकार जाति प्रथा की आलोचना प्रस्तुत की?

Solution

अलवार, नयनार और वीरशैव दक्षिण भारत में उत्पन्न विचारधाराएँ थी। इनमें अलवार, नयनार व तमिलनाडु से सम्बन्ध रखते थे, वही वीरशैव कर्नाटक से सम्बन्ध रखते थे। इन्होंने जाती प्रथा के बंधनों का अपने-अपने ढंग से विरोध  किया

  1. अलवार और नयनार संतों ने जाति प्रथा व ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोध में आवाज़ उठाई। यह बात सत्य प्रतीत होती है क्योंकि भक्ति संत विविध समुदायों से थे जैसे ब्राह्मण, शिल्पकार, किसान और कुछ तो उन जातियों से आए थे जिन्हें ''अस्पृश्य'' माना जाता था।
  2. अलवार और नयनारे संतों की रचनाओं को वेद जितना महत्त्वपूर्ण बताया गया। जैसे अलवार संतों के मुख्य काव्य संकलन नलयिरादिव्यप्रबन्धम् का वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता था। इस प्रकार इस ग्रंथ का महत्त्व संस्कृत के चारों वेदों जितना बताया गया जो ब्राह्मणों द्वारा पोषित थे।
  3. वीरशैवों ने भी जाति की अवधारणा का विरोध किया। उन्होंने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानने से इंकार कर दिया। ब्राह्मण धर्मशास्त्रों में जिन आचारों को अस्वीकार किया गया था; जैसे-वयस्क विवाह और विधवा पुनर्विवाह, वीरशैवों ने उन्हें मान्यता प्रदान की। इन सब कारणों से ब्राह्मणों ने जिन समुदायों के साथ भेदभाव किया, वे वीरशैवों के अनुयायी हो गए। वीरशैवों ने संस्कृत भाषा को त्यागकर कन्नड़ भाषा का प्रयोग शुरू किया।