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शासक और विभिन्न इतिवृत्त
मुग़ल दरबार में पांडुलिपि तैयार करने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
पांडुलिपि तैयार करने की एक लंबी प्रक्रिया होती थी। इस प्रक्रिया में कई लोग शामिल होते थे। जो अलग अलग कामों में दक्ष होते थे। सबसे पहले पांडुलिपि का पन्ना तैयार किया जाता था जो कागज़ बनाने वालों का काम था। तैयार किए गए पन्ने पर अत्यंत सुंदर अक्षर में पाठ की नकल तैयार की जाती थी। उस समय सुलेखन अर्थात् हाथ से लिखने की कला अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी। इसका प्रयोग भिन्न-भिन्न शैलियों में होता था। सरकंडे के टुकड़े को स्याही में डुबोकर लिखा जाता था। इसके बाद कोफ्तगार पृष्ठों को चमकाने का काम करते थे। चित्रकार पाठ के दृश्यों को चित्रित करते थे। अन्त में, जिल्दसाज प्रत्येक पन्ने को इकट्ठा करके उसे अलंकृत आवरण देता था। तैयार पांडुलिपि को एक बहुमूल्य वस्तु, बौद्धिक संपदा और सौंदर्य के कार्य के रूप में देखा जाता था।
मुग़ल दरबार से जुड़े दैनिक-कर्म और विशेष उत्सवों के दिनों ने किस तरह से बादशाह की सत्ता के भाव को प्रतिपादित किया होगा?
प्रत्येक कार्य तथा उत्सव बादशाह की शक्ति तथा सत्त्ता को ही प्रतिपादित करता था। इस संबंध में निम्नलिखित उदाहरण दिए जा सकते हैं:
- दरबार में अनुशासन: दरबार में किसी की हैसियत इस बात से निर्धारित होती थी कि वह शासक के कितना पास और दूर बैठा है। एक बार जब बादशाह सिंहासन पर बैठ जाता था तो किसी को भी अपनी जगह से कहीं और जाने की अनुमति नहीं थी और न ही कोई अनुमति के बिना दरबार से बाहर जा सकता था। शिष्टाचार का जरा-सा भी उल्लंघन होने पर ध्यान दिया जाता था और उसे व्यक्ति को तुरंत ही दंडित किया जाता था।
- अभिवादन के तरीके: शासक को किए गए अभिवादन के तरीके से पदानुक्रम में उस व्यक्ति की हैसियत का पता चलता था। जैसे जिस व्यक्ति के सामने ज्यादा झुककर अभिवादन किया जाता था, उस व्यक्ति की हैसियत ज्यादा ऊँची मानी जाती थी। अभिवादन का उच्चतम रूप सिजदा या दंडवत् लेटना था। शाहजहाँ के शासनकाल में इन तरीकों के स्थान पर चार तसलीम तथा जमींबोसी (जमीन चूमना) के तरीके अपनाए गए।
- झरोखा दर्शन: बादशाह अकबर अपने दिन की शुरुआत सूर्योदय के समय कुछ धार्मिक प्रार्थनाओं से करता था और इसके बाद वह पूर्व की ओर मुँह किए एक छोटे छज्जे अर्थात् झरोखे में आता था। इसके नीचे लोगों की भीड़ बादशाह की एक झलक पाने के लिए इंतज़ार कर रही होती थी। इसे झरोखा दर्शन कहते थे।
- विशेष अवसर: अनेक धार्मिक त्यौहार; जैसे होली, ईद, शब-ए-बारात आदि त्योहारों का आयोजन खूब ठाट-बाट से किया जाता था। मुग़ल दरबार के लिए विवाह के अवसर विशेष महत्व रखते थे। इन अवसरों पर सज्जा-धज्जा तथा व्यय की गई अपार धन-राशि बादशाह की प्रतिष्ठा को चार चाँद लगा देती थी।
मुग़ल साम्राज्य में शाही परिवार की स्त्रियों द्वारा निभाई गई भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
मुग़ल साम्राज्य में शाही परिवार की स्त्रियों द्वारा निभाई गई भूमिका का मूल्यांकन इस प्रकार हैं:
- मुग़ल साम्राज्य में शाही परिवार की महिलाओं के द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती थी। इतिहास साक्षी है कि मुगल सम्राट जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ की शासन सत्ता में महत्वपूर्ण भूमिका थी। मलिका नूरजहाँ ने मुग़ल सम्राट पर अपना पूर्ण प्रभाव स्थापित करके शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली थी। उसने जहाँगीर के साथ 'झरोखा दर्शन' में भाग लेना प्रारंभ कर दिया तथा बहुत से सिक्कों पर भी उसका नाम आने लगा। शाही आदेश-पत्रों पर बादशाह के हस्ताक्षरों के अतिरिक्त बेगम नूरजहाँ का नाम भी आने लगा। इस प्रकार शासन सत्ता नूरजहाँ के हाथों में केंद्रित होने लगी। राज्य संबंधी कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय नुरजहाँ की स्वीकृति के बिना नहीं लिया जा सकता था।
- नूरजहाँ के पश्चात् मुगल रानियाँ और राजकुमारियाँ महत्त्वपूर्ण वित्तीय स्रोतों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने लगीं। शाहजहाँ की पुत्रियों जहाँनारा और रोशनआरा की वार्षिक आय ऊँचे शाही मनसबदारों की वार्षिक आय से कम नहीं थी। जहाँनारा को विदेशी व्यापार के एक अत्यधिक लाभप्रद केंद्र सूरत के बंदरगाह नगर से भी राजस्व प्राप्त होता था।
- आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण होने के परिणामस्वरूप मुगल परिवार की महत्त्वपूर्ण महिलाओं को इमारतों एवं बागों का निर्माण करवाने की प्रेरणा मिली। जहाँनारा ने शाहजहाँ की नई राजधानी शाहजहाँनाबाद में स्थापत्य की अनेक महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं में योगदान दिया। इनमें से आँगन तथा बाग के साथ एक दोमंजिला भव्य कारवाँ सराय विशेष रूप से उल्लेखनीय है । शाहजहाँनाबाद के हृदयस्थल चाँदनी चौक की रूपरेखा को भी जहाँनारा द्वारा ही तैयार किया गया था।
- शाही परिवार की महिलाओं में से अनेक उच्च कोटि की प्रतिभावान तथा विदुषी महिलाएँ थीं। गुलबदन बेगम, जो प्रथम मुगल सम्राट बाबर की पुत्री, हुमायूँ की बहन और महा मुगल सम्राट अकबर की फूफी (बुआ) थी, इसी प्रकार की एक महिला थी। उसे तुर्की और फ़ारसी का अच्छा ज्ञान था और वह इन दोनों भाषाओं में कुशलतापूर्वक लिख सकती थी। अकबर ने जब दरबारी इतिहासकार अबुल फज़ल को अपने शासन का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया, तो उसने गुलबदन बेगम से आग्रह किया कि वह बाबर और हुमायूँ के समय के अपने संस्मरणों को लिपिबद्ध करे ताकि अबुल फजले उनसे लाभ उठाकर अपने ग्रंथ को पूरा कर सकें।
वे कौन से मुद्दे थे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर क्षेत्रों के प्रति मुग़ल नीतियों व विचारों को आकार प्रदान किया?
मुगल बादशाह देश की सीमाओं से परे भी अपने राजनैतिक दावे प्रस्तुत करते थे। अपने साम्राज्य की सीमाओं की सुरक्षा, पड़ोसी देशों से यथासंभव मैत्रीपूर्ण संबंधों की स्थापना, आर्थिक और धार्मिक हितों की रक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों का भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर क्षेत्रों के प्रति मुग़ल नीतियों एवं विचारों को आकार प्रदान करने में महत्वपूर्ण स्थान था। मुग़ल सम्राटों ने इन्हीं मुद्दों को ध्यान में रखते हुए उपमहाद्वीप से बाहर के क्षेत्रों के प्रति अपनी नीतियों का निर्धारण किया:
- इर्रानियों एवं तूरानियों से संबंध: मध्यकाल में अफगानिस्तान को ईरान और मध्य एशिया के क्षेत्रों से अलग करने वाले हिंदुकुश पर्वतों द्वारा निर्मित सीमा का विशेष महत्त्व था। मुग़ल शासकों के ईरान एवं तूरान के पड़ोसी देशों के साथ राजनैतिक एवं राजनयिक संबंध इसी सीमा के नियंत्रण पर निर्भर करते थे। उल्लेखनीय है कि भारतीय उपमहाद्वीप में आने का इच्छुक कोई भी विजेता हिंदुकुश पर्वत को पार किए बिना उत्तर भारत तक पहुँचने में सफल नहीं हो सकता था। अत: मुग़ल शासक उत्तरी-पश्चिमी सीमांत में सामरिक महत्त्व को चौकियों विशेष रूप से काबुल और कंधार पर अपना कुशल नियंत्रण स्थापित करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे।
- कंधार का किला: कंधार सफावियों और मुगलों के बीच झगड़े की जड़ था। यह किला-नगर आरंभ में हुमायूँ के अधिकार में था जिसे 1595 में अकबर द्वारा पुन: जीत लिया गया। 1633 ई० में मुगलों ने कंधार पर अधिकार कर लिया, किन्तु 1649 ई० में कंधार पर पुन: ईरान का अधिकार हो गया। तत्पश्चात् बार-बार प्रयास करने पर भी कंधार को मुग़ल साम्राज्य का अंग नहीं बनाया जा सका।
- ऑटोमन साम्राज्य: ऑटोमन साम्राज्य के साथ अपने संबंधों के निर्धारण में मुग़ल शासक सामान्य रूप से धर्म और वाणिज्य के विषयों को मिलाकर देखते थे। साम्राज्य लाल सागर के बंदरगाहों अदन और मोखा को बहुमूल्य वस्तुओं के निर्यात को प्रोत्साहित करता था। इनकी बिक्री से जो आय होती थी, उसे उस क्षेत्र के धर्मस्थलों एवं फ़कीरों को दान कर दिया जाता था।
- ईसाई धर्म: मुग़ल दरबार के यूरोपीय विवरणों में जेसुइट वृत्तांत सबसे पुराना हैं। पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में भारत तक एक सीधे समुद्री मार्ग की खोज का अनुसरण करते हुए पुर्तगाली व्यापारियों ने तटीय नगरों में व्यापारिक केंद्रों का जाल स्थापित किया। इस प्रकार ईसाई धर्म भारत में आया।
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