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दो ध्रुवीयता का अंत
सोवियत अर्थव्यवस्था को किसी पूँजीवादी देश जैसे संयुक्त राज्य अमरीका की अर्थव्यवस्था से अलग करने वाली किन्हीं तीन विशेषताओं का जिक्र करें।
दोनों देशों में अलग-अलग विचारधारा व कार्य प्रणाली को अपनाया गया था। सोवियत संघ में समाजवादी व्यवस्था लागू थी, जबकि संयुक्त-राज्य अमेरिका में पूंजीवादी अर्थव्य्वस्था लागू थी। दोनों अर्थव्य्वस्था को अलग करने वाली तीन विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- सोवियत संघ ने समाजवादी व्यवस्था को बढ़ावा देने पर बल दिया हैं, वहीं अमरीका ने पूँजीवाद पर बल दिया जिसने दोनों ही देशों की अर्थव्यवस्था में एक गहरा अंतर दिखाई पड़ता हैं।
- सोवियत अर्थव्यवस्था पूर्ण रूप से सरकार के नियंत्रण में थी, जिसमें नागरिकों को निजी सम्पति का अधिकार नहीं था, वही दूसरी ओर, अमेरिका में निजीकरण को अपनाया गया हैं। नागरिको का निजी सम्पति का अधिकार प्राप्त हैं।
- तीसरा सूचना व प्रौद्योगिकी क्षेत्रों में सोवियत संघ धीरे धीरे अमरीका से पिछड़ता चला गया जिसने उसकी अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया।
किन बातों के कारण गोर्बाचेव सोवियत संघ में सुधार के लिए बाध्य हुए?
- मिखाइल गोर्बाचेव 1980 के दशक के मध्य में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बने। पश्चिम के देशों में सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांति हो रही थी जिसके कारण सोवियत संघ को इसकी बराबरी में लाने के लिए यह सुधार करने ज़रूरी हो गए थे।
- सोवियत संघ प्रौद्योगिकी और बुनियादी ढाँचे (मसलन परिवहन, ऊर्जा) के मामले में पश्चिमी देशों की तुलना में पीछे रह गया। लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह थी कि सोवियत संघ अपने नागरिकों की राजनीतिक और आर्थिक आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सका। अत: गोर्बाचेव आर्थिक सुधारों के लिए मजबूर हो गए।
- मिखाइल गोर्बाचेव ने सोवियत संघ की अधिकांश संस्थाओं में सुधार की जरूरत को महसूस किया। सोवियत संघ में एक दल यानी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन था और इस दल का सभी संस्थाओं पर गहरा अंकुश था।अंत में कम्युनिस्ट पार्टी प्रतिबंधित हो गई।
- सोवियत संघ प्रशासनिक और राजनीतिक रूप से गतिरुद्ध हो चुका था। गतिरुद्ध प्रशासन, भारी भ्रष्टाचार, अपनी गुलतियों को सुधारने में व्यवस्था की अक्षमता, शासन में जनता कि भागीदारी का न होना, इन सभी बातों के कारण गोर्बाचेव को सुधार करने के लिए मज़बूर होना पड़ा।
भारत जैसे देशों के लिए सोवियत संघ के विघटन के क्या परिणाम हुए?
भारत के सोवियत संघ से संबंध हमेशा से ही मैत्रीपूर्ण रहे हैं। इस में कोई दो राहें नहीं कि सोवियत संघ के विघटन से विश्व राजनीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए। उसके पश्चात विश्व में केवल अमेरिका ही एकमात्र महाशक्ति के रूप में सामने आया। इसी कारण से उसने भारत तथा अन्य विकासशील देशों को कई प्रकार से प्रभावित करना आरंभ कर दिया। इन देशों की यह मजबूरी बन गई कि वे अपने विकास के लिए अमेरिका से धन तथा सैन्य समान प्राप्त करें।
इतना ही नहीं सोवियत संघ के विघटन के पश्चात अमेरिका का विकासशील देशों जैसे अफगानिस्तान ईरान तथा इराक में अनावश्यक हस्तक्षेप बढ़ गया था। विश्व के कई महत्वपूर्ण संगठन विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि पर अमेरिकी प्रभुत्व कायम हो गया था। जिसके कारण भारत जैसे देशों को इनसे सहायता लेने के लिए अमेरिकन नीतियों का ही समर्थन करना पड़ा। इसके परिणाम स्वरुप सोवियत संघ के साथ उनके रिश्ते में कुछ कमियाँ आ गई।
सोवियत संघ विघटन के बाद एक शंका यह उठने लगी कि अब भारत व सोवियत संघ के संबंधों का क्या होगा? क्या ये दोनों देश ऐसे समय में अपने संबंधों को बनाए रख पाएँगे? क्या विभाजन के बाद स्वतंत्र गणराज्य भारत के साथ संबंध कायम रख पाएँगे?
26 दिसंबर , 1991 को सोवियत संघ के विभाजन के बाद भारत व सोवियत संघ के संबंध इस प्रकार से प्रभावित हुए:
- दोनों देशों के हितों में व्यापक बदलाव आया।
- दोनों देशों ने नए वातावरण और नई दिशा में संबंधों को बढ़ाने की पहल की।
- दोनों देशों (रूस व भारत) के राज्याअध्यक्षों ने एक-दूसरे के देशों की यात्राएँ की जिससे व्यापारिक संबंधों में सहमति बनी।
- रक्षा समझौतों को संपन्न किया गया।
- 1998 में अमरीका के दबाव के बाद भी भारत व रूस ने भारत रूस 'सैन्य तकनीकी सहयोग समझौता' 2010 तक बढ़ाया।
- कारगिल संकट के समय रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने भारत की भूमिका को सराहा तथा पाकिस्तान को घुसपैठिए वापस बुलाने व नियंत्रण रेखा का सम्मान करने की सलाह दी।
शॉक थेरेपी क्या थी? क्या साम्यवाद से पूँजीवाद की तरफ संक्रमण का यह सबसे बेहतर तरीका था?
शॉक थेरेपी: साम्यवाद के पतन के बाद पूर्व सोवियत संघ के गणराज्य एक सत्तावादी, समाजवादी व्यवस्था से लोकतांत्रिक पूँजीवादी व्यवस्था तक के कष्टप्रद संक्रमण से होकर गुजरे। रूस, मध्य एशिया के गणराज्य और पूर्वी यूरोप के देशों में पूँजीवाद की ओर संक्रमण का एक खास मॉडल अपनाया गया। विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा निर्देशित इस मॉडल को 'शॉक थेरेपी' (आघात पहुँचाकर उपचार करना) कहा गया।
'शक थेरेपी ' की सर्वोपरि मान्यता थी कि मिल्कियत का सबसे प्रभावी रूप निजी स्वामित्व होगा। इसके अंतर्गत राज्य की संपदा के निजीकरण और व्यावसायिक स्वामित्व के ढाँचे को तुरंत अपनाने की बात शामिल थी। सामूहिक 'फार्म' को निजी 'फार्म' में बदला गया और पूँजीवादी पद्धति से खेती शुरू हुई। इस संक्रमण में राज्य नियंत्रित समाजवाद या पूँजीवाद के अतिरिक्त किसी भी वैकल्पिक व्यवस्था या 'तीसरे रुख' को मंजूर नहीं किया गया।
1990 में अपनायी गई 'शॉक थेरेपी' जनता को उपभोग के उस 'आनंदलोक' तक नहीं ले गई जिसका उसने वादा किया था। अमूमन 'शक थेरेपी' से पूरे क्षेत्र की अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गई और इस क्षेत्र की जनता को बर्बादी की मार झेलनी पड़ी। लगभग 90 प्रतिशत उद्योगों को निजी हाथों या कंपनियों को बेचा गया जिससे रुसी मुद्रा में नाटकीय ढंग से गिरावट आई जिसके कारण वहाँ लोगो की जमा पूंजी भी चली गई।
समाज कल्याण की पुरानी व्यवस्था को क्रम से नष्ट किया गया। सरकारी रियायतों के खात्मे के कारण ज्यादातर लोग गरीबी में पड़ गए। मध्य वर्ग समाज के हाशिए पर आ गया तथा कई देशों में एक 'माफिया वर्ग ' उभरा और उसने अधिकतर आर्थिक गतिविधियों को अपने नियंत्रण में ले लिया।
उपरोक्त वर्णन के आधार पर यह कहा जा सकता हैं कि ('शॉक थेरेपी') समाजवाद से पूँजीवाद की तरफ संक्रमण का यह तरीका उचित नहीं था। क्योंकि पूँजीवाद सुधार एकदम किए जाने की अपेक्षा धीरे- धीरे किए जाने चाहिए थे।
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