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किसान जमींदार और राज्य
कृषि इतिहास लिखने के लिए आइन को स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने में कौन सी समस्याएँ हैं? इतिहासकार इन समस्याओं से कैसे निपटते हैं?
समस्याएँ: कृषि इतिहास लिखने के लिए 'आइन' को स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने में निम्नलिखित समस्याएँ हैं:
- इतिहासकारों ने ध्यान से आइन का अध्ययन किया उनके अनुसार विभिन्न स्थानों पर जोड़ करने में कई गलतियाँ पाई गई हैं। उनका मानना हैं कि यह गलतियाँ अबुल-फज़ल के सहयोगियों कि गलती से हुई होगीं या फिर नक़ल उतारने वालो कि गलती से।
- आइन इसके संख्यात्मक आकड़ों में भी विषमताएँ हैं। सभी सूबों से आकँड़े एक ही शक्ल में नहीं एकत्रित किए
गए। मसलन, जहाँ कई सूबों के लिए जमींदारों की जाति के मुतलिक विस्तृत सूचनाएँ संकलित की गईं, वहीं बंगाल और उड़ीसा के लिए ऐसी सूचनाएँ मौजूद नहीं हैं। - जहाँ सूबों से लिए गए राजकोषीय आकँड़े बड़ी तफ़सील से दिए गए हैं, वहीं उन्हीं इलाकों से कीमतों और मज़दूरी जैसे इतने ही महत्त्वपूर्ण मापदंड इतने अच्छे से दर्ज़ नहीं किए गए हैं।
- कीमतों और मजदूरी की दरों की जो विस्तृत सूची आइन में दी भी गई है वह साम्राज्य की राजधानी आगरा या उसके इर्द-गिर्द के इलाकों से ली गई है। जाहिर है कि देश के बाकी हिस्सों के लिए इन आँकडों की प्रासंगिकता सीमित है।
समस्या से निपटना: इतिहासकार मानते हैं कि इस तरह कि समस्याएँ तब आती हैं जब व्यापक स्तर पर इतिहास लिखा जाता हैं । इन समस्याओं से निपटने के लिए इतिहासकार आइन के साथ साथ उन स्त्रोतों का भी प्रयोग कर सकते हैं जो मुगलों की राजधानी से दूर के प्रदेशों में लिखे गए थे। जोड़ इत्यादि की गलतियों का निदान पुन:जोड़ करके इतिहासकार इसे स्त्रोत के रूप में प्रयोग कर लेता हैं।
सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कृषि उत्पादन को किस हद तक महज़ गुज़ारे के लिए खेती कह सकते हैं? अपने उत्तर के कारण स्पष्ट कीजिए
सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में दैनिक आहार की खेती पर ज्यादा जोर दिया जाता था, लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि उस काल में खेती केवल गुजारा करने के लिए की जाती थी। तब तक खेती का स्वरूप काफ़ी बदल गया था। इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं :
- मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान खेती की जाती थी : एक खरीफ (पतझड़ में) और दूसरी रबी (वसंत में) । यानी सूखे इलाकों और बंजर जमीन को छोड़ दें तो ज्यादातर जगहों पर साल में कम से कम दो फसलें
होती थीं। जहाँ बारिश या सिंचाई के अन्य साधन हर वक्त मौजूद थे वहाँ तो साल में तीन फसलें भी उगाई जाती थीं। - तत्कालीन स्रोतों में जिन्स-ए-कामिल अर्थात् सर्वोत्तम फ़सलें जैसे लफ्ज़ मिलते हैं। मुगल राज्य भी किसानों को ऐसी फ़सलों की खेती करने के लिए बढ़ावा देता था क्योंकि इनसे राज्य को ज्यादा कर मिलता था। कपास और गन्ने जैसी फ़सलें बेहतरीन जिन्स-ए-कामिल थीं। चीनी, तिलहन और दलहन भी नकदी फ़सलों के अंतर्गत आती थीं। इससे पता चलता है कि एक औसत किसान की ज़मीन पर किस तरह पेट भरने के लिए होने वाले उत्पादन और व्यापार के लिए किए जाने वाले उत्पादन एक-दूसरे से जुड़े हुए थे।
कृषि उत्पादन में महिलाओं की भूमिका का विवरण दीजिए।
कृषि उत्पादन में महिलाओं की भूमिका का विवरण इस प्रकार दिया गया हैं:
- मध्यकालीन भारतीय कृषि समाज में उत्पादन प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। खेतिहर अर्थात् किसान परिवारों से संबंधित महिलाएँ कृषि उत्पादन में सक्रिय सहयोग प्रदान करती थीं तथा पुरुषों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर खेतों में काम करती थीं।
- पुरुष खेतों की जुताई और हल चलाने का काम करते थे। महिलाएँ मुख्य रूप में बुआई, निराई तथा कटाई का काम करती थीं और पकी हुई फ़सल का दाना निकालने में भी सहयोग प्रदान करती थीं।
- उत्पादन के कुछ पहलू; जैसे-सूत कातना, बरतन बनाने के लिए मिट्टी को साफ़ करना और गूँधने, कपड़ों पर कढ़ाई करना आदि मुख्य रूप से महिलाओं के श्रम पर ही आधारित थे। किसी वस्तु का जितना वाणिज्यीकरण होता था, उसके उत्पादन के लिए महिलाओं के श्रम की माँग उतनी ही अधिक होती थी।
- किसान और दस्तकार महिलाएँ न केवल खेती में सहयोग प्रदान करती थीं। अपितु आवश्यकता होने पर नियोक्ताओं के घरों में भी काम करती थीं और अपने उत्पादन को बेचने के लिए बाजारों में भी जाती थीं।
विचाराधीन काल में मौद्रिक कारोबार की अहमियत की विवेचना उदाहरण देकर कीजिए।
विचाराधीन काल (16वीं और 17वीं सदी )में मौद्रिक कारोबार की अहमियत पर विवरण निम्नलिखित हैं:
- सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में किसानों को नकदी अथवा जिन्स में भू-राजस्व अदा करने की छूट दी गई थी। किसानों को नकदी में भू-राजस्व भुगतान की सुविधा के कारण मौद्रिक कारोबार को भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करने का अवसर मिला।
- ग्रामीण शिल्पकार (कुम्हार, लोहर, नाई, बढ़ई, सुनार) ग्रामीण लोगों को विशेष प्रकार की सेवा प्रदान करते थे। फसल कटने और पकने पर प्राय: उन्हें फसल का एक हिस्सा दिया जाता था लेकिन इस व्यवस्था के साथ-साथ किसान और शिल्पकार परस्पर लेन-देन के बारे में आपस शर्तें तय करके प्राय: लोगों को नकदी में भुगतान करते थे।
- गाँव में प्राय: स्थानीय छोटे व्यापारी और सराफ पाए जाते थे। प्राय: उन्हें नकदी में लेने देन करने का अधिक शौक था। पंचायते भी अपराधियों पर नकद जुर्माने लगाती थी। आम परिस्थितियों में शहरों और गाँवों में वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय होता था। परिणाम-स्वरूप ग्रामों के कारोबार में भी मौद्रिकीकरण का महत्व बढ़ने लगा था।
- निर्यात के लिए उत्पादन करने वाले दस्तकारों को भी उनकी मज़दूरी का भुगतान अथवा अग्रिम भुगतान नकद रूप में ही किया जाता था।
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