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सामाजिक न्याय
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का क्या मतलब है ? हर किसी को उसका प्राप्य देने का मतलब समय के साथ-साथ कैसे बदला ?
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का अर्थ है की जो व्यक्ति जिसका अधिकारी है, उसे वह देना ही न्याय है। इसमें जनता की भलाई की सुनिश्चितता में हर व्यक्ति को उसका वाजिब हिस्सा देना शामिल है।
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का मतलब समय के साथ-साथ निरंतर बदलता रहा है: उदाहरण के लिए प्राचीन काल में प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का अर्थ था, कि यदि किसी व्यक्ति ने कोई गलत कार्य किया है, तो उससे दंड दिया जाए अथवा उसने अच्छा कार्य किया है, तो उससे पुरस्कार दिया जाए।
परन्तु आधुनिक समय में जर्मन दार्शनिक इमैनुएल कांट के अनुसार, हर मनुष्य की गरिमा होती है। अगर सभी व्यक्तियों की गरिमा स्वीकृत है, तो उनमें से हर एक का प्राप्य यह होगा कि उन्हें अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए अवसर प्राप्त हो। न्याय के लिए जरूरी हैकि हम तमाम व्यक्तियों को समुचित और बराबर की अहमियत दें।
अध्याय में दिए गए न्याय के तीन सिद्धांतों की संक्षेप में चर्चा करो। प्रत्येक को उदाहरण के साथ समझाइये।
आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्यों में न्याय एक बहुत महत्वपूर्ण धरना है। अध्याय में दिए गए न्याय के तीन सिद्धांत निम्नलिखित हैं:
- समान लोगों के प्रति समान बरताव: समाज के लिए समान व्यवहार अति महत्वपूर्ण और न्याय का आवश्यक सिद्धांत माना जाता है। माना जाता है कि मनुष्य होने के नाते सभी व्यक्तियों में कुछ समान चारित्रिक विशेषताएँ होती हैं। इसीलिए वे समान अधिकार और समान बरताव के अधिकारी हैं। आज अधिकांश उदारवादी जनतंत्रों में कुछ महत्त्वपूर्ण अधिकार दिए गए हैं। इनमें जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति केअधिकार जैसे नागरिक अधिकार शामिल हैं। इसमें समाज के अन्य सदस्यों के साथ समान अवसरों के उपभोग करने का सामाजिक अधिकार और मताधिकार जैसे राजनीतिक अधिकार भी शामिल हैं। ये अधिकार व्यक्तियों को राज प्रक्रियाओं में भागीदार बनाते हैं।
- समानुपातिक न्याय: समानुपातिक न्याय, न्याय का एक अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांत है। कभी-कभी कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिसमें सभी के साथ समान बरताव अपने आप में अन्याय साबित होगा। उदाहरण के लिए यदि किसी स्कूल में यह फैसला किया जाए, कि परीक्षा में शामिल होने वाले तमाम लोगों को बराबर के अंक दिए जाएँगे,क्योंकि सब एक ही स्कूल के विद्यार्थी हैं और सब ने एक ही परीक्षा दी है तो यह अन्याय ही होगा। लोगों को उनके प्रयास के पैमाने और अर्हता के अनुपात में ही पुरस्कृत किया जाना चाहिए।
- विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल: न्याय के जिस तीसरे सिद्धांत को हम समाज के लिए मान्य करते हैं, वह पारिश्रमिक या कर्त्तव्यों का वितरण करते समय लोगों की विशेष जरूरतों का ख्याल रखने का सिद्धांत है। विशेष जरूरतों या विकलांगता वाले लोगों को कुछ खास मामलों में असमान और विशेष सहायता के योग्य समझा जा सकता है। हमारे देश में आमतौर पर देखा जाता है कि,अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और ऐसी अन्य सुविधाओं तक पहुँच का अभाव जाति आधारित सामाजिक भेदभाव से जुड़ा है। इसीलिए संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में तथा शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
क्या विशेष जरूरतों का सिद्धांत सभी के साथ समान बरताव के सिद्धांत के विरूद्ध है ?
नहीं, विशेष जरूरतों का सिद्धांत सभी के साथ समान बरताव के सिद्धांत के विरूद्ध नहीं है। लोगों की विशेष जरूरतों को ध्यान में रखने का सिद्धांत समान बरताव के सिद्धांत को अनिवार्यतया खंडित नहीं, बल्कि उसका विस्तार ही करता है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धांत में यह अंतर्निहित है, कि जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भों में समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव किया जाए।
उदहारण स्वरूप:
- विशेष जरूरतों या विकलांगता वाले लोगों को कुछ खास मामलों में असमान और विशेष सहायता के योग्य समझा जा सकता है। लेकिन इस पर सहमत होना हमेशा आसान नहीं होता, कि लोगों को विशेष सहायता देने के लिए उनकी किन असमानताओं को मान्यता दी जाय।
- शारीरिक विकलांगता, उम्र या अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच न होना कुछ ऐसे कारक हैं, जिन्हें अनेक देशों में विशेष बरताव का आधार समझा जाता है।
- हमारे देश में आमतौर पर देखा जाता है कि अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और ऐसी अन्य सुविधाओं तक पहुँच का अभाव जाति आधारित सामाजिक भेदभाव से जुड़ा है। इसीलिए संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में तथा शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
सभी नागरिकों को जीवन की न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ उपलब्ध कराने के लिए राज्य की कार्यवाई को निम्न में से कौन से तर्क से वाजिब ठहराया जा सकता है ?
(क) गरीब और ज़रूरतमंदों को निशुल्क सेवाएँ देना एक धर्म कार्य के रूप में न्यायोचित है।
(ख) सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है।
(ग) कुछ लोग प्राकृतिक रूप से आलसी होते हैं और हमें उनके प्रति दयालु होना चाहिए।
(छ) सभी के लिए बुनियादी सुविधाएँ और न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करना साझी मानवता और मानव अधिकारों की स्वीकृति है।
(क) सभी नागरिकों को जीवन की बुनियादी स्थितियाँ उपलब्ध कराने के आधार पर राज्य का गरीबों और जरूरतमंदों को दान के रूप में निशुल्क सेवाएँ देना अनुचित है। क्योंकि ये सेवाएँ उनका अधिकार है। इन्हें भिक्षा या कृपा के रूप में प्रदान नहीं किया जा सकता।
(ख) सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है। यह तर्क बिल्कुल वाजिब ठहराया जा सकता है क्योंकि सभी नागरिकों को एक-समान अवसरों की उपलब्धता सुनिश्चित करना सरकार की ज़िम्मेदारी हैं।
(ग) कुछ लोग प्राकृतिक रूप से आलसी होते हैं और हमें उनके प्रति दयालु होना चाहिए। यह तर्क बिल्कुल वाजिब नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि प्राकृतिक रूप से आलसी होना किसी शारीरिक विकलांगता का परिचय नहीं देता।
(छ) सभी के लिए बुनियादी सुविधाएँ और न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करना साझी मानवता और मानव अधिकारों की स्वीकृति है। यह तर्क बिल्कुल वाजिब ठहराया जा सकता है क्योंकि न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ उपलब्ध कराना राज्य के कार्यों के संबंध में न्यायसंगत हैं।
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