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मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया
निम्नलिखित के कारण दे:-
वुडब्लॉक प्रिंट या तख़्ती की छपाई यूरोप में 1295 के बाद आयी।
1295 में मार्को पोलो नामक महान खोजी यात्री चीन में काफ़ी साल तक खोज करने के बाद इटली वापस लौटा। चीन के पास वुडब्लॉक वाली छपाई की तकनीक पहले से मौजूद थी। मार्को पोलो यह ज्ञान अपने साथ लेकर लौटा। फिर इतालवी भी तख़्ती की छपाई से किताबें निकालने लगे और जल्द ही यह तकनीक बाक़ी यूरोप में फैल गई।
निम्नलिखित के कारण दे:
मार्टिन लूथर मुद्रण के पक्ष में था और इसने इसकी खुलेआम प्रशंसा की।
धर्म सुधारक मार्टिन लूथर ने रोम कैथलिक चर्च की कुरीतियों की आलोचना करते हुए अपने पिच्चानवे स्थापनाएँ लिखीं। इसकी एक छपी प्रति विटेनबर्ग के गिरजाघर के दरवाजे पर टाँगी गई। इसमें लूथर ने चर्च को शास्त्रार्थ के लिए खुली चुनौती दी थी। शीघ्र ही लूथर के लेख बड़ी तादाद में छापे और पढ़े जाने लगे। इसके नतीज़े में चर्च में विभाजन हो गया। कुछ हफ़्तों में न्यू टेस्टामेंट के लूथर के तर्जुम या अनुवाद की 5000 प्रतियाँ बिक गई और 3 महीने के अंदर दूसरा संस्करण निकालना पड़ा। लूथर ने कहा कि मुद्रण ईश्वर की दी हुई महानतम देन है। वह मुद्रण के पक्ष में थे। उनका विश्वास था कि मुद्रण नए विचारों को फैलाने में मदद करती है जिससे राष्ट्र का सुधार होता है।
निम्नलिखित के कारण दे:
रोमन कैथोलिक चर्च ने सोलहवीं सदी के मध्य से प्रतिबंधित किताबों की सूची रखनी शुरू कर दी।
छपे पर हुए लोकप्रिय साहित्य के बल पर कम शिक्षित लोग धर्म की अलग-अलग व्याख्याओं से परिचित हुए। सोलहवीं सदी की इटली के एक किसान मनोकियो ने अपने इलाक़े में उपलब्ध किताबों को पढ़ना शुरु कर दिया था। उन किताबों के आधार पर उसने बाइबिल के नए अर्थ लगाने शुरू कर दिए, और उसने ईश्वर और सृष्टि के बारे में ऐसे विचार बनाए कि रोमन कैथलिक चर्च उससे क्रुद्ध हो गया। ऐसे धर्म-विरोधी विचारों को दबाने के लिए रोमन चर्च ने जब इन्क्वीज़ीशन शुरू किया तो मनोकियो को दो बार पकड़ा गया और आख़िरकार उसे मौत की सज़ा दे दी गई। धर्म के पास ऐसे पाठ और उस पर उठाए जा रहे सवालों से परेशान रोमन चर्च ने प्रकाशकों और पुस्तक-विक्रेताओं पर कई तरह की पाबंदियाँ लगाई, और 1558 से प्रतिबंधित किताबों की सूची रखने लगे।
निम्नलिखित के कारण दे:-
महात्मा गांधी ने कहा कि स्वराज की लड़ाई दरअसल अभिव्यक्ति, प्रेस और सामूहिकता के लिए लड़ाई है।
गांधीजी ने 1922 में असहयोग आंदोलन के माध्यम से देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुए ये शब्द कहे थे। उनका मानना था कि विचार अभिव्यक्ति की सवतंत्रता, प्रेस की आज़ादी और सामूहिकता की आज़ादी ही वे माध्यम है जिनके रास्ते पर चलकर देश की आज़ादी के सपने को हासिल किया जा सकता है। उनका मानना था कि औपनिवेशिक भारत सरकार इन तीन ताकतवर औज़ारों को दबाने का प्रयतन कर रही है। अत: स्वराज की लड़ाई, सबसे पहले तो इन संकटग्रस्त आज़ादियों की लड़ाई है।
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