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अक्क महादेवी
अक्क महादेवी का संक्षिप्त जीवन-परिचय दीजिए।
अक्क महादेवी का जन्म 12 वीं सदी में कर्नाटक के उउडुतरीनामक गाँव (जिला शिवमोगा) में हुआ था। इतिहास में वीर शैव आदोलन से जुड़े कवियों, रचनाकारों की एक लंबी सूची है। अक्क महादेवी इस आदोलन से जुड़ी एक महत्वपूर्ण कवयित्री थीं। चन्नमल्लिकार्जुन देव (शिव) इनके आराध्य थे। कवि वसवन्ना इनके गुरू थे। कन्नड़ भाषा में अक्क शब्द का अर्थ बहिन होता हें।
अक्क महादेवी अपूर्व सुंदरी थीं। एक बार वहाँ का स्थानीय राजा इनका अद्भुत - अलौकिक सौंदर्य देखकर मुग्ध हो गया तथा इनसे विवाह हेतु इनके परिवार पर दबाव डाला। अक्क महादेवी ने विवाह के लिए राजा के सामने तीन शर्त रखीं। विवाह के बाद राजा ने उन शर्तो का पालन नहीं किया, इसलिए महादेवी ने उसी क्षण राज-परिवार को छोड़ दिया। पर अक्क ने जो इसके आगे किया, वह भारतीय नारी के इतिहास की एक विलक्षण घटना बन गई, जिससे उनके विद्रोही चरित्र का पता चलता है। सबसे चौंकाने और तिलमिला देने वाला तथ्य यह है कि अक्क ने सिर्फ राजमहल नहीं छोड़ा, वहाँ से निकलते समय पुरुष वर्चस्व के विरुद्ध अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति के रूप में अपने वस्त्रों को भी उतार फेंका। वस्त्रों को उतार फेंकना केवल वस्त्रों का त्याग नहीं बल्कि एकांगी मर्यादाओं और केवल स्त्रियों के लिए निर्मित नियमों का तीखा विरोध था। स्त्री केवल शरीर नहीं है, इसके गहरे बोध के साथ महावीर जैन आदि महापुरुषों के समक्ष खड़े होने का प्रयास था। इस दृष्टि से देखें तो मीरा की पंक्ति तन की आस कबहू नहीं कीनी ज्यों रणमाँही सूरो अक्क पर पूर्णत चरितार्थ होती है।
अक्क के कारण शैव आदोलन से बड़ी संख्या में स्त्रियाँ (जिनमें अधिकांश निचले तबकों से थीं) जुड़ी और अपने संघर्ष और यातना को कविता के रूप में अभिव्यक्ति दी। स्वयं अक्क भी निचले तबके से ही आई थीं।
इस प्रकार अक्क महादेवी की कविता पूरे भारतीय साहित्य में इस क्रांतिकारी चेतना का पहला सर्जनात्मक दस्तावेज है और सम्पूर्ण स्त्रीवादी आदोलन के लिए एक अजस्र प्रेरणास्त्रोत भी।
वचनों की सप्रसंग व्याख्या करें:
हे भूख! मत मचल
प्यास, तड़प मत
हे नींद! मत सता
क्रोध, मचा मत उथल-पुथल
हे मोह! पाश अपने ढील
लोभ, मत ललचा
हे मद! मत कर मदहोश
हे मद! मत कर मदहोश
ईर्ष्या, जला मत
ओ चराचर! मत एक अवसर
आई हूँ संदेश लेकर चन्न मल्लिकार्जुन का
रस्तुत वचन शैव आंदोलन से जुड़ी कवयित्री अक्क महादेवी द्वारा रचित है। कर्नाटक में जन्मी इस कवयित्री ने चन्न मल्लिकार्जुन अर्थात् शिव की आराधना की। यह ‘वचन’ मूल रूप से अंग्रेजी में रचा गया है और इसका हिन्दी अनुवाद केदारनाथ सिंह ने किया है। इस वचन में कवयित्री इंद्रियों पर नियत्रंण का सदेश देती जान पड़ती है। उसका ढंग उपदेशात्मक न होकर प्रेमभरा मनुहार है।
व्याख्या-कवयित्री भूख से न मचलने के लिए कहती है और प्यास से कहती है कि तू तड़प मत। भूख-प्यास मचल-तड़प कर व्यक्ति की साधना में बाधा पहुँचाती हैं, अत: साधक को भूख-प्यास पर नियंत्रण करना आवश्यक है। नींद भी व्यक्ति को सताती है और क्रोध की प्रवृत्ति भी उसके मन में उथल-पुथल मचाती है। इनसे बचना साधक के लिए आवश्यक है। लोभ व्यक्ति को ललचाकर चित कर देता है। नशा भी व्यक्ति को उन्मत्त बना देता है। ईर्ष्या की भावना व्यक्ति को जलाती है। कवयित्री इससे बचने के लिए कहती है। कवयित्री जड़ और चेतन प्राणियों को सावधान करते हुए कहती है कि वह भगवान शिव का संदेश लेकर आई है। हमें इस पावन अवसर को चूकना नहीं चाहिए।
भावार्थ यह है कि हमें प्रभु भक्ति के लिए अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करना आवश्यक है। व्यक्ति भूख-प्यास, नींद, क्रोध, मोह-मद, ईर्ष्या आदि कुप्रवृत्तियों के वशीभूत होकर भगवान शिव से दूर होता चला जाता है। अत: इन पर नियंत्रण आवश्यक है।
वचनों की सप्रसंग व्याख्या करें :
हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर
मँगवाओ मुझसे भीख
और कुछ ऐसा करो
कि भूल जाऊँ अपना घर पूरी तरह
झोली फैलाऊँ और न मिले भीख
कोई हाथ बढ़ाए कुछ देने को
तो वह गिर जाए नीचे
और यदि मैं झुकूँ उसे उठाने
तो कोई कुत्ता आ जाए
और उसे झपटकर छीन ले मुझसे।
प्रसंग- प्रस्तुत ‘वचन’ कर्नाटक की प्रसिद्ध भक्त कवयित्री अक्का महादेवी द्वारा रचित है। यह वचन मूल रूप से अग्रेजी में लिखा गया है और इसका हिन्दी में अनुवाद केदारनाथ सिंह ने किया है। इस वचन में कवयित्री ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव व्यक्त करती है। वह भौतिक वस्तुओं के प्रयोग से स्वयं को बचाए रखना चाहती है। वह अपने ‘अहं’ को गलाना चाहती है ताकि वह निस्पृह स्थिति में आ जाए।
व्याख्या-कवयित्री अपने प्रभु को जूही के फूल के समान कोमल बताती है। लेकिन कठोर एवं अभावग्रस्त जीवन बिताने की कामना करती है। वह चाहती है कि उसके ईश्वर उससे भीख मँगवाने जैसा तुच्छ कार्य तक करवाएँ। उसे इसमें कोई ऐतराज नहीं होगा। वह भगवान से ऐसा कुछ चमत्कार करने को कहती है जिससे वह अपने घर को भूल जाए अर्थात् घर की मोह-ममता उसे सता न सके।’ वह इस स्थिति के लिए भी तैयार है कि जब वह दूसरों से भीख पाने के लिए अपनी झोली फैलाए और उसे भीख मिले ही नहीं। यदि? कोई मुझे कुछ देना भी चाहे तो वह मुझ तक न पहुँचकर बीच में ही गिर जाए। यदि मैं उस नीचे गिरी वस्तु को उठाने के लिए नीचे झुकूँ तो अचानक कोई कुत्ता आकर झपट्टा मार दे और उस वस्तु को मुझसे छीनकर ले भागे।
भाव यह है कि कवयित्री भौतिक वस्तुओं के अभाव को सहर्ष झेलने को तैयार है। वह तो केवल ईश्वर की अनुकम्पा की कामना करती है। उपर्युक्त वर्णित स्थितियाँ उसके अहंकार को पूरी तरह नष्ट कर देंगी, अत: वरण करने योग्य हैं।
लक्ष्य-प्राप्ति में इंद्रीयाँ बाधक होती हैं-इसके संदर्भ में अपने तर्क दीजिए।
लक्ष्य की प्राप्ति में इंद्रियाँ बाधक होती हैं-यह कथन बिल्कुल सत्य है। इंद्रियाँ व्यक्ति को विषय-वासनाओं के जाल में उलझाती हैं। इंद्रियों का सुख व्यक्ति को भ्रमित करता है। उसे इन चीजों में आनंद आता जाता है और वह ईश्वर-प्राप्ति के लक्ष्य में पिछड़ता चला जाता है। कोई भी लक्ष्य तब तक नहीं पाया जा सकता जब तक इंद्रियों पर नियंत्रण न हो जाए। यही कारण है कि हमारे ऋषि-मुनि घर गृहस्थ को त्यागकर तप करने जाते रहे हैं। यदि व्यक्ति में प्रबल कामना हो तो वह घर में रहकर भी इंद्रियों पर काबू पा सकता है और लक्ष्य-प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकता है।
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